पैरालंपिक : एक न्यूरोलॉजिस्ट ने शुरु कराए थे ये खेल! इनमें अब तक कैसा रहा भारत का प्रदर्शन?

पेरिस पैरालंपिक 2024 में भारत टोक्यो के बाद अब तक के अपने सबसे अच्छे प्रदर्शन की तरफ बढ़ता लग रहा है

लंदन पैरालंपिक 2012 की एक तस्वीर/विकीमीडिया कॉमन्स
लंदन पैरालंपिक 2012 की एक तस्वीर/विकीमीडिया कॉमन्स

साल 1972. जर्मनी का हीडलबर्ग शहर. तब यह कुल जमा चौथी बार ही था जब पैरालंपिक खेलों का आयोजन हो रहा था. वहीं, भारत के लिहाज से यह महज दूसरा था. चार साल पहले 1968 में जब भारत पहली-पहली बार हिस्सा लेने के लिए इजरायल के तेल अवीव शहर पहुंचा था, तो किस्सा कुछ खास यादगार नहीं रहा.

उसे पदक के बगैर खाली हाथ लौटना पड़ा था. लेकिन इस बार कहानी कुछ दूसरे ढंग से घटी. मुरलीकांत पेटकर ने न सिर्फ गोल्ड पर निशाना साधा, बल्कि एक विश्व रिकॉर्ड भी कायम कर डाला. तब से लेकर पेरिस पैरालंपिक 2024 तक भारत का सफर काफी उतार-चढ़ाव वाला रहा है. शानदार प्रदर्शनों के बीच पदकों का सूखा पड़ा, लेकिन फिर जोर-शोर से वापसी भी हुई.

वैसे खुद पैरालंपिक खेलों का इतिहास भी कम रोचक नहीं रहा है. कैसे एक न्यूरोलॉजिस्ट ने द्वितीय विश्वयुद्ध में घायल सैनिकों के रिहैबिलिटेशन के लिए इन खेलों का आयोजन शुरू किया, जिसने धीरे धीरे कॉम्पिटिटिव खेलों का रूप ले लिया. ऐसे में आइए पैरालंपिक खेलों के इतिहास और उसके समांतर भारत की यात्रा को ट्रेस करते हैं.

पैरालंपिक खेलों का इतिहास

सर लुडविग गुटमैन, जर्मन न्यूरोलॉजिस्ट

पैरालंपिक शब्द का मतलब होता है - ओलंपिक के समानांतर (parallel with the Olympics) होने वाली एक प्रतियोगिता. इस शब्द को अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति (आईओसी) द्वारा 1988 में सियोल में अप्रूव किया गया था. 

दिव्यांग लोगों के लिए संगठित रूप में इन खेलों की स्थापना का श्रेय सर लुडविग गुटमैन को दिया जाता है. गुटमैन एक न्यूरोलॉजिस्ट थे जो दूसरे विश्व युद्ध से पहले नाजी जर्मनी से भागकर इंग्लैंड चले आए थे, और वहां के स्टोक मैंडविले अस्पताल में बतौर न्यूरोलॉजिस्ट प्रैक्टिस कर रहे थे. 

पैरालंपिक खेलों की नींव भी इसी स्टोक मैंडविले अस्पताल में ही रखी गई. दरअसल, दूसरे विश्व युद्ध के बाद बहुत सारे सैनिक जख्मी हुए थे और कई सैनिक दिव्यांग भी हो गए थे. गुटमैन शारीरिक रूप से अक्षम इन लोगों की मदद के लिए कई तरीके ढूंढ़ रहे थे. ऐसे में खेल भी उन लोगों के रिहैबिलिटेशन के लिए एक अहम पहलू के तौर पर उभरा. साल 1948 में जब लंदन में ओलंपिक खेल हुए तो लुडविग गुटमैन ने भी व्हीलचेयर पर बैठे इन खिलाड़ियों के लिए पहली बार किसी खेल प्रतियोगिता का आयोजन किया. 

