अलंग: गुजरात का वो शहर जहां टूटते हैं दुनियाभर के जहाज
हर साल दुनियाभर में अनुपयोगी हो चुके जितने जहाजों को तोड़ा जाता है, उसका करीब तीसरा हिस्सा गुजरात के अलंग बीच पर आता है

सोचिए कि ऐसा हो, आप किसी बीच का रुख करें और वहां रेत-समंदर और नारियल-खजूर के पेड़ों से परे आपको दूर-दूर तक जहाजों की लाशें नजर आएं. ऐसा नजारा मानो बनारस के मणिकर्णिका घाट पर इंसानों की जगह टाइटैनिक टाइप के बड़े-बड़े पानी वाले जहाजों का अंतिम संस्कार किया जा रहा हो.
पंडों की जगह यूपी-बिहार-बंगाल-ओडिशा से आए मजदूरों ने जगह घेर रखी हो और लाश की चचरी की जगह मोटे-मोटे रस्सों ने मैदान कब्जा लिया हो. आपको यह विवरण अकल्पनीय लगना लाजमी है क्योंकि दुनिया का सबसे बड़ा शिपब्रेकिंग यानी जहाज डिस्मैंटल करने वाला ये भारतीय बीच भले ही आपको स्पेस से नजर आ जाए मगर इसके बारे में ज्यादा जानकारी अभी भी लोगों के पास नहीं है.
कहां है ये अनोखा बीच?
गुजरात के भावनगर जिले में एक शहर है, नाम है - अलंग. इस शहर के बारे भारतीयों से ज्यादा विकसित देश के बहुत बड़े-बड़े कारोबारी जानते हैं और वजह है जहाज तोड़ने का धंधा. दुनियाभर से लोग यहां जहाज डंप करने आते हैं. अमेरिका के फिल्म डायरेक्टर पॉल एस. गुडमैन ने इस पर 'शिपब्रेकर्स' नाम की एक डॉक्यूमेंट्री बनाई है. इसमें अलंग को 'ग्रेवयार्ड ऑफ शिप्स' यानी जहाजों की कब्रगाह कहा गया है.
इस शिपयार्ड में जहाजों से पाई-पाई की रकम वसूल ली जाती है. जहाज के लोहे-स्टील से लेकर भीतर के किचन अप्लायंसेज और बिजली के तारों तक, सबकुछ बेचकर ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की कोशिश रहती है. लेकिन सवाल ये उठता है कि अलंग ही क्यों, और भी तो बीच हैं भारत में. और भारत क्यों, दुनिया के किसी विकसित देश में क्यों नहीं?
शिपब्रेकिंग के लिए अलंग बीच इस वजह से है खास
शिपब्रेकिंग में अलंग बीच की खासियत जानने से पहले आपको ये जान लेना चाहिए कि शिपब्रेकिंग होती कैसे है. इसके प्रोसेस के लिए दुनिया के अन्य विकसित देशों में पूरी मशीनरी उपलब्ध है मगर आपको ये जानकर ताज्जुब होगा कि अलंग में जहाज तोड़ने की प्रक्रिया का बड़ा हिस्सा मजदूरों द्वारा मैन्युअली किया जाता है. बिजली से चलने वाली मशीनों का योगदान यहां कम से कम होता है. जहाज में कुछ खास मेटल्स ऐसे होते हैं जो मशीन से काटने या तोड़ने पर खराब हो जाते हैं सो मजदूर इनको छैनी-हथौड़ी से तोड़ते हैं. .
शिपब्रेकिंग में सबसे अहम है जहाज को पानी से खींचकर बीच पर लाना लेकिन इसे भी मजदूर ही रस्सी से खींचते हैं. जहाज को बीच पर खींचने की प्रक्रिया महीने में केवल दो ही बार होती है - एक अमावस्या और दूसरा पूर्णिमा के दिन. ऐसा इसलिए क्योंकि अलंग बीच पर काफी ऊंची हाई टाइड आती है और ये जहाज को बीच पर खींचने में मदद करती हैं. ये दोनों वजहें शिप ब्रेकिंग के कारोबार में अलंग को खास बना देती हैं.
क्या है शिपब्रेकिंग का प्रोसेस?
समंदर से जहाज को बीच पर लाने के बाद सबसे पहले उसकी सफाई होती है. सफाई के बाद गुजरात प्रदूषण बोर्ड की अनुमति ली जाती है जिसके बाद लोहा काटने का प्रोसेस शुरू किया जाता है. इससे पहले अंदर के सामान जैसे जेनरेटर, बिजली की तारें और भी जो काम में लाया जा सके, उसे बाहर किया जाता है और मरम्मत के बाद उसे भी लोकल मार्केट में बेच दिया जाता है. अलंग बीच से कुछ किलोमीटर दूर बाकायदा दुकानदारों की पूरी फौज होती है जो शिप के अलग-अलग पार्ट्स बेचते हैं, जैसे लाइफबोट वगैरह.
