जब पंचम दा ने पूछा, 'गुल्लू, ये नशेमन कहां है?' जानें गुलजार से जुड़े ऐसे ही सात दिलचस्प किस्से
आज गुलजार का 90वां जन्मदिन है. इस मौके पर पढ़िए यतींद्र मिश्र की किताब 'गुलजार सा'ब : हजार राहें मुड़ के देखीं...' से सात दिलचस्प किस्से

'शेखर एक जीवनी' में अज्ञेय ने लिखा था, "वेदना में एक शक्ति है, जो दृष्टि देती है. जो यातना में है, वह द्रष्टा हो सकता है." गुलजार के जीवन को देखें तो शुरुआत में उन्हें ऐसे कटु अनुभव हासिल हुए, जिनकी निशानदेही वे अपनी नज्मों, गीतों में करते हैं, लेकिन असल जिंदगी में कभी शिकायत नहीं करते. बचपन में मां को खोने से लेकर, अपनी पैदाइश के शहर दीना छूटने के साथ किशोरावस्था में दिल्ली के रोशनआरा बाग के संस्मरण और वाकये उनके हमसाया रहे हैं. लेकिन इन सब के बीच उनकी कैफियत अपने नाम के मुताबिक रही है.
पिछले साल दिसंबर में गुलजार के जीवन, लेखन और सिनेमा पर एक किताब आई - गुलजार सा'ब : हजार राहें मुड़ के देखीं... इसे लिखा है यतीन्द्र मिश्र ने. लेखक के मुताबिक, इस किताब को बरतने में 20 सालों का एक लंबा सफर समाया है. इस किताब में कई ऐसे किस्से-कहानियां दर्ज हैं, जो किसी फिल्म प्रशंसक को रूहानी सुकून देते हैं. साथ ही, इसमें गुलजार के बहाने हमें भारतीय सिनेमा की कुछ महान हस्तियों से भी रूबरू होने का मौका मिलता है. आइए इस किताब के सफहों से सात हसीन किस्सों को आपस में उत्सव की तरह बांटते हैं.
किस्सा नं. 1- 'द गार्डनर' ने बदल दी जिंदगी
यह तब की बात है, जब सम्पूरन सिंह उर्फ पुन्नी (गुलजार का असली नाम) 10-12 साल के थे. उनके स्कूल जाने की उम्र में घर की व्यवस्था ऐसी थी कि उन्हें घर से अलग दुकान के स्टोर रूम में जाकर सोना होता था. वहां बिजली नहीं थी. ऊपर से गर्मी, अंधेरे और उमस के कारण नींद देर से आती थी. किशोर गुलजार को रात काटने के लिए कोई ऐसी तिकड़म चाहिए थी, जो उन्हें राहत दे पाए. उन्हें पढ़ने का चाव था और पड़ोस में एक लाइब्रेरी थी. पाकिस्तान से आया हुआ रिफ्यूजी उसे चलाता था.
गुलजार उससे कुछ किताबें ले आते थे, जिनमें अधिकतर सस्ते मनोरंजक क्राइम थ्रिलर और जासूसी उपन्यास होते थे. रिफ्यूजी चार आने पैसे पर हफ्ते भर के लिए किताबें किराये पर देता था. इन किताबों की संख्या कुछ भी हो सकती थी. ...अब गुलजार का पढ़ने का चस्का ऐसा कि हर रात एक किताब खत्म. दूसरे ही दिन वे पहुंच जाते बदल कर नई किताब लेने के लिए. ऐसे ही चलता रहा कि एक दिन लाइब्रेरी चलाने वाला उनपर बुरी तरह झल्ला गया- 'चार आने में तुम्हें मैं एक हफ्ते में आखिर कितनी किताबें दूं?'...फिर कुछ सोचकर उसने दूसरी आलमारी से निकालकर एक भारी-भरकम किताब दे दी.
बेमन से मिली यह किताब गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की कविता संग्रह 'द गार्डनर' का उर्दू तर्जुमा थी. इस किताब ने हमेशा के लिए गुलजार के पाठक मन का जायका बदल दिया. बकौल गुलजार, "मैं इसके प्रेम में पड़ गया. मेरा किताबों को पढ़ने का ढंग बदल गया और मैं अब किताबों के चयन में भी बदलाव महसूस करने लगा था."
