क्या सच में कांग्रेस ने ‘वंदे मातरम्’ में काट-छांट कर उसकी मूल भावना से खिलवाड़ किया था?
कांग्रेस ने जिन हालात में 'वंदे मातरम' को संशोधित संस्करण स्वीकार किया वह दिखाता है कि उसने तब के भारत में राष्ट्रवाद को कैसे संवाद के जरिये आगे बढ़ाया था

1937 में कांग्रेस की तरफ से सार्वजनिक स्तर पर 'वंदे मातरम्' के मूल संस्करण की कुछ पंक्तियों को हटाना यह दिखाता है कि औपनिवेशिक भारत में राष्ट्रवाद को कैसे संवाद के जरिये आगे बढ़ाया जाता था न कि तानशाही से.
वंदे मातरम् के भावपूर्ण बोल भारत की राष्ट्रीय आकांक्षाएं आगे बढ़ाते हैं, स्वतंत्रता संग्राम की याद दिलाते हैं लेकिन समय के साथ राजनीतिक विवाद का विषय भी बन गए हैं. अक्सर ही दोहराई जाने वाली उस कहानी पर फिर से गौर करना जरूरी है जिसमें कहा जाता है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1937 में सांप्रदायिक हित साधने के लिए इस गीत के कुछ प्रमुख अंश काट दिए थे, और इस तरह उसने एक राष्ट्रीय प्रतीक के साथ विश्वासघात किया. हालांकि, यह बात ऐतिहासिक जांच के नजरिये से पूरी तरह से सही नहीं लगती.
इतिहासकार सब्यसाची भट्टाचार्य की किताब Vande Mataram: The Biography of a Song और ऐतिहासिक स्रोतों के आधार पर एक अधिक गहन विवरण सामने आता है- कांग्रेस ने गुपचुप ढंग से इस गीत में कोई बदलाव करने के बजाय सार्वजनिक तौर पर इस पर विचार-विमर्श किया कि कैसे इसकी मूल ताकत को बरकरार रखते हुए इसे भारत के बहुलवादी संदर्भ में ढाला जाए. संक्षिप्त संस्करण अपनाने का निर्णय रवींद्रनाथ टैगोर जैसे बुद्धिजीवियों से सलाह-मशविरा करके लिया गया था. 1930 के दशक के सांप्रदायिक तनावों को देखते हुए कांग्रेस की भूमिका निंदा के बजाय सराहना की हकदार है.
वंदे मातरम् एक सशक्त गीत
वंदे मातरम् को बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने 1870 के दशक में लिखा गया और बाद में इसे उनके उपन्यास आनंदमठ (1882) का हिस्सा भी बनाया गया. उपन्यास एक प्रबल हिंदू राष्ट्रवादी स्वर को उभारता था. हालांकि, वंदे मातरम् के पहले दो छंद मातृभूमि के प्रति एक सार्वभौमिक अपील पर केंद्रित हैं, और इस कल्पना से भरपूर हैं: “मां स्वतंत्र, मां सशक्त” हो. यह जल्द ही राष्ट्रवादी आंदोलन का एक गीत बन गया, खासकर बंगाल में, और फिर पूरे भारत में. फिर, 20वीं सदी के आरंभ तक व्यापक स्तर पर ब्रिटिश शासन से मुक्ति के आह्वान के लिए इस गीत का इस्तेमाल राजनीतिक सभाओं और विरोध प्रदर्शनों में किया जाने लगा.
टैगोर ने इसे राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई जब उन्होंने 1896 में कलकत्ता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में इसे गाया. इस क्षण ने प्रतीकात्मक तौर पर वंदे मातरम् को बंगाल से परे राष्ट्रीय चेतना में उभारा.