उसके बाद खेलों का ये सिलसिला चल निकला. रिहैबिलिटेशन के लिए शुरू हुए इन खेलों ने धीरे-धीरे कॉम्पिटिटिव खेलों का रूप ले लिया. 1960 में यही खेल आधिकारिक तौर पर पहली बार पैरालंपिक खेलों के रूप में आयोजित हुए. दिव्यांग सैनिकों के लिए खेल शुरू करने के पीछे गुटमैन का कहना था, "उस समय तक समस्या निराशाजनक थी, क्योंकि हमें न केवल इन पैराप्लेजिक या क्वाड्रिप्लेजिक पुरुषों, महिलाओं और बच्चों के जीवन को बचाना था, बल्कि उन्हें उनका सम्मान भी वापस दिलाना था और उन्हें खुशहाल और सम्मानित नागरिक बनाना था."

बहरहाल, पहला पैरालंपिक खेल 1960 में इटली की राजधानी रोम में आयोजित किया गया. 18 से 25 सितंबर के बीच खेले गए इन खेलों में कुल 18 देशों के 209 एथलीटों ने हिस्सा लिया था. हालांकि भारत का नाम इसमें शामिल नहीं था. साल 2001 में आईओसी और अंतरराष्ट्रीय पैरालंपिक समिति (आईपीसी) के बीच एक समझौता हुआ. इसमें कहा गया कि जिन भी देशों में ओलंपिक खेलों का आयोजन होगा, उन्हीं देशों के पास पैरालंपिक खेलों का आयोजन करने का भी अधिकार होगा. 

पैरालंपिक खेलों में भारत का सफर

अपने कैरियर के चरम पर मुरलीकांत पेटकर, 2024 में उन पर 'चंदू चैंपियन' नाम से फिल्म भी बनी

भारत ने 1968 में इजराइल के तेल अवीव में आयोजित हुए पैरालंपिक खेलों में अपनी पहली मौजूदगी दर्ज कराई थी. भारतीय प्रतिनिधिमंडल के हिस्से के रूप में कुल 10 एथलीट इन खेलों में भेजे गए थे, जिनमें आठ पुरुष और दो महिलाएं थीं. हालांकि भारत एक भी पदक जीतने में नाकामयाब रहा, लेकिन यह बड़े मंच पर भारत के पैरा-एथलीटों के लिए पहला वास्तविक अनुभव था. 

वो पश्चिमी जर्मनी का हीडलबर्ग शहर था, जहां 1972 में पैरालंपिक खेलों का आयोजन हो रहा था. यह दूसरा मौका था जब भारतीय पैरा-एथलीट वहां देश की नुमाइंदगी कर रहे थे. पिछली बार खाली हाथ लौटने की कसक तो थी ही, इस बार भी कुछ खास उम्मीद नहीं थी. लेकिन काल, जैसे मुरलीकांत पेटकर नाम के भारतीय पैरा-तैराक को वो जादुई डैने देने की तैयारी कर रहा था जिससे वे पानी को चिरते हुए एक अमिट इतिहास लिखने वाले थे.

वो 50 मीटर फ्रीस्टाइल तैराकी की स्पर्धा थी. मुरलीकांत पेटकर, जो एक समय में भारतीय सेना के सदस्य रह चुके थे और बाद में एक दुर्घटना या कहिए दुर्घटनाओं की एक शृंखला के चलते कमर के नीचे तक पैरालाइज्ड हो चुके थे, इस पैरा-तैराक ने भारत को पैरालंपिक खेलों के इतिहास में पहला चमचमाता हुआ गोल्ड मेडल दिलाया. उन्होंने न सिर्फ गोल्ड मेडल दिलाया बल्कि 37.331 सेकंड का समय निकालते हुए एक विश्व रिकॉर्ड भी अपने नाम किया था.

बाद में पेटकर ने उस लम्हे को याद करते हुए बताया, "मुझे बाद में पता चला कि गोल्ड के साथ-साथ मैंने वर्ल्ड रिकॉर्ड भी बनाया है. वहां बहुत सारे सिख भाई थे जिन्होंने खूब तालियां बजाई. जब भारतीय तिरंगा देखा तो उस दिन तो झंडे को चूमा था." बहरहाल, 1972 के पैरालंपिक में भारत की झोली में सिर्फ यही एक गोल्ड मेडल रहा. भारत कुल 42 देशों में से 24वें स्थान पर रहा. हालांकि इसके बाद के दो पैरालंपिक खेलों (1976 और 1980) में भारत ने हिस्सा नहीं लिया.