लोहे की कटिंग के दौरान दो सुपरवाइजर मौजूद होते हैं, एक जहाज पर और दूसरा नीचे, जो ये सुनिश्चित करते हैं कि किसी भी प्रकार की दुर्घटना न हो. जहाज से बड़े टुकड़े कटने के बाद उसे क्रेन की मदद से जमीन पर उतारा जाता है और फिर उसे और छोटे-छोटे टुकड़ों में सफाई के बाद बेचा जाता है. ये लोहे और स्टील प्लेट्स रोलिंग मिल और स्टील फैब्रिकेटर्स खरीदते हैं. जहाज का पुर्जा-पुर्जा बेच दिया जाता है और कुछ भी वेस्ट नहीं किया जाता. अभी कुछ वर्षों पहले इंडियन नेवी के आईएनएस विराट की रीसाइक्लिंग अलंग शिपयार्ड में ही हुई थी.
अलग-अलग क्षेत्रों के आंकड़ों का हिसाब-किताब रखने वाली वेबसाइट स्टेटिस्टा के मुताबिक बीते पांच साल में हर साल करीब 600 शिप पूरी दुनिया में डिसमेंटल किए गए. वहीं भारत सरकार के आंकड़े बताते हैं कि इस दौरान अलंग में हर साल औसतन 200 शिप तोड़े गए, यानी दुनियाभर में तोड़े जाने वाले जहाजों का तीसरा हिस्सा! इस तरह अलंग शिपब्रेकिंग उद्योग में दुनिया इस सेक्टर में पहले नंबर पर है.
भारत ही क्यों?
अलंग धीरे-धीरे इस कारोबार में दुनिया में पहले नंबर आया है. इसका मतलब है कि इसमें ठीक-ठाक मुनाफा भी होता होता होगा. तब सवाल है कि आखिर विकसित देश अपने यहां जहाज डिस्मैंटल करने का कारोबार खड़ा क्यों नहीं करते. इसका जवाब है, डिस्मैंटल होने वाले जहाज के साथ मुफ्त मिलने वाला टॉक्सिक वेस्ट. जहाज के पेंट से लेकर कई हिस्सों में पीएमसी जैसे विषैले पदार्थ होते हैं जिनका निकास उसे डिस्मैंटल करने के दौरान होता है. ऐसा नहीं है कि विदेश के बड़े-बड़े बीच पर ये काम नहीं हो सकता मगर उसमें आएगा खर्चा! मोटा खर्चा! क्योंकि दुनिया के लगभग सभी विकसित देशों में पर्यावरण सुरक्षा और मजदूरी को लेकर बड़े सख्त कानून हैं और इतने बड़े-बड़े जहाजों को डंप करने में मोटा पैसा खर्चा होगा.
वहीं भारत और दक्षिण एशिया के कुछ अन्य देशों में, जैसे पाकिस्तान, बांग्लादेश और यहां तक की चीन में भी इन जहाजों से छुटकारा पाना आसान है. अपने हाई टाइड की खूबी, सस्ता लेबर और पर्यावरण सुरक्षा कानूनों को लेकर नरम रवैए की वजह से इन सभी का सरताज है अलंग. यहां बिहार, उत्तर प्रदेश, ओडिशा, बंगाल और कई दूसरी जगहों से मजदूर फिक्स्ड वर्क आवर्स और ठीक-ठाक पैसा देखकर खिंचे चले आते हैं. इस काम में उन्हें खतरे का मतलब दुर्घटना ही समझ आती है लेकिन जहाजों से निकलने वाले जहरीले वेस्ट की तरफ कोई ऊंगली नहीं उठाता.
एक तरह से ये विकसित देशों के लिए ये एक कूड़ेदान है जहां उन्हें कूड़ा डालने का पैसा देना नहीं पड़ता, उल्टा मिलता है. और ऐसा नहीं है कि अलंग की इस शिप रीसाइक्लिंग इंडस्ट्री के आर्थिक फायदे नहीं हैं, काफी हैं. जैसे हजारों मजदूरों को रोजगार, शिपब्रेकिंग कंपनियों का मुनाफा और स्टील इंडस्ट्री के लिए रिसोर्सेज मगर इसके ऐवज में पर्यावरण और मानव खतरे का पलड़ा ज्यादा भारी है.
अमेरिका में भी होता है ये काम
अमेरिका के टेक्सस शहर में भी अमेरिकन नेवी से जुड़े जहाजों की रीसाइक्लिंग की जाती है. अगर आप वहां के कामगारों को देखेंगे तो एक पल को आपको लगेगा जैसे कोरोना काल का कोई डॉक्टर पीपीई किट पहने काम कर रहा हो. वजह साफ है - जहाजों में मौजूद टॉक्सिक वेस्ट. इसी स्तर की सुरक्षा के इंतेजामात अलंग के भारतीय मजदूरों के लिए भी होने चाहिए. हाल के कुछ सालों में ग्रीनपीस जैसी कुछ एनजीओ ने अलग के मजदूरों की सुरक्षा के लिए दबाव बनाया तब से अब अलंग के मजदूर भी हेलमेट और ग्लव्स लगाए नजर आते हैं. मगर ये काफी नहीं है और अभी इस दिशा में बहुत काम किए जाने की जरूरत है.
कुछ विदेशी एनजीओ लगातार इंटरनेशनल मेरीटाइम आर्गेनाईजेशन को दक्षिण एशिया में चल रहे इस शिप रीसाइक्लिंग इंडस्ट्री पर कोई ठोस कदम उठाने के लिए दबाव बना रहे हैं. भारत सरकार को भी इस मामले में सिर्फ आर्थिक दृष्टिकोण से न सोचते हुए थोड़ा मानवीय रुख अपनाने की जरुरत है.