क्या वाकई जेन ज़ी का 'दिल चाहता है' बन गई है 'खो गए हम कहां'?

तीन युवाओं के जीवन को पैन करती हुई 'खो गए हम कहां' कब सोशल मीडिया एडिक्शन, यौन उत्पीड़न, युवाओं की लगातार गिरते मानसिक स्वास्थ्य की कहानी कहने लग जाती है, पता ही नहीं चलता

खो गए हम कहां के प्रमोशन के दौरान सिद्धांत चतुर्वेदी, अनन्या पांडे और आदर्श गौरव
खो गए हम कहां के प्रमोशन के दौरान सिद्धांत चतुर्वेदी, अनन्या पांडे और आदर्श गौरव

खुद को ढूंढ़ना कितना मुश्किल है, मगर मामला और फंस जाता है जब आपको पता ही ना हो कि आप खो गए हैं. एक बार पता लग जाए कि गड़बड़ क्या है फिर उस स्वीकार्यता के साथ खुद को खोजने की ही कहानी है - 'खो गए हम कहां'. नेटफ्लिक्स पर बीते 26 दिसंबर को फिल्म रिलीज़ हुई है और कुछ लोगों ने तो सोशल मीडिया पर इसे जेन ज़ी की 'दिल चाहता है' तक बता दिया है. इसकी जड़ों को समझने के लिए हमें समय में थोड़ा पीछे जाना पड़ेगा. 

साल था 2001 और अगस्त का महीना अभी शुरू ही हुआ था. 10 तारीख को एक अलहदा फिल्म रिलीज़ हुई, नाम था - 'दिल चाहता है'. लोगों को भी उत्सुकता हुई कि भई नए मिलेनियम में नए जवान हुए लोग आखिर सोचते क्या हैं! लोगों ने फिल्म को सिर्फ सराहा ही नहीं बल्कि वह फिल्म एक कल्ट बन गई. भारतीयों की शब्दावली में गोवा ट्रिप इसी फिल्म की देन है. 26 साल के एक नए डायरेक्टर ने यह फिल्म बनाकर साबित कर दिया था कि वह फरहान पहले है और जावेद अख्तर का बेटा बाद में.

कट टू 2023. साल ख़त्म होने वाला है और आखिरी हफ्ते में एक फिल्म ओटीटी पर रिलीज़ होती है 'खो गए हम कहां' और इसकी तुलना 22 साल पहले आए 'दिल चाहता है' से की जाने लगती है. यह फिल्म रीमा कागती और ज़ोया अख्तर ने लिखी है. फिल्म का मिजाज़ वही है मगर कलेवर नया है. तीन युवाओं के जीवन को पैन करती हुई यह फिल्म कब सोशल मीडिया एडिक्शन, यौन उत्पीड़न, युवाओं की लगातार गिरते मानसिक स्वास्थ्य की कहानी कहने लग जाती है, पता ही नहीं चलता. 

फिल्म में सिद्धांत चतुर्वेदी, आदर्श गौरव और अनन्या पांडे मुख्य भूमिका में हैं और उनके संवाद काफी अच्छे लिखे गए हैं. सिद्धांत चतुर्वेदी का कैरेक्टर इमाद एक स्टैंड अप कॉमेडियन है और अपने सेट के दौरान वो इंटिमेसी यानी अंतरंगता पर बात करते हुए कहता है, "इंटिमेसी - इनटू मी, सी!" ये वाक्य इतना महीन और सुलझा हुआ लिखा गया है कि आपको लेखक की गहराई का अंदाजा लग जाता है. फिल्म के डायलॉग्स और स्क्रिप्ट पर ज़ोया अख्तर की छाप अच्छे से नजर आती है. यह एक वाक्य पूरे एक पैराग्राफ के जितना असर छोड़ता है दर्शकों पर. 

'खो गए हम कहां' के तीनों कैरेक्टर्स - इमाद, नील और अहाना - अपर मिडिल क्लास के युवा हैं जिनके जीवन में सोशल मीडिया का बहुत गहरा प्रभाव है, कभी-कभी इतना ज्यादा वो ऐसा कुछ कर बैठते हैं जो वो शायद अन्यथा नहीं करते और उसी 'अन्यथा ' को ढूंढ़ना इस फिल्म का मेन प्लॉट है. सोशल मीडिया कभी-कभी हमसे किस हद तक चीजें करवा सकता है, ये बहुत अच्छे से दिखाया गया है. फिल्म में यौन उत्पीड़न को लेकर भी एक स्ट्रॉन्ग टेक लिया गया है और सोशल मीडिया एब्यूज को लेकर भी. ऐसा लगता है मानो एक पैरेलल कहानी चल रही है, एब्यूज की कि कैसे इंटरनेट से पहले के वक्त में भी एब्यूज और इसके खिलाफ खड़ा होना उतना ही मुश्किल था जितना आज है. 

फिल्म में थेरेपिस्ट के किरदार से एक बहुत अच्छी बात कहलवाई गई कि 'शेम' यानी शर्म उतना ही मजबूत होते जाती है जितना हम उसे छिपाते हैं, और उसके बारे में बात करना उसके खिलाफ पहला कदम होता है. कई मायनों में यह फिल्म इशारा करती है कि समय बदल चुका है. भले ही आज भी समस्याएं कमोबेश वैसी ही हैं मगर अब उसने कपड़े बदल लिए हैं. अब हमारे जीवन में दाखिल होने के लिए वो सीढ़ी का नहीं बल्कि लिफ्ट का इस्तेमाल करता है. कुछ वैसा ही जैसा इस मिलेनियम की शुरुआत में 'दिल चाहता है' ने बताया था. 

'कोई कहे, कहता रहे...' वाला कलेवर आपको 'खो गए हम कहां'  में भी नजर आएगा. फिल्म का शुरुआती मोंटाज देखकर लगता है कि टिमोथी चामलेट की 'कॉल मी बाय योर नेम' शुरू होने वाली है. फिल्मोग्राफी बहुत नई लगती है और फिल्म के कसाव और जरूरी बिखराव में डायरेक्टर अर्जुन वरैन सिंह का मजबूत हाथ नजर आता है. साथ ही 'आर्चीज' जैसी गैर-जरूरी फिल्म बनाने के बाद एक लेखक के तौर पर जोया अख्तर और रीमा कागती का काम बहुत सुकून देता है. 2023 की 'दिल चाहता है' कहने से बेहतर ये होगा कि इसे पहली 'खो गए हम कहां' ही कहा जाए क्योंकि तमाम समानताओं के बावजूद जो चीज दोनों फिल्मों को अलग करती है वो है कहानी कहने का अंदाज. दोनों इतने अलग हैं कि इस चीज में दोनों की तुलना नहीं की जानी चाहिए. बाकी हम भारतीय वैसे भी बेमेल तुलनाएं करने में माहिर हैं सो चलने दिया जाए... 'कोई हर्जा थोड़े ही है!'

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