लिखाई, डायरेक्शन या एक्टिंग, पंकज त्रिपाठी की ‘मैं अटल हूं’ कहां कमजोर पड़ गई?
'मैं अटल हूं' के डायरेक्टर रवि जाधव ने 2011 में मराठी में बालगंधर्व की बायोपिक बनाई थी जो काफी सराही गई थी

फिजिक्स में चुंबकीय क्षेत्र और उसके तरंग से पैदा करंट को समझाने के लिए फ्लेमिंग नाम के एक वैज्ञानिक ने 18वीं शताब्दी में एक नियम दिया- फ्लेमिंग के दाएं हाथ का नियम. फ्लेमिंग ने अपने दाएं हाथ की तर्जनी (इंडेक्स फिंगर), मध्यमा (मिडिल फिंगर) और अंगूठा (थंब) को एक दूसरे के लंबवत यानी परपेंडिकुलर रखते हुए बल, चुंबकीय क्षेत्र और करंट की दिशा के बारे में समझाया. हिंदी सिनेमा की ताज़ा आमद 'मैं अटल हूं' पर बात की शुरुआत फ्लेमिंग के नियम के साथ क्यों?
क्योंकि बड़े पर्दे पर पंकज त्रिपाठी को जब-जब कुछ अदा के साथ सिर झटकते हुए दाहिने हाथ की उंगलियों को अटल बिहारी वाजपेयी की चिर-परिचित शैली में उठाते हुए देखेंगे, फ्लेमिंग ही याद आएंगे. 19 जनवरी, 2024 को भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की ज़िंदगी पर आधारित फिल्म 'मैं अटल हूं' रिलीज़ हुई.
अदाकारी में अपना लोहा मनवा चुके पंकज त्रिपाठी ने अटल बिहारी वाजपेयी का किरदार निभाया है. भाषा और रहन-सहन की शैली के आधार पर ये उम्मीद की जा रही थी कि इस किरदार में पंकज त्रिपाठी एक्टिंग के एक अलग सोपान पर पहुंच जाएंगे. लेकिन क्या वाकई ऐसा हो पाया? फिल्म की लिखाई से लेकर अदाकारी तक पर एक-एक कर नज़र डालते हैं.
2010 में मराठी म्यूज़िकल फिल्म नटरंग से अपने भीतर के निर्देशक को दर्शकों के सामने पेश करने वाले रवि जाधव ने ही 'मैं अटल हूं' गढ़ी है. 2011 में रवि जाधव ने मराठी में ही बालगंधर्व की बायोपिक बनाई. ख़ूब सराही भी गई. इस बार फिर उन्होंने इसी विधा में खुद को आजमाया. इस बार किरदार ऐसा जो कवि से नेता बना था. अटल बिहारी वाजपेयी. भारत के पूर्व प्रधानमंत्री और भारतीय जनता पार्टी के संस्थापक सदस्य.
वाजपेयी खुद एक मज़बूत किरदार थे. एक कवि और राजनेता का किरदार गहरे तौर पर उनमें गुंथा था. अपने कुछ खासे चर्चित और विवादित बयानों के बावजूद उदारवादी होने की छवि वे बना पाए थे. लोग उन्हें 'अजातशत्रु' कहते थे. क्लिष्ट हिंदी, बोलने की काव्यात्मक शैली और सादा रहन-सहन उनकी पहचान बन गई थी. रवि जाधव ने अपनी चुनौती का पहला पड़ाव पंकज त्रिपाठी को इस किरदार के लिए चुनकर पार किया.
ऋषि विरमानी के साथ मिलकर रवि जाधव ने ये फिल्म लिखी है. लिखावट और निर्देशन के स्तर पर फिल्म अटल के किरदार की मज़बूती को कायम नहीं रख पाई. अटल बिहारी वाजपेयी के जीवन से जुड़ी फिल्म में एक भी ऐसी घटना नहीं दिखेगी जो इंटरनेट पर पसरे आर्टिकल्स में ना मिल जाए. अटल बिहारी वाजपेयी के जीवन की जिन भी घटनाओं को फिल्म में शामिल किया गया है, उनमें एक की भी डिटेलिंग देखने को नहीं मिलती. ये शिकायत हिंदी में बनीं ज्यादातर बायोग्राफिकल फिल्मों के साथ रहती है. इस परंपरा को ये फिल्म भी बल ही देती है.
