उस्ताद राशिद खान: जिन्हें पंडित भीमसेन जोशी 'हिंदुस्तानी संगीत का भविष्य' कहते थे
गायक उस्ताद राशिद खान को कुदरत ने गायिकी की सारी नेमतें जल्दी से जल्दी सौंपीं, लेकिन इतनी ही जल्दी उनका जीवन भी ले लिया

- राजेश गनोदवाले
राग-रसोई-पागड़ी, कभू कभू बन जाए. अर्थात गाना, भोजन और पगड़ी हमेशा एक जैसे नहीं हो सकते. सदियों से चली आ रही यह कहावत उस गायक से दूर ही रही जिन्हें 'उस्ताद' का ख़िताब किसी संस्था या अकादमी ने नहीं, बल्कि उनके हुनर ने दिलवाया. कहते हैं गाना उम्र होते हुए पकता चला जाता है. कमाल है! यह कहावत भी जैसे उनके लिए नहीं थीं. अचरज देखिए कि प्रकृति ने इतना सब उन्हें जल्दी दिया और जीवन भी जल्दी ही ले लिया. उस्ताद राशिद खान यानी भारतीय शास्त्रीय संगीत में चार दशकों से अटल रही नायाब आवाज़ 9 जनवरी को थम गई.
आरंभ से ही उस्तादाना फन रखने वाले रामपुर-सहसवान घराने के इस ख़याल गायक ने प्रोस्टेट कैंसर से लड़ते हुए कोलकाता में प्राण त्याग दिए. बदायूं (यूपी) में उनका जन्म हुआ था. घरानेदार होने के कारण पहले नाना उस्ताद निसार हुसैन खान और बाद में चाचा उस्ताद गुलाम मुस्तफा खान से सूक्ष्म तालीम हुई. वैसे उस्ताद अमीर खां और पं. भीमसेन जोशी से भी वे खासे प्रभावित थे. उनका जीवन निखरा संगीत रिसर्च अकादमी कोलकाता से जुड़ने के बाद. यहीं कोलकाता के सबसे मिजाज़गार गवैये पं. जगदीश प्रसाद की आवाज़ का लगाव उनके लिए हैरानी का सबब बन जाता था. जगदीश प्रसाद जिस दर्जे का सुरमंडल छेड़ते थे, वही असर कालांतर में उनमें भी आया था.
कोलकाता की रचनात्मक पहचान के कुछ सिरे जो संगीत से निकलते थे उनमें एक नाम उन्हीं का लिया जाता था. हक़दार होने के बाद भी पद्मभूषण उन्हें देरी से मिला. अकादमी सम्मान वे पा चुके थे. पं. रविशंकर के बाद कोलकाता के किसी कलाकार को स्टार जैसी प्रसिद्धि मिली तो वे बिलाशक राशिद खां ही थे. कम उम्र में उन्होंने दुनिया को दीवाना बना लिया था. पड़ोसी मुल्क का मौसिकी-समाज भी उनसे मोहब्बत करता था. पाकिस्तान के नामवर गवैये उस्ताद शफ़कत अली ने अपने संदेश में कहा कि आवाजाही आसान होती तो वे उनके अंतिम संस्कार में शरीक होना चाहते. उस्ताद शफ़कत की राय में 'वे बेमिसाल थे!'
अपने समकाल के वे उन शास्त्रीय गायकों में थे जिन्होंने सिनेमा में गाना पसंद किया. लेकिन रागदारी का आतंक न फैलाते सिनेमाई ज़रूरत के मुताबिक. 'आओगे जब तुम साजना अंगना फूल खिलेंगे' (फ़िल्म- जब वी मेट) इसका बढ़िया प्रमाण है. वैसे फिल्मों में कम ही गाया. उनकी फेसबुक वॉल पर आप उन्हें किशोरदा के गाने रुचि के साथ गाते देख सकते हैं.
प्रस्तुति को लेकर नज़रिया हमेशा खुला रखा. परंपरा में रहे और नवाचार भी किया. जुगलबंदी गाई, बजाई भी. उस्ताद विलायत खान ने दूरदर्शन के लिए अपनी सांगीतिक कड़ी में उनका भरपूर इस्तेमाल किया था. दुनिया ने पहली दफा इसी माध्यम में उन्हें पं. भीमसेन जोशी के साथ जुगलबंदी में देखा था. पं. जोशी उन्हें "हिंदुस्तानी संगीत का भविष्य" कहते थे.
असल गवैये थे वे. अनावश्यक गलेबाज़ी या मुरकियों से बंदिश का सौंदर्य नहीं बिगाड़ा. 45 मिनट का ख़याल अगर खत्म होने के बाद भी छतनार की तरह छाए रहता था तो गायन शुरू होने से पहले ही सुरमंडल छेड़ते हुए वे महफ़िल को जैसे अपने सम्मोहन में ले आते थे. उपलब्ध रिकॉर्डिंग उनके दर्जा का साक्षात प्रमाण है कि कैसे शुष्क और सीमित विस्तार वाले रागों में भी उनका रियाज़ी-कंठ माधुर्य पैदा करने में सक्षम था.
उधर छोटी उम्र से ही बड़ों को हतप्रभ कर चुके थे. ग्यारह बरस में उन्हें पहली दफा सार्वजनिक तौर पर सुना गया था. विलंबित ख़याल की मोहक बढ़त और उस पर उनकी आवाज़ का भरावदार बाना, अपनी एकल शैली में वे उसी तरह दुर्लभ थे जिस प्रकार 'सुर बहार' लेकिन उनका नाम या अंदाज़ 'घराना' बन गया था. कालांतर में अकादमी खोल सिखाने भी लगे थे. प्रायः मंचों में उनके एक ओर उनका नौजवान पुत्र होता तो दूसरी ओर कोई अन्य छात्र. हारमोनियम और सारंगी की संगत में गाते हुए संगतकारों को 'जगह' देते गुणी शिष्यों को भी अवसर देना उनकी उदारता थी.
लॉकडाउन के दौर में ऑनलाइन कक्षाएं ली तो खूब हंसी-मज़ाक किया. फेसबुक लाइव का हिस्सा बनना भी उन्हें पसंद था. वे प्रयोगधर्मी नहीं थे, लेकिन प्रगतिशीलता से परहेज़ नहीं रखा. ख़ुद पे एकाधिक गवैयों की छटा के बावजूद पेश किया जाता हुआ राग उनका अपना बन जाता था और लगे कि यह तो उस्ताद राशिद खां हैं. अब सब किस्सों में ही मिलेगा गायिकी जगत में जनवरी इस तरह आरंभ होगी किसने सोचा था!