पर्दे पर कितना कामयाब रहा अक्षय कुमार का 'मिशन रानीगंज'!
'मिशन रानीगंज' भी सच्ची घटना पर आधारित फिल्म है, क्योंकि पिछले कई सालों से अक्षय कुमार ने काल्पनिक घटनाओं पर भरोसा करना छोड़ दिया है

सिनेमाघरों में लगी हुई है फिल्म 'मिशन रानीगंज: द ग्रेट भारत रेस्क्यू'. यूं तो जब ये फिल्म थिएटर के लिए झालर-झुमका से लैस होकर निकली थी तो 'द ग्रेट इंडियन रेस्क्यू' थी, लेकिन फिर रास्ते में मिली 'इंडिया-भारत बहस' की आंधी के बाद ये 'द ग्रेट भारत रेस्क्यू' हो गई. रेस्क्यू की कहानी को भी तो रेस्क्यू किए जाने की ज़रूरत पड़ ही जाती है. टीनू सुरेश देसाई के डायरेक्शन में बनी अक्षय कुमार की ये फिल्म सच्ची घटना पर आधारित है. क्योंकि पिछले कई सालों से अक्षय कुमार ने काल्पनिक घटनाओं पर भरोसा करना छोड़ दिया है.
ये सिनेमा में ऐतिहासिक घटनाओं का अक्षय काल है. अक्षय के चाहने वाले अपने उस हीरो को जरूर मिस करते होंगे जो पुलिस इंस्पेक्टर के रोल में फिल्म की नायिका का डर थाने में बैठे-बैठे सूंघ लेता था और उसके घर आधी रात में सूट पहनकर बारिश में डांस कर आता था. बहरहाल, नब्बे के शुरुआती दशक में अक्षय जब हिंदी सिनेमा के 'राज मल्होत्रा' दौर में अपनी फिल्म खिलाड़ी में जुआरी की भूमिका अदा कर रहे थे, तब पश्चिम बंगाल के रानीगंज में 65 कोयला मजदूरों की जान सचमुच ही दांव पर लगी हुई थी. उस समय माइनिंग इंजीनियर जसवंत गिल ने अपनी सूझ-बूझ से उन मजदूरों की जान बचाई थी. 'मिशन रानीगंज' में अक्षय कुमार ने उन्हीं जसवंत गिल का किरदार निभाया है.
कहानी
साल 1989 के नवंबर में पश्चिम बंगाल के रानीगंज की महावीर कोयला खदान में रोज की तरह ढाई सौ मजदूर काम पर जाते हैं. अचानक पता चलता है कि खदान में विस्फोट की वजह से पानी भर गया है और उसमें मजदूर फंस गए हैं. 179 मजदूर तो किसी तरह बाहर निकल आते हैं लेकिन 71 मजदूर नीचे खदान में ही फंस जाते हैं. इन्हें बचाने का कोई रास्ता मैनेजमेंट को सूझ नहीं रहा था. जब नीचे फंसे मजदूरों में से एक-एक करके 6 मजदूर मारे जाते हैं तब एंट्री होती है माइनिंग ऑफिसर जसवंत सिंह गिल की. जब खदान में फंसे मजदूरों को बाहर निकालने का ना रास्ता था और ना मंशा थी, तब भी जसवंत अकेले दम पर डटा रहता है. यही है मिशन रानीगंज.
फ़ॉर्मूला सेट है?
इस तरह की बायोग्राफिकल फ़िल्में करने में अक्षय कुमार ने करते-करते एक किस्म की महारत हासिल कर ली है. 'एयरलिफ्ट' और 'बेबी' में भी कमोबेश इसी हीरोइज्म के साथ अक्षय अचानक आई आपदा टालते हैं. ये असल में एक तरह का फ़ॉर्मूला ही है. जैसे अगर किसी को शतरंज खेलना पसंद है तो उसे क्या चाहिए होगा? ज़ाहिर तौर पर एक अच्छा विपक्षी खिलाड़ी. अब अगर शतरंज खेलने वाले के सामने दो ऑप्शन रखे जाएं, एक कि उसे दूसरी तरफ से चाल बेहतरीन मिले पर उसका विपक्षी किसी और शहर में बैठा हो. और वो अपनी हर चाल डाक से भेजता हो. या दूसरा ऑप्शन कि चाल तो औसत ही हो लेकिन खिलाड़ी सामने बैठा हो. ऐसे में शायद ही कोई डाक से शतरंज खेलने पर राजी होगा. क्यों? चाल चलने की आपकी आतुरता आपको इंतजार नहीं करने देना चाहती. सोचने में आप चाहे जितना समय लें, पर चाल आपके पाले में होनी चाहिए.