‘काट-छांट’
1930 के दशक के मध्य तक गीत के बढ़ते प्रभाव ने कुछ आपत्तियों को भी जन्म दिया. अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के सदस्यों और अन्य मुस्लिम नेताओं ने तर्क दिया कि कुछ पंक्तियों में हिंदू प्रतीकों का इस्तेमाल किया गया है- मां को देवी रूप में संदर्भित करने से अल्पसंख्यक असहज हो जाते थे. कांग्रेस नेतृत्व के सामने एक दुविधा उत्पन्न हो गई थी. वह इसको देशभक्ति के प्रतीक गीत के तौर पर बनाए रखना चाहती थी और साथ ही धार्मिक बहुलता वाले देश में इसकी समावेशिता सुनिश्चित करने का इरादा भी रखती थी.
अक्टूबर 1937 में कांग्रेस कार्य समिति (सीडब्ल्यूसी) ने राष्ट्रीय समारोहों में केवल पहले दो छंदों को इस्तेमाल करने का संकल्प लिया. यह किसी तरह गोपनीय का संपादन नहीं था, बल्कि इसके लिए एक खुला प्रस्ताव रखा गया था. भट्टाचार्य इसे गीत के “कुछ हिस्सों पर मुस्लिम मित्रों की तरफ से उठाई गई आपत्ति” पर कांग्रेस का जवाब और व्यावहारिक स्तर पर “आयोजकों को स्वतंत्रता” प्रदान किए जाने के तौर पर रेखांकित करते हैं.
देवी-देवताओं का जिक्र और जंग की हुंकार वाली जो पंक्तियां हटाई गईं, वे वास्तव में अतिईश्वरवादी थी. कांग्रेस ने यह कदम तुष्टिकरण के लिए नहीं बल्कि गीत की एकीकृत अपील को प्रासंगिक बनाने रखने के लिए उठाया था.
टैगोर की भूमिका
इस दावे के विपरीत कि केवल कांग्रेस ने ही “काट-छांट” का फैसला किया, इसमें टैगोर की भागीदारी महत्वपूर्ण थी. सुभाष चंद्र बोस ने टैगोर को उनकी राय के लिए पत्र लिखा था और जवाहरलाल नेहरू ने भी उनसे परामर्श किया था. बोस पूरे गीत को मूल रूप में बनाए रखने के पक्ष में थे, लेकिन जैसा प्रतीत होता है, उन्होंने टैगोर के तर्क को पूरे ध्यान से सुना.
टैगोर ने इस बदलाव का समर्थन करते हुए नेहरू को लिखा था, “इसके पहले भाग में कोमलता और भक्ति की भावना है, और मातृभूमि के सुंदर और कल्याणकारी पहलुओं को उकेरा गया है. यह मेरे लिए विशेष तौर पर इतना आकर्षक कि मुझे इसे कविता के बाकी हिस्सों और उस पुस्तक के उन अंशों से अलग करने में कोई कठिनाई नहीं हुई जिसका ये एक हिस्सा है, और जिसकी सभी भावनाओं के साथ मैं पूरी तरह सहमत नहीं हो सकता क्योंकि मैं अपने पिता के एकेश्वरवादी आदर्शों में पला-बढ़ा हूं.”
टैगोर ने आगे कहा, “मेरा स्पष्ट मत है कि बंकिम चंद्र की 'वंदे मातरम्' कविता को उसके संदर्भ के साथ पढ़ने पर ऐसी व्याख्या की जा सकती है जो मुस्लिम भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाली हो. लेकिन एक राष्ट्रीय गीत, भले ही वह उसी से लिया गया हो, जो स्वतःस्फूर्त रूप से मूल कविता के केवल पहले दो छंदों तक सीमित हो गया है, हमें हर बार उसकी पूरी रचना की याद दिलाने की जरूरत नहीं है, और न ही वह कहानी दोहराने की जरूरत है जिससे वो संयोगवश जुड़ा था. इसने एक अलग व्यक्तित्व और अपना एक प्रेरक महत्व प्राप्त कर लिया है जिसमें मुझे किसी भी संप्रदाय या समुदाय को ठेस पहुंचाने वाली कोई बात नजर नहीं आती.”
