दक्षिण अफ्रीका के सामने टीम इंडिया का आभामंडल कैसे हुआ ध्वस्त! अब आगे क्या हैं सबक?
दक्षिण अफ्रीका ने गुवाहाटी में भारत को महज हराया ही नहीं, उसने दिखा दिया एक अनुशासित दस्ते के आगे भारत जैसी 'प्रतिष्ठित' टीम कितनी बेबस हो सकती है

क्रिकेट में कुछ हार ऐसी होती हैं जो चुभती हैं, तो कुछ हार ऐसी भी होती हैं जो देश को अपने भीतर झांकने के लिए मजबूर कर देती हैं. गुवाहाटी में दक्षिण अफ्रीका के हाथों 408 रनों से भारत की हार पूरी तरह दूसरी श्रेणी में आती हैं. आखिर यह टेस्ट क्रिकेट के 93 सालों में सबसे ज्यादा रनों के अंतर से हुई हार जो है.
यह उस तरह की शिकस्त नहीं है जिस पर टीवी पैनलों में आग उगली जाती है या शायराना मातम मनाए जाते हैं. यह ज्यादा शांत, ज्यादा भावशून्य, और इसलिए ज्यादा बेचैन करने वाली है. उम्मीदों के बोझ से मुक्त और घर में भारत के अपराजेय होने के मिथ से बेपरवाह एक मेहमान टीम आई, हालात को देखा-परखा, और तकरीबन हर सत्र में मेजबानों से बेहतर खेलने के लिए मैदान में उतर पड़ी.
दो टेस्ट की इस सीरीज की सबसे चौंकाने वाली खासियत शायद यह थी कि इसमें मेलोड्रामा या उत्तेजना से भरपूर तमाशा नहीं था. दक्षिण अफ्रीका के क्रिकेट में सुचारू प्रयोगशाला की शांत और निश्चल दक्षता थी. भारत के क्रिकेट में ऐसी टीम की बेचैन ऊर्जा थी जो खुद को याद दिलाने की कोशिश कर रही थी कि बेहतरीन होना कैसा दिखता और लगता है. नतीजा महज हार भर नहीं था, यह दो बिल्कुल विपरीत टीमों के बीच ध्रुवीय फर्क का अध्ययन था. और जैसा कि ऐसे तमाम अध्ययन मांग करते हैं, इसमें सबक हैं- असहज, अपरिहार्य और लंबे वक्त से टलते आ रहे सबक.
भारत 2013 और 2024 के बीच घर में सिर्फ चार टेस्ट हारा. बीते 13 महीनों में वे पांच टेस्ट हार गए. बुनियादी तौर पर कुछ बदल गया. गुवाहाटी टेस्ट ने महज एक रिकॉर्ड नहीं तोड़ा, इसने अपनी ही बनाई छवि को तोड़ दिया. घरेलू सीरीज के चलते भारत एक तरह की बढ़त के साथ था- स्पिन के अनुकूल स्थितियां, भीड़ का दबाव और प्रतिष्ठा, जो एक भी गेंद फेंके जाने से पहले ही मेहमान टीम की बल्लेबाजी की कतार को परेशान कर देती थी. दक्षिण अफ्रीका ने हैरतअंगेज बेरुखी के साथ उस आभामंडल को चकनाचूर कर दिया.
गुवाहाटी की पिच पांचवें दिन टर्न हुई, बाउंस हुई और फुफकारने लगी, लेकिन इन स्थितियों का वास्ता भारत से नहीं था. साइमन हार्मर से था. भारत को लंबे समय से घरेलू मैदान में स्पिन पर अपनी महारत पर गर्व रहा है. अब उन्हें याद दिलाया गया कि दबदबा विरासत में नहीं मिलता बल्कि उसे नए सिरे से चमकाना होता है.
स्पिन को आधुनिक दस्तकारी होना ही चाहिए
अगर भारत की हार का कोई चेहरा था, तो वह हार्मर का चेहरा था- छरहरा, गहन और भावहीन. उन्होंने 8.94 के औसत से 17 विकेट लिए, जो भारत में किसी भी सीरीज में किसी भी मेहमान गेंदबाज का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन है. उनका नियंत्रण तपस्वी की तरह था. उन्होंने लंबे-लंबे समय तक एकसार गेंदें फेंकी, सीम की स्थितियों को हल्के-से बदला, ड्रिफ्ट या झुकाव में बेहद निपुणता से हेरफेर किया, और ऐसा बाउंस पैदा किया जो ज्यामिति को ताक पर रख देता था. इसके उलट भारत के स्पिनर गलत दिन गेंदबाजी कर रहे कारीगरों की तरह दिखते थे, जिनके पास न लय थी, न बाइट या डंक था, और कई बार तो सूझ तक नहीं थी. मेजबान पिच के कारगर होने का इंतजार करते रहे, हार्मर ने उसे अपनी उंगलियों पर नचाया.
लंबे वक्त से स्पिन खेलने की लोककथाओं से सीख-पढ़कर निकले भारतीय बल्लेबाजों को अनिश्चित गेंदों पर बल्ला घुमाते और उन्हें समझने में गलती करके विकेट गंवाते देखना थोड़ा प्रतीकात्मक-सा था. कभी अपनी स्पिन के सिद्धांतों का निर्यात करने वाली क्रिकेट सभ्यता से अब उन्हीं सिद्धांतों को नए सिरे से सीखने के लिए कहा जा रहा है.
