शैलेंद्र, फणीश्वरनाथ रेणु और राखी के गाने ‘अबके बरस भेज भैया को बाबुल…’ की कहानी
राखी पर भाई-बहनों को भावुक कर देने वाला यह गीत महान गीतकार शैलेंद्र ने फिल्म ‘बंदिनी’ के लिए लिखा था

हिंदी सिनेमा में तीज-त्यौहारों पर खूब गीत रचे गए हैं. मगर महान गीतकार शैलेन्द्र का रचा गीत ‘अबके बरस भेज भैया को बाबुल’ ऐसा गीत है जिसे सुनकर लोगों की आंखें बरबस भीग जाती है. यह गीत उन विवाहिता बहनों की तड़प है, जिनके भाई सावन में, राखी के मौके पर अपनी बहनों से मिलने उनके ससुराल नहीं जा पाते. ऐसे में आज भी लोगों को यह गीत बहुत भाता है. संयोग की बात यह है कि आज गीतकार शैलेन्द्र की जयंती है, सौवां जन्मदिन. ऐसे में आज इस गीत पर बात करने का सबसे अच्छा मौका है.
यह गीत जितना मधुर और हृदय को संवेदित करने वाला, रुला देने वाला है, इसके बनने की कहानी इससे कम द्रवित करने वाली नहीं. दिलचस्प है कि इस गीत के निर्माण में एक और बड़ी हस्ती का नाम शामिल है. वे हैं हिंदी के महान कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु. वही रेणु जिनकी मशहूर कहानी ‘मारे गए गुलफ़ाम’ पर शैलेन्द्र ने बहुत ही प्यारी फिल्म ‘तीसरी कसम’ बनाई थी. फिल्म तीसरी कसम को गीतकार शैलेन्द्र ने अपने जीवन का मकसद बना लिया था. कहते हैं कि फिल्म अपने जमाने में सफल नहीं हो पाई और कर्ज के बोझ तले शैलेन्द्र आखिरकार असमय दुनिया से चले गए. यह एक और दुख भरी कथा है, मगर अभी तो दूसरी कथा है.
वैसे तो शैलेन्द्र भी रेणु की तरह बिहार के ही रहने वाले थे. उनका पैतृक गांव भोजपुर जिले का अख्तियारपुर था, हालांकि उनके पूर्वज पहले ही बिहार से बाहर चले गए थे. तीसरी कसम बनने से पहले रेणु और शैलेंद्र एक दूसरे से परिचित नहीं थे, मगर फिल्म निर्माण के दौरान दोनों अच्छे दोस्त बन गए. तीसरी कसम के सेट पर दोनों इसी फिल्म की कव्वाली 'तेरी बाकी अदा पर मैं खुद ही फिदा हूं ' गुनगुनाया करते थे.
रेणु लोक संस्कृति के अच्छे जानकार थे, शैलेंद्र अक्सर उनसे महुआ घटवारिन की लोक कथा सुनाने के लिए कहते थे. इस प्रसंग के बारे में रेणु ने खुद लिखा है, "एक दिन हम ‘पवई लेक’ के किनारे एक पेड़ के नीचे जाकर बैठे थे. ‘महुआ घटवारिन’ का गीत मुझे पूरा याद नहीं था. इसलिए मैंने एक छोटी-सी भूमिका के साथ ‘सावन-भादों’ का गीत अपनी भोंडी और मोटी आवाज में, भरे गले से सुना दिया. गीत शुरू होते ही शैलेन्द्र की बड़ी-बड़ी आंखें छलछला आईं और गीत समाप्त होते-होते वे फूट-फूटकर रोने लगे. गीत गाते समय ही मेरे मन के बांध में दरारें पड़ चुकी थीं. शैलेन्द्र के आंसुओं ने उसे एकदम तोड़ दिया. हम दोनों गले लगकर रोने लगे. ‘ननुआं’ (शैलेन्द्र का ड्राइवर) टिफिन कैरियर में घर से हमारा दोपहर का भोजन लेकर लौट चुका था. हम दोनों को इस अवस्था में देखकर वह चुपचाप एक पेड़ के पास ठिठककर बहुत देर तक खड़ा रहा.”
रेणु इस हवाले से आगे लिखते हैं, “घटना के कई दिन बाद, शैलेन्द्र के ‘रिमझिम’ में पहुंचा. वे तपाक से बोले- चलिए, उस कमरे में चलें. आपको एक चीज सुनाऊं. हम उनके शीतताप-नियंत्रित कमरे में गए. उन्होंने मशीन पर ‘टेप’ लगाया. बोले- आज ही ‘टेक’ हुआ है. मैंने पूछा- तीसरी कसम? बोले- नहीं भाई! ‘तीसरी कसम’ का टेक होता हो आपको नहीं ले जाता? यह ‘बंदिनी’ का है. पहले, सुनिए तो. रेकॉर्ड शुरू हुआ- ‘अब के बरस भेज भैया को बाबुल, सावन में लाजो बुलाय रे. अमुआं तले फिर से झूले पड़ेंगे. कसके रे जियरा छलके नयनवां. बैरन जवानी ने छीने खिलौने. बाबुलजी मैं तेरे नाजों की पाली. बीते रे जुग कोई चिठियो ना पाती, ना कोई नैहर से आये रे-ए-ए.’
कमरे में ‘पवई-लेक’ के किनारे वाले दृश्य से भी मर्मांतक दृश्य उपस्थित हो गया. हम दोनों हिचकियां ले-लेकर रो रहे थे- आंसू से तर-बतर. शैली ने (तब बांटू, यानी हेमंत!) किसी काम से अथवा गीत सुनने के लिए कमरे का दरवाजा खोला और हमारी अवस्था देखकर पहले कई क्षणों तक अवाक् रहा. फिर कमरे से चुपचाप बाहर चला गया कमरे में बार-बार रेकॉर्ड बजता रहा और न जाने कब तक बजता रहता, यदि शकुनजी आकर मशीन बन्द नहीं कर देतीं.’’