कैसे पृथ्वी के 'मेटाबॉलिक' सिस्टम में आई गड़बड़ियां कर रहीं इंसानों को बीमार?

प्रसिद्ध पर्यावरणविद वंदना शिवा का मानना है कि हमारी पृथ्वी का मेटाबॉलिक डिसऑर्डर मनुष्यों में गंभीर और असाध्य बीमारियां बढ़ने से सीधे तौर पर जुड़ा है

सांकेतिक तस्वीर

जानी-मानी पर्यावरण कार्यकर्ता, food sovereignty (खाद्य संप्रुभता) समर्थक और जैव विविधता एवं सतत कृषि पर काम करने वाली गैरलाभकारी संस्था ‘नवदान्या’ की संस्थापक वंदना शिवा का कहना है, “जलवायु परिवर्तन पृथ्वी के मेटाबॉलिक डिसऑर्डर का परिणाम है.” शिवा पृथ्वी को एक जीवित प्राणी (superorganism) के तौर पर वर्णित करती हैं. उनके मुताबिक, “बाहरी गतिविधियों की परवाह किए बिना वह अपना तापमान बनाए रखती है.”

वंदना शिवा कहती हैं कि भीषण गर्मी, बाढ़, सूखे जैसी जिन घटनाओं को हम अब जलवायु परिवर्तन से जोड़कर देखते हैं, दरअसल वे पृथ्वी के मेटाबॉलिक असंतुलन की संकेत हैं, "पृथ्वी और मनुष्य एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हैं. इस सारी गड़बड़ी की जड़ें पश्चिमी सभ्यता के निष्कर्षणवाद (extractivism) में निहित हैं जिसे अब पूरी दुनिया अपना चुकी है.”

शिवा हिमालय इस संदर्भ में उत्तराखंड के हर्षिल गांव का उदाहरण देती हैं, जहां पहले कभी भूस्खलन नहीं हुआ था. लेकिन हाल में यह भी भूस्खलन प्रभावित हुआ. वे इसके कारणों के बारे में समझाती हैं, “ये सारी आपदाएं हिमालय में सुरंग बनाने और अन्य विकास कार्यों का नतीजा हैं, जहां अपेक्षाकृत युवा पहाड़ हैं और अभी बढ़ भी रहे हैं.” शिवा के मुताबिक, “प्रकृति का स्वभाव” वैसा नहीं है जैसा हमें औपनिवेशिक विज्ञान ने सिखाया है. ये एक जीवंत प्रणाली है जो गतिशील और स्व-व्यवस्थित भी है और जहां सब कुछ एक-दूसरे को प्रभावित करता है. कुछ भी बहुत जुदा नहीं होता.”

शिवा का कहना है कि क्वांटम फिजिक्स का ‘दूरवर्ती क्रिया’ का सिद्धांत जीवित प्रणालियों पर बहुत गहराई से लागू होता है, क्योंकि ये जीवित प्रणालियां आपस में जुड़ी हैं और संगठित हैं. ये विचार आधुनिक विज्ञान और कृषि के यांत्रिक और कॉर्पोरेट-संचालित मॉडल द्वारा अपनाए गए वैश्विक दृष्टिकोण से बिल्कुल अलग है. शिवा आगे कहती हैं, “सभी समस्याएं इसलिए पैदा हुईं क्योंकि हम जीवित प्रणालियों को अलग-थलग समझते हैं, जैसा औपनिवेशिक विज्ञान ने हमें सिखाया है. लेकिन जीवित प्रणालियां रिश्तों का विज्ञान हैं.” व्यापार और विकास में नैतिक टैरिफ लगाने का आह्वान करते हुए उन्होंने कहा, “हम ऐसे युग में जी रहे हैं जिसके बिना भी हम जी सकते हैं.”