किस्सा नं. 2- 'राखी से सीखिए कहानी कैसे सुनाई जाती है'
यह मजेदार वाकया फिल्म 'परिचय' (1972) से जुड़ा हुआ है. हुआ यूं कि इस कहानी को राखी ने एक बांग्ला पत्रिका 'उल्टो-रथ' में पढ़ा, और गुलजार को सुनाया कि इस पर बेहतर फिल्म बन सकती है. उन दिनों अभिनेता जितेंद्र, गुलजार के निर्देशन में एक फिल्म करने के इच्छुक थे. गुलजार ने उन्हें कई कहानियां सुनाईं, जिनमें राखी द्वारा सुझाई गई राजकुमार मैत्री की कहानी भी शामिल थी. जितेंद्र को इनमें कोई कहानी पसंद नहीं आई, और उन्होंने और कहानियां सुनने की ख्वाहिश जताई.
कुछ दिनों बाद जितेंद्र उत्साह से गुलजार से मिले, और उन्हें वही कहानी सुनाई, जो राखी की सलाह पर गुलजार उन्हें पहले ही सुना चुके थे. जितेंद्र ने कहा, "मुझे यह कहानी अच्छी लग रही है, मुझे राखी ने सुनाई है." गुलजार ने जितेंद्र को जवाब दिया कि मैं तो इस कहानी को आपको पहले ही सुना चुका हूं और आप इसे खारिज कर चुके हैं. इस पर मजाक करते हुए जितेंद्र ने कहा- 'फिर आपको राखी से सीखना चाहिए कि कहानी कैसे सुनाई जाती है.' इस तरह 'परिचय' के लिए कहानी का चुनाव हुआ.
किस्सा नं. 3- जब पंचम दा ने पूछा- 'गुल्लू, ये नशेमन कहां है?'
आर.डी. बर्मन और गुलजार की कैमेस्ट्री से तो फिल्म जगत् वाकिफ ही है. पंचम दा सोते-जागते हमेशा संगीत की दुनिया में डूबे रहते थे. 'मुसाफिर हूं यारों' गाने की कहानी तो सबको पता ही है कि कैसे बंबई (मुंबई) की सड़कों का चक्कर लगाते और कार की डैशबोर्ड पर लय देते हुए पूरी धुन बनाई गई. लेकिन 'आंधी' फिल्म का गाना 'इस मोड़ से जाते हैं' की रिकॉर्डिंग का एक चर्चित किस्सा है. हुआ यूं कि रिकॉर्डिंग के वक्त पंचम दा ने गुलजार से पूछ लिया- 'गुल्लू, ये नशेमन कहां है?' उन्हें लगा कि 'नशेमन' किसी जगह का नाम है. पंचम दा गुलजार को प्यार से गुल्लू कहकर संबोधित करते थे.
बाद में गीतकार गुलजार ने उन्हें हंसते हुए बताया- 'नशेमन मतलब घोंसला'. इसी तरह फिल्म 'घर' के एक गीत 'आपकी आंखों में कुछ महके हुए से राज हैं' का एक मजेदार किस्सा है. इसके अंतरे में एक पंक्ति है 'आपकी बदमाशियों के ये नए अंदाज हैं'. ये गाना लता मंगेशकर गाने वाली थीं. पंचम दा को लग रहा था कि 'बदमाशियों' को हल्का शब्द समझकर लता दी कहीं इसे गाने से इनकार न कर दें. उन्होंने गुलजार से इसरार किया कि इसे बदल दें. लेकिन लता जी ने वो डुएट गाया और इन दोनों से कहा, "वही लाइन तो गीत को कुछ अलग-सा बनाती है."
