मेरिट वाला सिनेमा कैसे बनता है, ‘12th Fail’ ये भी बताती है

विक्रांत मैसी ने 12th Fail से मुनादी कर दी है कि अब ‘कलाकार एक्सप्रेस’ का उनका कूपा अपग्रेड किया जाए और जाहिर है कि यह विधु विनोद चोपड़ा जैसे जादूगर किस्सागो के बिना मुमकिन नहीं होता

आईपीएस मनोज कुमार शर्मा की कहानी पर बनी है 12th फेल
आईपीएस मनोज कुमार शर्मा की कहानी पर बनी है 12th फेल

पर्दे पर कहानियां कहने के सफ़र में क़रीब आधी सदी पुराने राहगीर हैं विधु विनोद चोपड़ा. अपनी आम जिंदगी में ‘अन-टाइटल्ड’ रहने की भरसक कोशिश करते विधु ख़ुद को सिर्फ़ एक सिनेमाई सफ़रकार कहलाना पसंद करते हैं. इनकी इस राहगीरी के लिए सिर्फ एक विशेषण की जगह हो, तो ‘दिग्गज’ शब्द खर्चा जा सकता है. सिनेमाघरों में विधु अपने सबसे ताज़ा पड़ाव के साथ उतरे हैं. फिल्म का नाम है ‘12th फेल’.

क़िस्सों की तलाश इस बार उन्हें बाग़ी ज़मीन चम्बल की तरफ़ खींच ले गई है. इसी ज़मीन से उठकर साल 2005 में भारतीय पुलिस सेवा में जाने का सपना पूरा किया था मनोज कुमार शर्मा ने. 12वीं में चम्बल के एक ‘व्यवस्थित’ स्कूल से अव्यवस्था का भेंट किया ‘12वीं फेल’ का तमगा लेकर मनोज दिल्ली पहुंचते हैं. ‘सही हाथों में ताक़त से बदलाव’ का ईंधन खपाकर मनोज जुगाड़ तकनीक से ये किला फ़तह करने निकलते हैं.

मनोज के इस सफर में एक अच्छी कहानी और उस कहानी में भरतमुनी के नाट्यशास्त्र वाला भरपूर सिनेमा छुपा था. कहानी पहचानकर उस पर किताब लिखी साल 2019 में अनुराग पाठक ने, और काग़ज़ पर सिनेमा पहचाना विधु विनोद चोपड़ा ने. नतीजतन, फिल्म पर्दे पर है. अच्छे-बुरे से इतर कुछ बातें इस फिल्म पर आप आगे पढेंगे. क्या ठीक, कहां गुंजाइश? 

आवाज़ों के धुरंधर विधु

साउंड से खेलने में विधु विनोद चोपड़ा पुराने उस्ताद हैं. ‘12th फेल’ के एक मोंटाज को ही देख लें. मुख़र्जी नगर का वो मोंटाज जिसे दृश्य से ज्यादा ध्वनि से गढ़ा गया है. और वो तब तक खिंचता है जब तक आपको ये न लग जाए कि आप एक महानगर के कोलाहल में, ठीक बीच में खड़े कर दिए गए हैं.

दरवाजे पर सुबह-सुबह फेंके जा रहे अखबार, खंगाली जा रही चाय की गिलासें, नौकरियों के फॉर्म-नोट्स-किताबों की खरीद-बिक्री, बैटरी रिक्शा का हॉर्न, दूर से आवाज़ देकर बुलाता दोस्त, सड़क बुहारता आदमकद झाड़ू, चाय पीते स्टूडेंट के आगे हाथ पसारे खड़ी बुढ़िया... खाट्ट...छन्न...झर्र...पीं-पीं...ओएए...भांय-भांय...ए बच्चा....टुकड़ों में नत्थी की गई आवाज़ की चिप्पियां एक धुन तैयार कर देती हैं.

