अमर सिंह चमकीला : इम्तियाज़ का वो रौशन सिनेमा, जहां संगीत ही कहानी है और वही सूत्रधार!
इम्तियाज़ अली का चमकीला एक साथ बेतुका, निर्दोष, विनम्र, डरपोक और दुस्साहसी है, जिसे दिलजीत दोसांझ पूरे लचीलेपन के साथ साधते हैं

- चंद्राली मुखर्जी
आज मन के पांव कहीं टिकने से रहे. कंधे पर बाइस्कोप लादे कोई ख़्वाबतराश आवाज़ दे रहा था. उसकी हथेली पर सवा तीन ग्राम इस्पात रखते ही जिस इंद्रिय को होश की सरहद टापने का मौक़ा मिलता है, वो आंख नहीं, कान हैं. तुंबे का इकतार, ढोलक की थाप और गले के बक्से से उफनी हवा बाइस्कोप के अंधेरे में जब टकराने के लिए पर्दे खोजते हैं, तब कान ही शब्द-रूप-रस-गंध-स्पर्श सब अकेले समेटने लगते हैं. यही तो जादू है. इम्तियाज़ अली की जादूगरी जितनी पुरानी हो रही है, उतनी ही पक्की भी होती जा रही है. दुनिया लाख समझाए कि सब हाथ की सफ़ाई है, लेकिन हर बार हाथ में एक के तीन सिक्के देखने की हैरानी उतनी ही ताज़ा, जितने बनारस के मधुर मिलन स्वीट्स के लवंगलते. मोक्ष.
इम्तियाज़ अली की अमर सिंह चमकीला के गाने कानों में धधक रहे हैं. पहले लगी सिंगल ट्रैक्स की लड़ी और फिर मुकम्मल एल्बम. चौथे ट्रैक तक आते-आते जी करता है कि पंचथन रिकॉर्ड इन (चेन्नई में एआर रहमान का स्टूडियो) की ओर दौड़ जाऊं और रहमान को कसकर ऐसे गले लगा लूं कि उनका हल्के से दम घुटने लगे.
दम हमारा भी तो घुट ही रहा होता है जब हम अपनी पसंदीदा संगीत की ख़ूबसूरती और उससे उपजी भावनाओं को कायदे से बयान नहीं कर पाते. अपने ही शब्दों को काबू ना कर पाने का विश्वासघात. ठीक वैसे ही जैसे कुछ सुंदर पढ़ लिया गया हो और उसके बारे में कोई ऐसे ही सोचे जैसे बड़े दिनों बाद किसी सुबह आपको उगता सूरज दिख जाए.
एक नाज़ुक तरीक़े से ये फिल्म बहुत कुछ, बड़ी आसानी से कह जाती है. फिल्म की परतें सिनेमाई रूप से जितनी सुंदर हैं, उतनी ही वास्तविक रूप से बदसूरत. फिल्मों को ऐसा होना भी चाहिए. कॉलेज के दिनों में इस्तेमाल होने वाले उस डिऑडरंट की तरह जिसे आपने किसी ख़ास मौक़े पर अपने सबसे सुंदर कुर्ते में बड़ी सावधानी से लगाया हो. कुछ देर बाद जब आप ख़ुद को शीशे में निकलते वक़्त निहारें तो आपको दिखे बस एक बेहूदा-सा दाग.