1984 पैरालंपिक और आगे की कहानी

1984 ग्रीष्मकालीन पैरालंपिक दो अलग-अलग स्थानों पर आयोजित किया गया था. ब्रिटेन के स्टोक मैंडविल में रीढ़ की हड्डी की चोटों वाले व्हीलचेयर एथलीटों के लिए प्रतियोगिताएं आयोजित की गईं, जबकि न्यूयॉर्क के लॉन्ग आइलैंड में मिचेल एथलेटिक कॉम्प्लेक्स और हॉफस्ट्रा यूनिवर्सिटी में बाकी पैरा-एथलीटों के लिए प्रतियोगिताएं आयोजित हुईं. भारत ने इसमें कुल चार पदक जीते, जिनमें से तीन अकेले जोगिंदर सिंह बेदी के नाम रहे.
 
बेदी ने एक रजत के साथ दो कांस्य पदक जीते थे. उन्होंने पुरुषों के शॉट पुट में रजत पदक जीता और इसके बाद डिस्कस और जेवलिन थ्रो में कांस्य पदक जीता. एक अन्य भारतीय भीमराव केसरकर ने जेवलिन थ्रो में रजत पदक जीता. कुल 54 देशों में भारत दक्षिण कोरिया के साथ संयुक्त रूप से 37वें स्थान पर रहा. यह देश का अब तक का सबसे बढ़िया प्रदर्शन था. लेकिन इसके बाद अगले 20 सालों के लिए जैसे पदकों का सूखा पड़ गया. 

1984 में सबसे अधिक पदक जीतने के बाद साल 2000 तक भारतीय दल पोडियम पर जगह बनाने के लिए संघर्ष करता रहा. हालांकि 2004 के एथेंस खेलों में यह सूखा समाप्त हो गया. इस बार भारत ने कुल दो पदक जीते, जिनमें एक स्वर्ण और एक कांस्य पदक शामिल था. भारत की तरफ से पैरा-एथलीट देवेन्द्र झाझरिया ने जेवलिन थ्रो में स्वर्ण पदक जीता, जबकि राजिंदर सिंह ने 56 किलोग्राम वर्ग में पावरलिफ्टिंग में कांस्य पदक जीता. इस तरह भारत 53वें स्थान पर रहा.

2008 के बीजिंग पैरालंपिक में एक बार फिर भारत को कोई पदक नहीं मिला. 2012 में भारत ने लंदन पैरालंपिक में रजत पदक जीता था, जिसका श्रेय एचएन गिरीशा को जाता है. उन्होंने पुरुषों की ऊंची कूद एफ42 कैटेगरी में रजत पदक जीता था. हालांकि, उस साल भारत ने सिर्फ यही एक पदक जीता था. 2016 के रियो पैरालंपिक भारत ने शानदार प्रदर्शन करते हुए चार पदकों की अपनी सर्वोच्च उपलब्धि की बराबरी कर ली. ये चारों पदक एथलेटिक्स से आए थे, जो एक तरह से भारतीय पैरा-एथलीटों का मजबूत पक्ष रहा है.

रियो पैरालंपिक में मरियप्पन थंगावेलु और देवेंद्र झाझरिया ने क्रमशः ऊंची कूद एफ42 और भाला फेंक एफ46 में स्वर्ण पदक जीता था, जबकि दीपा मलिक ने शॉटपुट में रजत पदक जीता. दीपा पहली भारतीय महिला पैरा-एथलीट बनी थीं जिन्होंने पदक जीता. इसके अलावा वरुण सिंह भाटी ने भी ऊंची कूद एफ42 वर्ग में कांस्य पदक जीता था.  