महानगर का लोकगीत. जो लोग लक्ष्मी नगर या मुखर्जी नगर से वाबस्ता हों, ये मोंटाज उनके लिए कम, उनके लिए अधिक है जिन तक महानगर की झलकियां सूचना और मनोरंजन की पीठ पर सवार होकर उनका दरवाजा खटखटाती हैं. अपने-अपने चम्बलों में बैठे अनगिनत मनोज. 

बहुत मुमकिन था कि रात भर की एक ट्रेन यात्रा के अंतर से दिल्ली की बिल्कुल अनजान दुनिया में आ खड़े हुए चम्बल के मनोज का डर, आशंकाएं, संकल्प का पछतावा विधु कुछ दृश्यों में दिखाते. डायलॉग्स के सहारे. लेकिन विधु ध्वनियों के पुराने और माने हुए उस्ताद हैं. कल्ट क्लासिक का दर्जा हासिल कर चुकी, साल 1989 में आई विधु की फिल्म ‘परिंदा’ का एक सीन है.

12th फेल के एक सीन में पढ़ते हुए मनोज शर्मा (विक्रांत का किरदार)

अन्ना सेठ के किरदार में नाना पाटेकर अपने परिवार की तस्वीर के सामने खड़े हैं. उस सीन में अन्ना को अपने मर चुके बच्चे की याद आ रही है. स्क्रीन पर सन्नाटा तोड़ता एक चाभी वाला खिलौना चल पड़ता है. बिल्कुल नंगी धारदार आवाज. पीछे फोन की घंटी बजती है. अन्ना सिर्फ दो एक बातें कहता है. ज़रूरत से ज्यादा एक शब्द नहीं. अगले तीन सेकेंड में स्क्रीन पर अन्ना एक मर्डर करता है. यहां भी आवाज का खेल. सिर पर हथौड़े की धमक और चाकू से खून साफ करने की खरखराहट. पीछे पुलिस सायरन की आवाज़. खोखलों से तेल निकालने की मशीन चल पड़ती है और लाश को एक लकड़ी के कार्ट में भर दिया जाता है. साउंड ट्रांजिशन से विधु का इश्क़ कई दशकों पुराना है.  

‘12th फेल’ में जब आटा चक्की पर मनोज दिखता है, तब विधु एयर कंडीशंड सिनेमा घरों में पॉपकॉर्न और कोल्डड्रिंक हाथ में लिए बैठे दर्शकों के ‘सेंसरी कम्फर्ट’ का लिहाज़ नहीं करते. धाड़-धाड़ की आवाज़ से आपको खिझाते हैं. हर बार कोई न कोई मनोज को थोड़ी देर बाद चक्की बंद करने के लिए कहता है. इसी फिल्म के एक सीन में स्क्रीन पर सात आठ सेकेंड्स के लिए अंधेरा पसर जाता है. पीछे से सीने की धौंकनी सुनाई देती है. आवाजों की अपनी दुनिया में सबको लेकर चलने की बाल-सुलभ लालसा भी विधु में दशकों पुरानी है. और बेहद सुकून की बात है कि, अब तक बनी हुई है यह इच्छा. 

कलाकारी की रार, ठनी? बनी?

क़रीब डेढ़ दशक पहले टेलीविजन से अभिनय की शुरुआत करने वाले विक्रांत मैसी को एक पूरा दशक लगा पर्दे पर अपनी पहचान बनाने में. आप शायद ये वाक्य जल्दी में पढ़ गए. विक्रांत को ‘बड़े पर्दे का एक्टर’ साबित करने वाली फिल्म ‘अ डेथ इन दी गंज’ 2017 में आई. दस साल तक विक्रांत टिके रहे. हर बार नई रार ठानते रहे. आख़िरकार अब क़रीब पंद्रह साल बाद विक्रांत ने इस फिल्म में जो सुरमई काम करके दिखाया है, वो मुनादी है कि अब ‘कलाकार एक्सप्रेस’ का उनका कूपा अपग्रेड किया जाए. ज़ाहिर सी बात है कि ये विधु विनोद चोपड़ा जैसे जादूगर किस्सागो, रीढ़ में झुरझुरी उपजाने वाली सच्ची कहानी और सही समय पर सही जगह हुए बिना मुमकिन नहीं था. लेकिन विक्रांत क्रिकेट के ‘तेरहवें खिलाड़ी’ की तरह मैदान के बाहर हमेशा अपना हुनर मांजते खड़े रहे. उनके मौक़े को किसी हादसे की ज़रूरत नहीं पड़ी. 

