मुंबई के पास पेण में बनने वाली गणेश की मूर्तियों को मिला GI टैग, जानें क्या है इनकी खासियत

पेण में भगवान गणेश की मूर्तियां बनाने का इतिहास लगभग एक सदी से ज्यादा पुराना है. इसकी शुरुआत पेशवा काल से मानी जाती है

पेण मूर्तियों का इतिहास लगभग एक सदी से ज्यादा पुराना है

महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले के पेण में बनने वाली गणेश की प्रसिद्ध मिट्टी की मूर्तियों और गणेश उत्सव के दौरान खूब डिमांड में रहने वाली मूर्तियों को भौगोलिक संकेत यानी GI टैग दिया गया है. पेटेंट, डिजाइन और ट्रेड मार्क्स महानियंत्रक (CGPDTM) ऑफिस की तरफ से जारी किए गए जीआई टैग के बाद ऐसी उम्मीदें हैं कि कहीं और बनी मूर्तियों को अब पेण पूर्ति के तौर पर पेश नहीं किया जा सकेगा या बेचा जा सकेगा.

पेण मुंबई से करीब 40 किमी दूरी पर है. यहां के कारीगर मूर्तियों को खास तौर पर हाथ से तैयार करते हैं. इनको बनाने में मिट्टी और नेचुरल रंगों का ही इस्तेमाल किया जाता है. पेण में बनाई गई मूर्तियों को उनकी खूबसूरती खासतौर पर भगवान की शांत अभिव्यक्ति, शेडिंग और कलर वर्क के लिए जाना जाता है. यहां के कारीगरों को 'अखानी' के लिए भी जाना जाता है.

आंखों पर नक्काशी करने की कला को मराठी में अखानी कहते हैं. पेण के कारीगर इस कला में काफी कुशल माने जाते हैं. इस तालुका में  डेढ़ लाख मूर्ति बनाने वाली इकाइयां हैं, जिनमें लगभग दो लाख मूर्तिकार काम करते हैं. इसके अलावा इन मूर्तियों तो अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और उन दूसरे देशों में जहां बड़ी संख्या में भारतीय रहते हैं, निर्यात भी किया जाता है. 

पेण मूर्तियों का इतिहास लगभग एक सदी से ज्यादा पुराना है. इनकी शुरुआत पेशवा काल की मानी जाती है. हालांकि तत्कालीन बॉम्बे प्रेसिडेंसी में सांप्रदायिक तनाव के मद्देनजर और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ असंतोष की अभिव्यक्ति के रूप में 1893-94 में जब  'लोकमान्य' बाल गंगाधर तिलक ने सार्वजनिक गणेश उत्सवों को बढ़ावा दिया तो पेण की मूर्तियों को भी प्रोत्साहन मिला. यहां छोटी फैक्टरियों में सालाना लगभग 10,000 मूर्तियां बनाई जाती हैं, वहीं मध्यम और बड़ी फैक्टरियों में लगभग 50,000 से एक लाख तक मूर्तियां बनती हैं. मूर्ति के लिए जरूरी 'शादु माटी' या मिट्टी गुजरात के भावनगर जिले से लाई जाती है. यह पर्यावरण के अनुकूल है और मूर्तियों को जब तालाबों, झीलों या नदियों में विसर्जित किया जाता है तो कम नुकसान पहुंचाती है. 

पेण के पास की पहाड़ियों में मिलने लाल मिट्टी निम्न गुणवत्ता की थी हालांकि मुंबई से नजदीकी ने इसके पक्ष में काम किया. मैंगलोर टाइल्स और दूसरा सामान ढोने वाले मालवाहक जहाज अक्सर मुंबई बंदरगाह पर रुकते थे. समुद्र में जहाज की स्थिरता के लिए वजन बढ़ाने के लिए गुजरात से चिकनी मिट्टी या चिकनमती की बोरियां अक्सर इन जहाजों में लादी जाती थीं. व्यापारी इन बोरियों को मुंबई में औने-पौने दाम पर बेच देते थे, जहां से इसे नाव से पेण से एक मील दूर अंतोरा बंदरगाह तक पहुंचाया जाता था. इससे मूर्तिकारों आसानी से मिट्टी मिल जाती थी.

जिला उद्योग केंद्र, रायगढ़ के महाप्रबंधक जी.एस. हरलाय्या ने इंडिया टुडे से बातचीत में कहा कि पेण में बनी गणेश मूर्तियों को अब उनकी विशिष्ट जीआई पहचान मिल गई है. पेण में मूर्ति बनाने वालों का जीआई लोगो दूसरे लोग अब इस्तेमाल नहीं कर सकते. इससे इसकी पहचान, मार्केटिंग और ब्रांडिंग को बढ़ावा मिलेगा. जीआई टैग पेन में मूर्ति बनाने वाले उद्योग के लिए केंद्र और राज्य सरकार की योजनाओं, जैसे क्लस्टर योजनाएं और रोजगार पैदा करने के लिए भी कारगर साबित होगा. जीआई टैग के लिए आवेदन दायर करने वाले श्री गणेश मूर्तिकर अणि व्यवसायी कल्याणकारी मंडल के श्रीकांत देवधर के मुताबिक अब इन मूर्तियों के लिए पेटेंट मिलने का रास्ता खोलेगा. 

Read more!