इंसानी दिमाग का साधारण पैटर्न यही है. रेस अगेन्स्ट टाइम. 'मिशन रानीगंज' में चाल हर पल नायक के हाथ में होती है. आप समस्या सुलझाने का रस लेते हैं. जब कहीं कोई रास्ता नहीं दिखाई देता तो नायक देसी जुगाड़ लगाकर रास्ता निकालता है. वो जुगाड़ जिसकी हर किसी को हर दम जरुरत रहती है. पर्दे पर इसे पूरा होता देख आप सीटी बजा देते हैं. ताली बजा देते हैं. इस गणित को अक्षय बखूबी समझते हैं. इसलिए वो बरसों से देश को मुश्किल की घड़ी से निकालने का सतत काम करते आ रहे हैं. इसमें नफा बड़ा नहीं होता तो घाटा भी बड़ा होने का डर नहीं रहता. छोटे हाथ मारने का यही सलीका है.
कलाकारी कैसी है?
कोयला खदान में फंसे मजदूरों के लिए पर्दे पर जान की बाजी कौन लगा रहा है? अपने समय में 'कैप्सूल गिल' के नाम से मशहूर जसवंत गिल या पगड़ी दाढ़ी में सुपरस्टार अक्षय कुमार. शुरू की चौथाई फिल्म तक पर्दे पर अक्षय ही दिखाई देते हैं. फर्स्ट हाफ़ के बाद आपको अक्षय कुमार कम जसवंत गिल और उनकी परेशानियां उनका जुनून ज्यादा दिखाई देने लगता है. लेकिन इसके लिए अक्षय कुमार हमेशा की तरह कई बार गैर-जरूरी फुटेज लेते हैं. इतनी ज्यादा कि उनके अपोजिट परिणीति चोपड़ा को शगुन के तौर पर तीन चार फ्रेम गिनती के मिल पाते हैं. कुमुद मिश्रा अपनी जगह काम भर की बना ले जाते हैं ये उनका हुनर ही है. रवि किशन अपनी जरुरत भर लाउड दिखते हैं. जमील खान पाशु के किरदार में असरदार रहे हैं. बल्कि ये कहना ज्यादा नहीं होगा कि अक्षय के फुटेज प्रेम से बचाकर मुट्ठी भर जादू अपने नाम पर जमील ही दर्ज करा पाते हैं.
थोड़ा खर्चा और किया होता
जब इतना खर्चा हो ही रहा था तो थोड़ा वीएफएक्स का बजट भी ढीला छोड़ देते. पानी भरने और बाढ़ वाले सीन कन्विंसिंग नहीं बन पाए हैं. जसवंत गिल के किरदार को उभारने के लिए जो भी कोशिशें हुई हैं वो कमतर रह गई लगती हैं. जैसे फिल्म में जसवंत की एंट्री से पहले खदान और गांव का माहौल बेहद ड्रैमटिक सा हो जाता है. यहां फिल्म की बुनाई में हाथ कमजोर लगता है. हीरो के साथ आप भी पर्दे के सामने बैठे दिमाग दौड़ा कर कोई रास्ता निकालने की कोशिश करते हैं, यही इस फिल्म की कामयाबी है.
कुल मिलाकर
'मिशन रानीगंज' ऐतिहासिक त्रासदी पर बनी एक औसत फिल्म है. सिर्फ इस घटना के बारे में जानने का लक्ष्य आपको थिएटर तक ले जाए तो बेमानी महसूस होता है. क्योंकि ये जानकारी एक क्लिक पर गूगल आपको दे देगा. अक्षय कुमार के मुरीद हैं तो ये रिव्यू वैसे भी आपको रोक या धकेल नहीं सकता. एक बार देखने के लिहाज से थिएटर जा सकते हैं. वैसे ना देख कर भी कोई ऐसा नुक्सान नहीं होगा कि जिसे खाली लेटकर पंखा देखने से भरा ना जा सके.