गौरी भइया के किरदार में अंशुमान पुष्कर (बाएं)

इसी फिल्म में मनोज के पहली बार गांव लौटने का सीन देखें. मां बालों में तेल लगाने बैठी है. मनोज को मां बता रही है कि सब ठीक ही है. सुनते-सुनते मनोज बाईं ओर को सिर उठाकर मां की तरफ देखता है. दस सेकेंड बाद सिनेमाघर में मौजूद कम-औ-बेश हर शख्स अपने आंसू पोंछने के लिए जेब टटोलकर रुमाल खोज रहा होता है. या आटा चक्की में अपने साथी को आटे की बोरी हटाकर पढ़ने की जगह दिखाने वाला ही सीन देखें. चक्की के कोने से निकलकर किताबों तक पहुंचने में और अपनी तरतीब का असर जांचने के लिए दोस्त का चेहरा निहारते मनोज के चेहरे पर आते-जाते एक्सप्रेशन बताते हैं कि विक्रांत की कलाकारी का ‘सातवां सुर’ पर्याप्त सध चुका है. 

अंशुमान पुष्कर ने गौरी भईया के किरदार को और मज़बूत किया है. हालांकि अंशुमान को ‘जामताड़ा’ और ‘ग्रहण’ के बाद टाइप्ड होने का ख़तरा सूंघने की कोशिश करनी चाहिए. छोटे और बड़े पर्दे पर ‘बिहारी अस्मिता’ को बचाए रखने के लिए अंशुमान और कितनी बार मोनोलॉग डिलीवर करेंगे, ये उन्हें सोचना चाहिए. अंशुमान के हिस्से बहुत आम ‘मोटिवेशनल’ डायलॉग्स आए हैं, लेकिन इन्हें बरतने की कोशिश नई दिखाई पड़ती है. 

मेधा शंकर की आमद श्रद्धा जोशी के किरदार से पर्दे पर पहली बार हुई है. असल ज़िंदगी के आईपीएस अधिकारी मनोज शर्मा अपनी कामयाबी की वजह यूपीएससी की तैयारी के दौरान मिलीं श्रद्धा जोशी (अब उनकी पत्नी और आईआरएस अधिकारी) को बताते हैं. फिल्म इस बात को जितनी मजबूती से दिखाती है, श्रद्धा का अपनी कामयाबी के लिए स्ट्रगल दिखाने में उतनी ही कमज़ोर साबित होती है. इसका असर मेधा शंकर की अदाकारी पर साफ़ दिखाई देता है. मनोज की कहानी में उन्हें ज़रुरत भर की ही जगह मिल पाती है. मेधा अपने क़िरदार के साथ दर्शक के दिमाग़ में कोई ‘मेमोरी फ्लैग’ नहीं छोड़ पातीं. हालांकि काम उनका अच्छा है.

मेधा शंकर की आमद श्रद्धा जोशी के किरदार से पर्दे पर पहली बार हुई है

अनंत जोशी ने प्रीतम पांडे के तौर पर ये साबित किया है कि वो फिल्म मेकर्स के थोड़े और ध्यान के हक़दार हैं. ‘कटहल’ में अनंत ने पहली बार दर्शकों का ध्यान अपनी तरफ खींचा था. तबसे अनंत दर्शकों के ध्यान में तो हैं, लेकिन मेकर्स उन पर और ध्यान दे लें तो उनकी बात बनी-बनी समझें.  