किस्सा नं. 4- जब दोस्ती की खातिर गुलजार ने हमेशा के लिए पान खाना छोड़ा
हरी भाई जरीवाला, जिन्हें दुनिया संजीव कुमार के नाम से जानती है. गुलजार के अजीज मित्र, और उनके सबसे प्रिय अभिनेताओं में से एक. गुलजार की छह फिल्मों में मौजूद. एक दौर में बहुत अधिक पान खाने वाले गुलजार ने इन्हीं संजीव कुमार के कहने पर एकबारगी जीवनभर के लिए पान खाना छोड़ दिया था. हुआ यूं कि 'परिचय' फिल्म के एक गीत 'बीती न बीताई रैना, बिरहा की जाई रैना' की शूटिंग चल रही थी. फिल्मांकन के दौरान गुलजार, संजीव कुमार के पूरे गाने में उनके सहज एक्सप्रेशन से खुशी से भर उठे.
गुलजार के मुताबिक, संजीव कुमार ने इस गीत में उम्दा परफॉर्मेंस दिया था. इस बात से खुश होकर गुलजार ने उन्हें बड़े प्यार से कहा- 'हरी भाई, आज आपने क्या कमाल शॉट दिया है, बताइए इसके बदले मैं आपके क्या लिए क्या कर सकता हूं?' हमेशा की तरह संजीदा रहने वाले संजीव कुमार ने कहा- 'यार, पान खाना छोड़ दे.' और उसी पल से गुलजार से पान हमेशा के लिए बाहर चला गया. एक अदीब, गीतकार, शायर के अलावा गुलजार का यहां दोस्ती का व्यापक रूप देखा जा सकता है.
किस्सा नं. 5- गैलीलियो के लिए आहत गुलजार
मशहूर खगोलविद् और वैज्ञानिक गैलीलियो के बारे में तो हम जानते ही हैं कि उन्हें जबरन थोपे गए अपराध के लिए जीवन के अंत तक गृह-बंदी बनाकर रखा गया. गुलजार साहब इस बात से बहुत आहत रहते थे. उन्हें लगता था कि गैलीलियो जैसे बड़े वैज्ञानिक और खगोलशास्त्री के साथ समाज ने सही ढंग से बर्ताव नहीं किया. उनकी बैचेनी का आलम यह हो गया कि उन्होंने गैलीलियो के मार्फत कुछ करने की सोची. तय हुआ कि पोप के नाम एक खत लिखा जाएगा और उसमें यह गुजारिश होगी कि- गैलीलियो को माफ कर दिया जाए, क्योंकि उन्होंने कोई अपराध नहीं किया.
उन्होंने खत लिखकर पोप को भेज दिया. ये सिर्फ न्याय दिलाने का नैतिक अभियान भर था, क्योंकि गैलीलियो साहब की आत्मा शताब्दियों पूर्व परमात्मा में विलीन हो चुकी थी. लेकिन इस पूरी कवायद की सबसे सुंदर बात यह रही कि करीब साढ़े तीन सौ साल बाद, 1992 में बाकायदा चर्च ने यह माना कि गैलीलियो सही थे और उन्हें आधिकारिक तौर पर पोप ने माफी दी. उस दिन गुलजार के लिए खुशी का ठिकाना नहीं था.
किस्सा नं. 6 - 'आंधी' के बैन होने की पूरी कहानी
साल 1975 में आई फिल्म 'आंधी' जब प्रदर्शित हुई, तो देश में इमरजेंसी नहीं थी. 26 जून, 1975 को जब इमरजेंसी लगी, तब उसके कुछ दिनों बाद इस फिल्म पर बैन लगा दिया गया. फिल्म पर बैन लगने के वक्त गुलजार और अभिनेता संजीव कुमार देश के बाहर मॉस्को इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में आंधी की स्पेशल स्क्रीनिंग के लिए गए थे. दरअसल हुआ यह था कि फिल्मफेयर मैगजीन में आंधी को लेकर एक स्टोरी छपी, जिसका शीर्षक था- सी योर प्राइम मिनिस्टर ऑन स्क्रीन. यानी अपने प्रधानमंत्री को पर्दे पर देखिए.
