जब राकेश शर्मा अपने साथ राजघाट की मिट्टी और आलू-छोले लेकर अंतरिक्ष में पहुंचे...

तीन अप्रैल 1984 को राकेश शर्मा सोवियत रॉकेट सोयूज टी-11 से अंतरिक्ष में पहुंचे थे. इस यात्रा ने भारत को पहला कॉस्मोनॉट ही नहीं दिया बल्कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति और भारतीय विज्ञान के लिहाज से भी इसकी काफी अहमियत थी

राकेश शर्मा
राकेश शर्मा

"मेरे हिसाब से किसी दिन यह संभव होगा कि सोवियत और भारतीय अंतरिक्ष यात्री एक साथ अंतरिक्ष के अंधेरे कमरों का दरवाज़ा खोलेंगे." ये बातें 1961 में यूरी गागरिन ने दिल्ली में कही थीं, जब प्रधानमंत्री नेहरू ने उनका स्वागत देश की राजधानी में किया था.

स्पेस में जाने वाले दुनिया के पहले व्यक्ति ने ये बातें कहीं और इसके ठीक 21 साल बाद उन्हीं के नाम पर बने स्पेस ट्रेनिंग सेंटर में दो भारतीय नौजवान दाखिल हो चुके थे. नाम था - रवीश मल्होत्रा और राकेश शर्मा.

राकेश शर्मा (बाएं) और रवीश मल्होत्रा/इंडिया टुडे मैगजीन

मगर कहानी थोड़ी और पहले शुरू होती है. 1980 में जब सोवियत संघ (अब रूस) के राष्ट्रपति लियोनिद ब्रेझनेव भारत आए तो उन्होंने एक इंडो-सोवियत मानव अंतरिक्ष मिशन का आईडिया दिया. भारत ने बिना संकोच किए इस प्रस्ताव पर हामी भरी और 1.7 करोड़ रुपए इस मिशन के लिए अलग कर दिए. प्रोजेक्ट को नाम दिया गया - पवन.

अंतरिक्ष में भेजे जाने के लिए भारतीय वायु सेना को दो उम्मीदवारों का चयन करने के लिए कहा गया था. शर्त यह थी कि ऐसे लोग चाहिए जो सुपरसोनिक लड़ाकू विमान को ऐसे उड़ा सकें मानो मोहल्ले में कोई शोहदा साइकिल चलाता हो. इसके अलावा शारीरिक फिटनेस तो एक पैमाना था ही. 150 लोगों को अच्छी तरह से परखने के बाद जो दो नाम उभरकर सामने आए, वो थे 40 वर्षीय विंग कमांडर रवीश मल्होत्रा ​​और 35 वर्षीय स्क्वाड्रन लीडर राकेश शर्मा.

30 अप्रैल, 1984 के इंडिया टुडे मैगजीन के अंक में राज चेंगप्पा (फ़िलहाल इंडिया टुडे के ग्रुप एडिटोरियल डायरेक्टर) ने इसपर एक विस्तृत रिपोर्ट की थी. वे बताते हैं, "मल्होत्रा ​​का जन्म लाहौर में हुआ और उन्होंने अपनी पढ़ाई कलकत्ता में पूरी की. उनके पास 3,400 घंटे से अधिक विमान उड़ाने का अनुभव था. वहीं पटियाला में जन्मे शर्मा ने 1970 में वायु सेना में शामिल होने से पहले अपनी ज्यादातर पढ़ाई हैदराबाद में की. उन्होंने भी लगभग 1,600 घंटे की उड़ान भरी थी. इतना ही नहीं, दोनों ने 1971 के बांग्लादेश युद्ध में कई मिशनों को भी अंजाम दिया था."

1984 में राकेश शर्मा के ऊपर इंडिया टुडे मैगजीन का कवर

आख़िरकार चयन प्रक्रिया पूरी हुई और रवीश और राकेश यूरी गागरिन ट्रेनिंग सेंटर पहुंच गए. ट्रेनिंग में उन्हें स्पेस टेक्नोलॉजी के साथ ही अंतरिक्ष यान के जमीनी मॉडल के बारे में पढ़ाया गया. इसके अलावा उन्हें अंतरिक्ष में वेटलेसनेस या भारहीनता का अहसास करवाने के लिए थोड़ा अलग ढंग से बने आईएल-76 विमान में उड़ाया गया. इस विमान की खासियत यह थी कि इसमें कुछ समय के लिए जीरो ग्रेविटी को महसूस किया जा सकता था ताकि भावी एस्ट्रोनॉट्स को अंतरिक्ष में जाने के लिए शारीरिक और मानसिक रूप से तैयार किया जा सके.