आपको ध्यान होगा कि हमने इस आर्टिकल के शुरुआती हिस्से में आवाज़ों के लिए विधु विनोद चोपड़ा की दीवानगी पर बात की थी. आवाज़ के जादू का ख़याल विधु ने सिर्फ दर्शकों के कानों के लिए ही नहीं, बल्कि आंखों के लिए भी किया है. कोचिंग क्लास में पोडियम के पीछे यूपीएससी एस्पिरेंट्स के लिए टीचर और देश भर के हिंदी भाषी नॉन-एस्पिरेंट लोगों के लिए अपनी-अपनी सुविधा-औ-स्वाद अनुसार मोटिवेटर, फिलॉसफर, लाइफ कोच, करियर काउंसलर... विकास दिव्यकीर्ति अपने ही किरदार में नज़र आते हैं. ज़मीनी और आभासी दोनों स्तर पर बराबर मशहूर विकास अपने बेहद शांत अंदाज़ में विषय को सरल तरीके से समझाने के लिए जाने जाते हैं.

12th फेल के जरिए विकास दिव्यकीर्ति का फिल्म डेब्यू

इसी समझाइश के बीच में उनकी ‘आउट ऑफ कोर्स’ बातें, सलाहें, मज़ाक वगैरह बतौर क्लिप कटकर परिवारों के फैमिली व्हाट्सअप ग्रुप्स से लेकर ‘जीना इसी का नाम है’ टाइप्स अनगिनत यूट्यूब चैनलों पर देखा-दिखाया जाता है. दिव्यकीर्ति का क़िरदार विधु किसी से भी करवा सकते थे. लेकिन चम्बल से दिल्ली तक मनोज के साथ संभावनाओं, आशंकाओं में डूबते उतराते दर्शक को थोड़ी देर के लिए ही सही लेकिन एक ‘ओके टेस्टेड’ सौम्य, शांत और सम्यक आवाज़ सुनाई दे, इससे बेहतर क्या होता. ये विधु की तरफ से अपने दर्शकों को सरप्राइज़ गिफ्ट है. जैसे ननिहाल से चलते-चलते नानी किसी बच्चे की मुट्ठी में एक नोट पकड़ा देती थी. 

तीसरी आंख

फिल्म की सिनेमेटोग्राफ़ी अच्छी से कमाल के बीच झूलती है. सिनेमेटोग्राफ़र रंगराजन इससे पहले भी विधु विनोद चोपड़ा के साथ ‘शिकारा’ में काम कर चुके हैं. दोनों के बीच का कम्फर्ट स्क्रीन पर भी दिखाई देता है. चम्बल के विशाल कैनवास से कैमरा जब मनोज के साथ दिल्ली के मुखर्जी नगर आता है तब भी रंग, रौशनी और भीड़ के बीच खेलता रहता है. मुखर्जी नगर में फिल्माए बड़े हिस्से ने ज़ाहिर तौर पर रंगराजन को प्रयोग के बहुत मौक़े नहीं दिए. चम्बल के कम रौशनी वाले सीन अलबत्ता बहुत बढ़िया बन पड़े हैं.  

कुल मिलाकर

समय और पैसा बचाने का बहाना इंसान खोजता ही रहता है. लेकिन इस फिल्म की कसी हुई लिखावट, अव्वल दर्जे की अदाकारी, धारदार निर्देशन और शानदार कहानी, आपको ये मौक़ा नहीं देते कि आप इस फ़िल्म से चूक जाएं. इस तरह की फिल्म बताती है कि ख़र्च और निवेश में अंतर होता है. फिल्म देखकर लौटते हुए आपकी जेब भरी हो न हो, मन भरा रहेगा.

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