तेज गेंदबाजी की गहराई पर अभी काम चालू
मार्को जेनसन का प्रदर्शन नामुमकिन और लाजिमी के बीच कहीं था. उन्होंने 93 रन बनाए, 48 रन देकर छह विकेट लिए, और कंधे के ऊपर एक-हाथ से ऐसा कैच लिया जिसने मैच का पटाक्षेप कर दिया. अपने लंबे हाथ-पैरों की बदौलत वे ऐसे कोणों से खेलते दिखाई दिए जिनकी भौतिकशास्त्र विरले ही इजाजत देता है. उन्होंने ऐसी पिच पर बाउंस निकाला जिसे सपाट माना जाता था, ऐसी गेंद में उछाल पैदा की जिसे बैठ जाना चाहिए था, और उस किस्म के बाउंसर फेंके जिनसे भारत का मध्य क्रम लड़खड़ाकर रह गया.
उधर भारत की तेज गेंदबाजी पस्त दिखाई देती थी. यह जोशीली तो थी लेकिन धारदार नहीं, मौजूद तो थी लेकिन असरदार नहीं. आक्रमण में ऐसा एक भी दौर नहीं था जो मैच का मिजाज बदल दे, वह तड़क नहीं थी जो दक्षिण अफ्रीका को बैक फूट पर ला दे. कभी यह भारत की पहचान हुआ करता था, खासकर 2018 के बाद के सालों में- विराम चिह्नों की तरह पेस या रफ्तार, उथलपुथल मचा देने वाली रफ्तार. गुवाहाटी में यही विराम चिह्न नदारद थे.
फील्डिंग अब कुछ जोड़ती नहीं
एडेन मार्करम ने ऐसे कैच लिए जो औचक और रहस्यमयी मालूम देते थे- पहली पारी में पांच, दूसरी में चार, हरेक कैच मटर छीलते आदमी के धैर्यवान संकल्प से लिया गया. इसके उलट भारत ने मौके गंवाए, रनआउट चूके, और छोटे-छोटे लेकिन मिलकर बड़े हो गए रिसावों के जरिए दबाव को अपने ऊपर तारी होने दिया.
आधुनिक टेस्ट क्रिकेट ज्यादा से ज्यादा अब सीमांतों या किनारों पर तय हो रहा है. भारत के किनारे उधड़ गए. फील्डिंग की चूकों ने मैच का फैसला नहीं किया, लेकिन उन्होंने धार में आए निश्चित भौंथरेपन को उघाड़कर रख दिया. वह टीम जो कभी तीव्रता और गहनता के मामले में अपने पर गर्व करती थी, अचानक अपनी ही प्रतिष्ठा को कायम रखने के लिए हाथ-पैर मारती टीम की तरह दिखाई दी.
स्थितियों से ज्यादा मायने रखती है मनोदशा
टेंबा बावुमा 12 मैच के बाद अविजित टेस्ट कप्तान बने हुए हैं. उनकी टीम उस किस्म की भावनात्मक स्पष्टता के साथ खेलती है जो तपस्या के करीब ठहरता है. वे नैरेटिव के पीछे नहीं भागते, माहौल के उतार-चढ़ावों में उनकी दिलचस्पी दिखाई नहीं देती. उनका क्रिकेट न तो भड़कीला है और न ही रूखा. यह साफ-सुथरा, बिरले ही सजा-धजा, और निर्ममता से जमीन पर उतारा गया होता है.
उधर भारत बची-खुची उम्मीदों का भार उठाए था. वापसी की पटकथा लिखने, अपना आभामंडल वापस पाने, और रिकॉर्ड सुधारने का दबाव उनके कंधों पर सवार था. इस हार ने भारत की टेस्ट विश्व कप की महत्वाकांक्षा को खतरे में डाल दिया है. उनके अंक प्रतिशत अब 48.15 पर हैं, जो फाइनल में पहुंचने के लिए जरूरी 60 फीसद से कम हैं.
बड़ी कहानी
यह हार साम्राज्य का ध्वस्त होना नहीं है- कम से कम अभी तो नहीं. मगर यह याद दिलाती है कि साम्राज्यों में ही अपने पतन के बीज छिपे होते हैं, फिर चाहे वे क्रिकेट के साम्राज्य हों या दूसरे. दबदबा आत्मसंतोष को न्यौता देता है, आत्मसंतोष चुनौती देने वालों को न्यौता देता है. दक्षिण अफ्रीका इस न्यौते को झपटने के लिए बस बेहतर तैयार था. भारत के लिए सबक न तो अमूर्त हैं और न ही दार्शनिक. वे तकलीफदेह ढंग से ठोस हैं : स्पिन की रणनीति पर नए सिरे से विचार कीजिए, तेज गेंदबाजों के जखीरे को मजबूत कीजिए, कैच पकड़ने की क्षमता को चुस्त-दुरुस्त कीजिए, मध्य क्रम के लचीलेपन को फिर से बनाइए, और सबसे ज्यादा, उस मनोदशा का पुनराविष्कार कीजिए जो घरेलू टेस्ट मैचों को कभी मुकाबले के बजाय रस्म में बदल देती थी.
गुवाहाटी में दक्षिण अफ्रीका ने भारत को महज हराया ही नहीं. उन्होंने दिखा दिया और खासी सटीकता से दिखा दिया कि श्रद्धा और डर से उपजे विस्मय के बजाय अनुशासन से लकदक होकर आने वाली टीमों के आगे भारत कितना बेबस और लाचार हो गया है. अगर भारत सुनना चाहे तो यह हार अभी-भी निर्णायक मोड़ बन सकती है. अगर नहीं, तो इतिहास उन सबकों को अपने ढंग से दोहराता है जिन्हें हम सीखने से इनकार करते हैं.