शिवा पृथ्वी के मेटाबॉलिक डिसऑर्डर और मनुष्यों में बढ़ती पुरानी बीमारियों के बीच एक समानता दर्शाती हैं; उनके अनुसार, दोनों ही असंतुलन के लक्षण हैं. पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया के मानद प्रतिष्ठित प्रोफेसर डॉ. के. श्रीनाथ रेड्डी भी इससे सहमत हैं. वे कहते हैं, “धरती अपने आप को संतुलित करने की अद्भुत क्षमता रखती है. सदियों से यह एक सूक्ष्म और सजीव पारिस्थितिक तंत्र रहा है, जो अनगिनत जीवन रूपों को पोषण देता रहा है.” लेकिन आज, इस पर बार-बार हमला किया जा रहा है.

रेड्डी कहते हैं, “यह मेटाबॉलिक गड़बड़ी पर्यावरण में हो रही है, जिस कारण इंसानों में भी मेटाबॉलिक बीमारियां हो रही हैं. इसी का नतीजा है कि इंसानों में आंत संबंधी बीमारियां, मधुमेह और कैंसर जैसी असाध्य बीमारियां, और नई-नई जूनोटिक बीमारियां बढ़ रही हैं.” उनके मुताबिक, “ये सारी बीमारियां प्रकृति की कमजोरी के कारण नहीं हैं बल्कि हमारे उसके बीच संतुलन बिगड़ने के कारण हुई हैं. ये बीमारियां कॉर्पोरेट लालच से प्रेरित गलत समाधानों का परिणाम हैं. इसका समाधान और अधिक तकनीक में नहीं, बल्कि प्रकृति के साथ संतुलन बहाल करने में है.” इन सभी वक्ताओं ने ये राय हाल ही में नई दिल्ली में नवदान्या की तरफ से आयोजित कार्यक्रम, “भूमि: द नेचर ऑफ नेचर- अर्थ्स मेटाबॉलिक डिसऑर्डर’ के दौरान व्यक्त की.

वहीं, रीजनरेशन कनाडा के उपाध्यक्ष डॉ. एवी सिंह खुद को देखने के तरीके में बदलाव लाने की जरूरत पर जोर देते हुए कहते हैं, "एक बुनियादी बदलाव ये समझना है कि हम प्रकृति हैं. यह धारणा कि मनुष्य प्रकृति से अलग हैं, झूठी है. जब हमारी भाषा हमें प्रकृति से अलग करती है, तो हम शोषणकारी खेती करने लगते हैं, फसल और और एकल फसल पर ध्यान केंद्रित करते हैं. लेकिन (regenerative) पुनर्योजी खेती के माध्यम से हम न केवल प्रकृति को ठीक करते हैं, बल्कि खुद का कल्याण भी करते हैं.”

रीजनरेशन इंटरनेशनल के अंतरराष्ट्रीय निदेशक एंड्री ल्यू उनकी बातों को ही और आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, “आज हमारी कृषि प्रणालियां प्रकृति के खिलाफ युद्ध की जैसी हैं. हम एक ऐसा समाज हैं जो अपने ही भोजन को विषैला कर रहा है.” उनके मुताबिक, “ये हिंसक प्रणाली है, जो हत्याएं करने पर आधारित है.”

ल्यू बताते हैं कि कीटनाशकों के दीर्घकालिक प्रभावों, खासकर जन्म दोषों और विकास संबंधी समस्याओं पर, का कोई व्यापक परीक्षण नहीं हुआ है. वे अमेरिकी राष्ट्रपति के कैंसर पैनल के शोध का हवाला देते हैं, जिसमें पाया गया कि 80 फीसद कैंसर पर्यावरणीय विषाक्त पदार्थों, खासकर रसायनों और कीटनाशकों के इस्तेमाल का नतीजा है.

एक अन्य अध्ययन बताता है कि 1990 के दशक में अमेरिका में जीई (जेनिटिकली मोटिफाइड) सोया और मक्का की फसलों में वृद्धि के साथ थायराइड कैंसर के मामलों में तेजी देखी गई. ल्यू कहते हैं, “हमें स्वास्थ्य पर ध्यान देना होगा और पुनर्योजी, जैविक और कृषि-पारिस्थितिक भोजन और खेती के लिए एक आंदोलन खड़ा करना होगा.”
 

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