ऐसा इसलिए कि फिल्म में सुचित्रा सेन का जिस तरह का किरदार था, जिसमें वो तेज कदमों से चलते हुए फाइल हाथों में लिए, आत्मविश्वास से सीढ़ियां उतरती हैं. इन सब दृश्यों से उस समय कांग्रेस के नेताओं को लगा कि यह फिल्म इंदिरा गांधी से प्रेरित है. रोचक बात यह कि इमरजेंसी लगने के थोड़ा पहले ही फिल्म रिलीज हुई थी. लेकिन लेख के छपने के बाद उसके 23वें हफ्ते में फिल्म बैन कर दी गई. हालांकि कुछ दिनों बाद छोटे-मोटे बदलाव के साथ यह फिल्म दोबारा प्रदर्शित की गई. वे बदलाव क्या थे, ये भी जान लीजिए.
दरअसल, गुलजार ने फिल्म से कुछ दृश्य हटाए और एक खास दृश्य को शूटिंग के बाद अलग से जोड़ा. इस नए सीन में, पीछे दीवार पर साइड में एक फोटो टंगी हुई दिखाई गई है, जिसमें इंदिरा गांधी मौजूद थीं. इस सीन में इसी तस्वीर को देखते हुए सुचित्रा यानी फिल्म की मुख्य कलाकार आरती देवी से एक संवाद कहलाया गया- "मैं उन्हें अपना आदर्श मानती हूं." इस दृश्य को जोड़ने के साथ फिल्म से जुड़ा विवाद भी खत्म हो गया और 'आंधी' फिर से शबाब पर जनता के बीच चल सकी.
किस्सा नं. 7- दरअसल, यह किस्सा नहीं, गुलजार का भोगा हुआ सच है
आठ साल की उम्र में नन्हे गुलजार को अपना दीना गांव (पाकिस्तान) छोड़ना पड़ा था. इसके बाद वे दिल्ली के रोशनआरा बाग रहते थे. यही वो दौर था जब भारत के दो टुकड़े हो रहे थे, और इन दोनों टुकड़ों में हजारों-लाखों लोगों के टुकड़े हो रहे थे. रोशनआरा बाग की हालत भी कोई अलग नहीं थी. किताब में गुलजार के हवाले से एक घटना का जिक्र है, जो उनके ही स्कूल में मौजूद एक मुस्लिम सहपाठी के साथ हुई थी. घटना कुछ यूं है, "हर दिन की तरह एम.बी. मिडिल स्कूल, रोशनआरा बाग में सारे बच्चे, जिनमें गुलजार भी मौजूद थे, सुबह की प्रार्थना कर रहे थे."
"एक सरदार था, सरदार समन्दर सिंह. वो सरदार उस मुस्लिम लड़के को सबके सामने रस्सी से बांध के ले जा रहा था. सब लोग यह देख रहे थे लेकिन उसे बचाने कोई नहीं उतरा. किसी ने आवाज लगाई- 'कित्थे लै के जा रिया?' उसने जवाब दिया- 'पाकिस्तान छोड़ के आ रिया.' वो सरदार जब रोशनआरा बाग के पास लौटकर आया तो उसके हाथ में एक लहू-भरी तलवार थी." यह ऐसा वाकया था, जिसने गुलजार की शख्सियत को पूरी तरह हिला डाला था. लेकिन गुलजार की पीड़ा यहीं खत्म नहीं होती.
विभाजन के बारे में गुलजार बताते हैं, "विभाजन की विभीषिका मेरे अंदर इतने गहरे पैठ गई थी कि मैं सालों तक दु:स्वपनों से जागता रहा. अगर मैं उस समय रो लिया होता, बेहिसाब रो लेता, तो शायद लिख न पाता. लिखने ने मेरी मदद की. सब कुछ एक साथ नहीं, पर धीरे-धीरे..." आठ साल की उम्र में दीना छोड़ने वाले गुलजार 78 साल की उम्र में ही वहां दोबारा जा पाए. दुनिया की नजरों में संपूर्ण, गुलजार के भीतर इस दौरान एक खलिश लगातार बनी रही. शायद यही वजह है कि लेखक ने गुलजार के ही गीत पर इस किताब को सटीक शीर्षक से नवाजा है.