दिलचस्प बात ये है कि बंगाल के सबसे महान नायक को भी इस निर्णय के कारण कुछ समय के लिए अपने राज्य में “गरिमा गंवाने” का कष्ट झेलना पड़ा. बहरहाल, टैगोर के समर्थन ने यह सुनिश्चित किया कि कविता का छोटा संस्करण भारत की बहुलतावादी भावना को ठेस पहुंचाए बिना इसके सार को संरक्षित रखे. इसलिए, यह कहना कि कांग्रेस ने बिना किसी राय-मशविरे के गोपनीय ढंग से छंदों को हटा दिया, एक अधूरा तथ्य है, जबकि ये निर्णय बौद्धिक और नैतिक तौर पर वैध ही कहा जाएगा.
कांग्रेस ने क्या किया, और क्या नहीं किया
1937 के कांग्रेस कार्यसमिति प्रस्ताव में औपचारिक तौर पर पहले दो छंदों को सार्वजनिक रूप से इस्तेमाल करने का फैसला किया गया. साथ ही आयोजकों को अन्य देशभक्ति गीतों को शामिल करने की स्वतंत्रता दी गई. कांग्रेस ने वंदे मातरम् का गान नहीं छोड़ा; पार्टी अधिवेशनों में इसे गाया जाता रहा, जिससे इसी राष्ट्रीय जीवन में एक स्थायी स्थान मिला. प्रस्ताव में सेंसरशिप पर नहीं, बल्कि स्वैच्छिकता पर जोर दिया गया.
यह निर्णय तुष्टिकरण के बजाय तीव्र सांप्रदायिक राजनीति के बीच एक साझा भावना को बरकरार रखने के प्रयास के तौर पर देखा जा सकता है. कांग्रेस ने कविता का खारिज नहीं किया और न ही स्वतंत्रता संग्राम में इसकी भूमिका को कमतर आंका. बल्कि, उसने केवल सार्वजनिक तौर पर गाए जाने वाले संस्करण को सीमित कर दिया. महत्वपूर्ण बात ये है कि इस संशोधन को आधिकारिक तौर पर दर्ज किया गया और इस बात को भी छिपाया नहीं गया कि इस पर अच्छी-खासी बहस हुई थी. यह आरोप लगाना कि कांग्रेस ने “छंदों को काट दिया और गीत के साथ विश्वासघात किया” उस समय की जटिल परिस्थितियों को नजरअंदाज करने जैसा है.
ऑल इंडिया मुस्लिम लीग ने गीत के धार्मिक अर्थों पर आपत्ति जताई थी. 1938 तक एम.ए. जिन्ना और लीग इसे खत्म करने की मांग तक करने लगी थी. यह गीत पहचान की राजनीति का एक केंद्रबिंदु बन गया था. फिर भी, कांग्रेस ने संक्षिप्त संस्करण के गायन पर जोर दिया और आजादी के बाद बैठकों की शुरुआत वंदे मातरम् से और अंत जन गण मन से करने की परंपरा शुरू की. यह दृढ़ता दिखाती है कि कांग्रेस दबाव में नहीं झुकी, बल्कि उसने आस्था और समावेशिता के बीच संतुलन बनाने की कोशिश की.
आज यह प्रासंगिक क्यों है
हम वंदे मातरम् के इतिहास की व्याख्या कैसे कर रहे हैं, यह इस बात से तय होता है कि आज राजनीति में राष्ट्रीय प्रतीकों का इस्तेमाल कैसे किया जाता है. जब समकालीन नेता आरोप लगाते हैं कि कांग्रेस ने 1937 में विभाजन के बीज बोए और प्रमुख छंदों को हटा दिया तो वे मामूली ऐतिहासिक घटना को नैतिकता के लिहाज के आरोप के घेरे में ला देते हैं.