मसलन, मंच से घबराता हुआ छोटा बच्चा कैसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में अपनी भाषण कला से जाना जाने लगा? उनके पिता कृष्ण बिहारी वाजपेयी (पीयूष मिश्रा ने ये किरदार निभाया है) के साथ फिल्म में रिश्ता बस एक मोटिवेशनल स्पीकर जितना ही दिखता है. जब भी अटल उलझ जाते हैं, उनके पिता एकाध प्रेरणादायी बात कहकर हौसला देने लगते हैं.
आरएसएस की शाखा में आवाजाही, कविताओं से मिली अलग पहचान और फिर उस पहचान के बूते नागपुर (संघ का मुख्यालय) से बुलावा या फिर दीनदयाल उपाध्याय से नजदीकी बढ़ना, किसी भी घटना की कोई परत फिल्म खोल नहीं पाती. सत्ता तक भारतीय जनता पार्टी को पहुंचाने में अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की बराबर भूमिका थी. अटल-आडवाणी का नाम एक साथ लिया जाता रहा है. लेकिन उनकी दोस्ती पर भी डायरेक्टर ने ज्यादा वक्त नहीं खर्चा है.
बतौर राजनेता अटल बिहारी वाजपेयी अपने भाषणों के लिए भी जाने गए. ठहराव के साथ और अलग-अलग भाव-भंगिमा में बोलते हुए वाजपेयी के वीडियोज़ गाहे-बगाहे सोशल मीडिया पर वायरल होते रहते हैं. "सरकारें आएंगी, जाएंगी. पार्टियां बनेंगी, बिगड़ेंगी लेकिन ये देश रहना चाहिए...", "वहां (अयोध्या में) नुकीले पत्थर निकले हैं. वहां पर तो कोई बैठ नहीं सकता. तो जमीन को समतल करना होगा...", "राम जी ने कहा है, मैं मृत्यु से नहीं डरता. डरता हूं तो बदनामी से..." कविताओं से इतर अटल बिहारी वाजपेयी के कई भाषण आज तक याद किए जाते हैं. लेकिन 'मैं अटल हूं' फिल्म का एक भी संवाद याद रह जाने लायक वज़न के साथ नहीं दिखता है. रियल लाइफ में अटल बिहारी के भाषणों की छवि तले रील लाइफ के अटल की बातें दबी-दबी सी हैं.
पंकज त्रिपाठी. गैंगस्टर से लेकर सीधे-सादे किरदार तक को निभा चुका कलाकार. 'मैं अटल हूं' का जब पोस्टर आया तो पंकज त्रिपाठी इस दिग्गज नेता के किरदार में ख़ूब सधे हुए लगे. लेकिन फिल्म में अटल बिहारी वाजपेयी की मिमिक्री करते हुए लगे. यह बहस आंगिक, वाचिक और सात्विक अभिनय के स्तर पर चलती है. थमकर बोलते हुए पंकज त्रिपाठी अपने किरदार में जमते हैं. लेकिन गर्दन को झटकना और हाथ का एक ख़ास तरह का भाव मिमिक्री जैसा लगता है.
संसद से लेकर जनसभाओं तक में भाषण वाले जितने सीन दिखते हैं, उनमें पंकज त्रिपाठी रमे हुए लगते हैं. कह सकते हैं कि लिखाई और डायरेक्शन के स्तर पर फिल्म के कलेवर के ढीले होने का असर उनकी एक्टिंग पर दिखता है. लिखाई में थोड़ी और डिटेलिंग होती, डायरेक्शन कुछ और कसा हुआ होता तो ये फिल्म 'गुदड़ी' जैसी नहीं लगती. गुदड़ी, गांव का लोकप्रिय बिछौना है. अलग-अलग तरह के घिस चुके कपड़ों को एक साथ सिलाई कर बेडशीट का आकार दे दिया जाता है, जो गुदड़ी कहलाता है. ये फिल्म एक नेता के जीवन की अलग-अलग घटनाओं को शूट कर एक-दूसरे से जोड़ा हुआ-सा लगता है.