फिल्म में एक जगह अपनी संगीत-संगिनी और पत्नी अमरजोत को एक वसूली के दृश्य के बाद समझाते हुए चमकीला कहते हैं, “वाह, क्या दुनिया है! एकदम टॉप क्लास!” उस वक़्त उनके आसपास मंडराती हैं कुछ मक्खियां, शायद किसी सामाजिक क्षय का प्रतीक बनकर. अंत की ओर एक सीन में दिलजीत दोसांझ सफ़ेद कुर्ते में किसी खेत के किनारे बैठकर आपको ऐसे देखते हैं जैसे उनकी नज़र आपकी आत्मा तक को पढ़ जाएगी. ठीक वहां भी मक्खियों का नृत्य दिखता है. पूरी फ़िल्म में एडल्ट चमकीला के साथ ऐसा सिर्फ़ दो बार होता है. यह संयोग तो नहीं हो सकता. और पीछे आवाज़ है अरिजीत सिंह की. शायद मन चीरने के लिए ही "विदा करो" जैसे गीत को बनाया गया है. यह और कुछ नहीं पर रहमान की “लुका छुपी” (रंग दे बसंती, 2005) की स्वाभाविक प्रगति है.
“भूखा नहीं मरूंगा. चमार हूं. पर भूखा नहीं मरूंगा.” शायद ही मेनस्ट्रीम भारतीय सिनेमा में किसी नायक के मुंह से यह सुनने को मिला हो. उस भावना को कैसे समझाया जाए जब अपने ही घर का कोई बुजुर्ग किसी अधीनस्थ से अपमानजनक रूप से बात करे और आपके मुंह में एक खट्टा-सा स्वाद आ जाए. आप अपनी सेकंड-हैंड असहजता में कुछ बोल भी ना पाएं और आपको बुरा भी लग जाए.
चमकीला का अपनी जाति को स्वीकारते हुए अपनी प्रतिभा पर आत्मविश्वास दिखाना वही जवाब है. यह उन सभी लोगों का जवाब है जिन्हें जातिगत टिप्पणियों से चुप कराता आया जा रहा है. यह उन सभी तथाकथित बुजुर्गों को जवाब है जिनकी बातें आपके सिस्टम में पित्त की तरह उभरती हैं. इस बायोपिक में आप चमकीला के लिए चियर नहीं करते. एक उजाड़ कुएं से अपनी गीतों की गूंज की प्रतीक्षा में आप ख़ुद चमकीला बन जाते हैं.
यह कहना कि इम्तियाज़ ने सिर्फ़ एक बायोपिक तैयार की है ज़रा अति-सरलीकरण होगा. एक उथल-पुथल भरे दशक में, अपने असली सार की खोज करने वाले एक कलाकार के उत्साह के बीच, इम्तियाज़ की फिल्म धनी राम (चमकीला) के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालती है. ऐसा करते हुए, फिल्म कुछ मायनों में देश के सिनेमाई परिदृश्य में ऐसी बोल्ड बायोपिक के रूप में उभरती है. इस सिनेमाई यात्रा में दर्शक न केवल उस नायक, बल्कि मिथक और चमकीला की किंवदंती का भी सामना करते हैं.
पंजाब की जीवंत धुनों, एक लोक किंवदंती की विरासत और अस्सी के दशक के अशांत सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य के साथ, इम्तियाज़ की फिल्म इस गायक के जीवन और पहेली में तल्लीन हैं. शुरू से ही फिल्म आपको चौंकाते हुए चमकीला की हत्या के अपने साहसिक चित्रण के साथ जकड़ लेती है. आप जान जाते हैं कि यह एक युवा जोड़े के बारे में है जो अपनी शोहरत के कारण ही बर्बाद हुआ है. दर्शकों को एक ऐसी कहानी में डुबोया जाता है जो अतीत और वर्तमान के बीच मूल रूप से खेलती रहती है. कोई बेतुका तामझाम नहीं है. इम्तियाज़ का निर्देशन कई तरह की आवाज़ों का एक मोज़ेक तैयार करता है. पूरी फिल्म के दौरान, विभिन्न पात्र चमकीला की विरासत को आकार देने का दावा करते हैं. फिर भी, चमकीला की विरासत मायावी बनी रहती है, जो इसे परिभाषित करने का प्रयास करने वालों से हमेशा आगे निकल जाती है. फिल्म की ताकत चमकीला की पहचान की जटिलताओं को अपनाना है.