वंदे मातरम् जैसे प्रतीक आस्था, संस्कृति और राजनीति में गहराई से समाए हैं. कांग्रेस का इस गीत को संशोधित करने का फैसला दिखाता है कि औपनिवेशिक भारत में राष्ट्रवाद को कैसे संवाद के जरिये आगे बढ़ाया जाता था न कि तानाशाही से. यह मानते हुए कि संक्षिप्त संस्करण कोई सोची-समझी चाल नहीं बल्कि विचार-विमर्श के बाद उठाया गया कदम था, विमर्श दोषारोपण के बजाय एक समझदारी भरा फैसला लगता है. यह साबित करता है कि कांग्रेस ने विभाजनकारी समय में साझा देशभक्ति की भावना जगाए रखने का एक गंभीर प्रयास किया.
आज, यह बहस पश्चिम बंगाल में न केवल इतिहास के स्तर पर उभरी है बल्कि राजनीतिक ड्रामे का भी हिस्सा बन रही है. BJP ने बंकिम की विरासत को एक हिंदू राष्ट्रवादी प्रतीक के तौर पर अपनाने की कोशिश की है और उनकी तुलना टैगोर से कर रही है, जो बंगाल के बहुलतापूर्ण मानवतावाद के प्रतीक हैं. बंगाली मानस में इस तरह का द्वंद्व घातक साबित हो सकता है.
बंकिम को टैगोर के विरुद्ध खड़ा करना बंगाल की सांस्कृतिक पहचान के दो स्तंभों को विभाजित करना है- एक संत-विद्वान जिसने वंदे मातरम् दिया और दूसरा दार्शनिक-कवि जिसने आमार सोनार बांग्ला दिया. दोनों ने मातृभूमि के प्रति अपने प्रेम को अलग-अलग शब्दों में व्यक्त किया. बंकिम ने आह्वान को माध्यम बनाया तो टैगोर ने आत्मनिरीक्षण पर जोर दिया. बंगाल दोनों का सम्मान करता है, उन्हें प्रतिद्वंद्वी नहीं बल्कि एक ही राग और लय-तय का प्रतीक मानता है.
BJP की तरफ से इस विरासत को निष्ठा जताने की प्रतिस्पर्धा तक सीमित करने, और आमार सोनार बांग्ला गाने से परहेज करने से बंगाल के सांस्कृतिक गौरव के अलग-थलग पड़ने का जोखिम उत्पन्न होता है. BJP नेता और असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा की ये बात तमाम बंगालियों को रास नहीं आई है जिसमें हाल ही में उन्होंने 'आमार सोनार बांग्ला' को किसी दूसरे देश (बांग्लादेश) का राष्ट्रगान बताकर खारिज कर दिया था. बंगाली ऐसी टिप्पणियों को अपनी सूक्ष्म सांस्कृतिक विविधता में दखलंदाजी मानते हैं. टैगोर की धर्मनिरपेक्ष आध्यात्मिकता और बंकिम का भक्तिपूर्ण राष्ट्रवाद दोनों साझा तौर पर बंगाली लोकाचार को परिभाषित करते हैं; एक को दूसरे के खिलाफ खड़ा करना दोनों को अलग-थलग करने वाला है.
कुल मिलाकर, 'आमार सोनार बांग्ला' के प्रति असहजता जताते हुए कांग्रेस पर आरोप लगाने के लिए वंदे मातरम् के इतिहास को फिर से
लिखने का प्रयास बंगाल में राजनीतिक स्तर पर घातक साबित हो सकता है. टैगोर के समावेशी राष्ट्रवाद की स्मृति गहराई से अपनी जड़ें जमाए हुए है और बंगाली सामान्य तौर पर उन लोगों को लेकर खास सतर्क रहते हैं जो चुनावी लाभ के लिए इसे चोट पहुंचाने की कोशिश करते हैं.