टोक्यो पैरालंपिक में सबसे दमदार प्रदर्शन 

पैरालंपिक खेलों के इतिहास में टोक्यो पैरालंपिक भारत के लिए सबसे शानदार टूर्नामेंट साबित हुआ था. यह पहली बार था जब भारत के पदकों की संख्या दोहरे अंकों में पहुंची थी. भारतीय पैरा-एथलीटों ने कुल 19 पदक देश की झोली में डाले थे, जिनमें एथलेटिक्स में सबसे ज्यादा आठ, शूटिंग में पांच, बैडमिंटन में चार, टेबल टेनिस और तीरंदाजी में एक-एक मेडल शामिल थे. टोक्यो पैरालंपिक से पहले तक भारत ने कुल 11 बार इन खेलों में हिस्सा लिया था. इस दौरान देश ने कुल 12 पदक जीते जिनमें चार गोल्ड थे. 

लेकिन टोक्यो पैरालंपिक ने पदक तालिका को एक दम से बदल कर रख दिया. इस टूर्नामेंट के बाद भारत की पदक तालिका नौ गोल्ड सहित कुल 31 पर पहुंच गई थी. भारत ने अभूतपूर्व प्रदर्शन करते हुए दोगुने से ज्यादा मेडल इस टूर्नामेंट में जीते.

पेरिस पैरालंपिक में अब तक का प्रदर्शन

अवनि लेखारा, पेरिस पैरालंपिक में गोल्ड मेडल विजेता

रिपोर्ट लिखे जाने तक पेरिस पैरालंपिक में भारत ने शानदार प्रदर्शन करते हुए अब तक कुल 15 मेडल जीते हैं. भारत के खाते में अब तक तीन गोल्ड, पांच सिल्वर और पांच ब्रॉन्ज मेडल हैं. सबसे पहले अवनि लेखरा ने R2 वूमेन्स 10 मीटर एयर राइफल (SH1) स्पर्धा में 30 अगस्त को स्वर्ण पदक जीता. अवनि ने पैरालंपिक रिकॉर्ड के साथ गोल्ड मेडल अपने नाम किया. इसी इवेंट में भारत की मोना अग्रवाल ने कांस्य पदक जीता.

फिर पेरिस पैरालंपिक में भारत को तीसरा मेडल प्रीति पाल ने दिलाया. उन्होंने वीमेन्स 100 मीटर रेस (T35) में ब्रॉन्ज मेडल हासिल किया. इसके बाद निशानेबाज मनीष नरवाल ने भारत को चौथा मेडल दिलाया. उन्होंने मेन्स 10 मीटर एयर पिस्टल (SH1) में सिल्वर मेडल हासिल किया. पेरिस पैरालंपिक 2024 के तीसरे दिन यानी 31 अगस्त को महिला निशानेबाज रुबीना फ्रांसिस ने पांचवां मेडल दिलाया. यह ब्रॉन्ज मेडल रहा.

फिर एक सितंबर को प्रीति पाल ने वीमेन्स 200 मीटर रेस (T35) में ब्रॉन्ज और निषाद कुमार ने मेन्स हाई जंप (T47) में सिल्वर मेडल जीता. अब दो सितंबर को योगेश कथुनिया ने डिस्कस थ्रो में सिल्वर और नितेश कुमार ने पैरा बैडमिंटन में गोल्ड मेडल अपने नाम किया. इसके अलावा सुमित अंतिल ने भी जेवलिन थ्रो एएफ 64 कैटेगरी में 70.59 मीटर की दूरी तक जेवलिन फेंककर गोल्ड मेडल जीता. वे इसी प्रतियोगिता टोक्यो में भी गोल्ड मेडल जीत चुके हैं. 

इस तरह 1960 में पैरालंपिक खेलों की शुरुआत के बाद से अब तक 12 पैरालंपिक खेलों में हिस्सा लेते हुए भारत ने 12 स्वर्ण, 17 रजत और 17 कांस्य सहित 46 पदक जीते हैं. इनमें से अकेले 19 पदक टोक्यो पैरालंपिक 2020 में आए. 

फिलहाल पेरिस पैरालंपिक में भारत का सफर जारी है और अभी तक ऐसा लग रहा है कि टोक्यो के बाद यह सबसे अच्छा होने जा रहा है.

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