चमकीला एक साथ बेतुका, निर्दोष, विनम्र, डरपोक और दुस्साहसी है. दिलजीत दोसांझ उल्लेखनीय कौशल के साथ चमकीला के लचीलेपन को दर्शाते हैं. चमकीला के चरित्र के आसपास के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संदर्भों की गहन समझ का वे प्रतीक बन जाते हैं. परिणीति चोपड़ा, अमरजोत कौर के रूप में, शांत दृढ़ संकल्प के चित्रण के साथ दोसांझ के चित्रण को पूरा करती हैं. हालांकि अमरजोत कौर के गायन के सार को पकड़ने में वे बार-बार लड़खड़ाती हैं. फिर भी, उनकी उपस्थिति कथा में गहराई जोड़ती है, एक संगीत प्रतिभा के बगल में खड़ी एक महिला के अटूट समर्थन को चित्रित करती है.
फिल्म में दिलजीत हैं ही नहीं. सिर्फ़ चमकीला हैं. उनका लाइव परफॉरमेंस पंजाब की संगीत विरासत की आत्मा और उत्सव की भावना को चाबुक की तरह पकड़ता है. फिल्म में सिंक साउंड का उपयोग दुर्लभ है, क्योंकि वह चमकीला की ओरिजनल धुनों में जान फूंक देता है. पंजाबी गीतों पर ट्रांसलेटरी सुपर्स और एनीमेशन का मिश्रण आपको फिल्म से जोड़े रखता है. दिलचस्प यह है कि फिल्म का संगीत ही उसका सूत्रधार है. दिलजीत चमकीला को दर्शाते हुए उनके गीत गाते हैं और फिल्म के बाक़ी छह गीत आपको चमकीला की कहानी बताते हैं. शायद ऐसा भारतीय सिनेमा में पहली दफ़ा हुआ है. बायोपिक को गीतों में कह देने का शिल्प नया है, ठीक फिल्म की एडिटिंग की तरह.
एक मार्मिक क्षण में, इम्तियाज़ चमकीला की प्रसिद्धि के विरोधाभास को जाहिर करते हैं. चमकीला की आंखों में अस्तित्ववाद आपको गुरु दत्त की झलक दिखाता है. चरम ख़ुशी में विरक्ति. “ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है?” एक सफल विदेशी यात्रा के बाद जब चमकीला भय और दबाव के पटल को पार कर जाता है तो उसकी आंखों में आप निडरता का चरम देखते हैं. किसी को इतना डरा दिया गया हो कि उसका डर ही ख़त्म हो जाए. जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, चमकीला के असामयिक निधन की दुखद वास्तविकता को समझते हुए आपको याद आता है कि कितनी नाजुक और ज़रूरी है कलात्मक स्वतंत्रता. मृत्यु में भी, चमकीला की विरासत बनी रहती है.
अमर सिंह चमकीला सिर्फ एक बायोपिक नहीं है. यह अशांत समय में संगीत की शक्ति का एक वसीयतनामा है. यह एक कलाकार को श्रद्धांजलि है जिसने सामाजिक मानदंडों को धता बताने की हिम्मत की. और अपने शीर्ष पर अपनी कला की कीमत जान से चुकाई. इस फिल्म में हुआ सबसे बड़ा अन्याय इसकी सिनेमा स्क्रीन से अनुपस्थिति में निहित है. कुछ-कुछ चमकीला के अपने जीवन के प्रतिबिम्बों की तरह. किसी दुर्घटना की तरह मिली शोहरत, जिसे समय से पहले कुचल दिया गया हो.
आप इन शब्दों को भूल नहीं पाते- “परेशान होना है कि गाना बनाना है?” और आपके मन में यह स्पष्ट हो जाता है कि इम्तियाज़ के काम से लोग इतना क्यों प्रेम करते है.
- (चंद्राली ओएनजीसी में जनसंपर्क अधिकारी हैं)