इस बीच रवीश और राकेश की जबरदस्त दोस्ती हो गई. इंडिया टुडे की 1984 की रिपोर्ट के मुताबिक, ट्रेनिंग सेंटर के निदेशक जनरल जॉर्जी बेरेगोवोई ने बताया कि दोनों भारतीयों के बीच सिर्फ एक ही बात का कॉम्पटीशन था और वो यह कि दोनों ट्रेनिंग में एक-दूसरे से बेहतर होना चाहते थे. आखिर वह दिन आ ही गया जब दोनों में से केवल एक ही अंतरिक्ष में जाने के लिए चुना गया. ट्रेनिंग के दौरान उतने ही धारदार रहे रवीश को जैसे ही यह पता चला कि राकेश शर्मा अगले दिन अंतरिक्ष की उड़ान भरेंगे, वे बिना किसी द्वेष के एक सच्चे दोस्त की तरह उन्हें तैयार करने में लग गए. रिपोर्ट में रवीश मल्होत्रा का कथन पढ़ने लायक है. उन्होंने कहा, "चाहे शर्मा हों या मैं, आखिरकार वो एक भारतीय है जो अंतरिक्ष में जा रहा है."

जनरल बेरेगोवोई ने भी कहा, "हालांकि उन्होंने उड़ान नहीं भरी, लेकिन मल्होत्रा ​​100 प्रतिशत अंतरिक्ष यात्री हैं. यदि भारत सरकार 'स्पेस हीरो' (राकेश शर्मा) को पदक से सम्मानित करती है तो दोनों को यह मिलना चाहिए."

अब मिशन पर जाने का वक्त था. कुल तीन लोग चुने गए - सोवियत के यूरी मालिशेव और गेन्नेडी स्ट्रेकालोव, और भारत से राकेश शर्मा. किसी भी शुभ काम से पहले हर जगह के कुछ अपने रिवाज़ होते हैं. सोवियत रिवाज़ के तहत पहले राकेश शर्मा दूसरे अंतरिक्ष यात्रियों के साथ यूरी गागरिन के अध्ययन कक्ष में गए और वहां एक डायरी पर साइन किए. ऐसा हर मानव मिशन से पहले सोवियत संघ में किया जाता था. मगर रवीश और राकेश एक और रिवाज का हिस्सा बने, 3 अप्रैल को लॉन्च के लिए बैकानूर (आज के कजाखस्तान) जाने से पहले उनकी पत्नियों ने वहीं मास्को में उनके माथे पर तिलक लगाया.

मॉस्को में अपनी पत्नियों के भारतीय और सोवियत अंतरिक्ष यात्री/इंडिया टुडे मैगजीन

लॉन्च से कुछ ढाई घंटे पहले राकेश शर्मा अपने दोनों सोवियत साथियों के साथ अलविदा कहने के लिए अपने बर्फ सरीखे उजले स्पेस सूट में बाहर निकले. फ्लाइट के कमांडर मालिशेव ने कहा, "हम मिशन को पूरा करने के लिए तैयार हैं." फिर बिना पीछे देखे, क्रू उनकी लिफ्ट को ऊपर ले गया, और सोयूज टी-11 अंतरिक्ष यान में सभी 'कॉस्मोनॉट्स' सवार हो गए. लॉन्चिंग पैड से कुछ तीन किलोमीटर दूर, सोवियत के हंसिया और हथौड़े वाले लाल झंडे के साथ भारतीय तिरंगा लहरा रहा था, और 2000 किलोमीटर दूर भारतवासी टीवी पर इस घटना के साक्षी बनने के लिए तैनात थे. दो घंटे बाद इंजन शुरू हुआ और 3 अप्रैल की तारीख हमेशा के लिए भारतीय इतिहास में दर्ज हो गई.

अंतरिक्ष यात्रा पर जाने से पहले अलविदा कहते राकेश शर्मा और बाकी दोनों कॉस्मोनॉट्स(बाएं); सोयुज टी-11

ध्वनि की गति से 24 गुना अधिक तेजी से यात्रा करते हुए अंतरिक्ष यान कुछ ही सेकंड में आकाश में गायब हो गया और अपने पीछे केवल सफेद धुएं का एक सुराग छोड़ गया. इंडिया टुडे में 1984 में छपी राज चेंगप्पा की रिपोर्ट के मुताबिक, राकेश शर्मा की पत्नी मधु और नौ साल का बेटा कपिल मॉस्को के पास स्टार सिटी में एक अपार्टमेंट की तेरहवीं मंजिल पर, अपने फ्लैट में रंगीन टीवी पर अंतरिक्ष यान को उत्सुकता से देख रहे थे. इधर हैदराबाद के एक फ्लैट में, शर्मा के बूढ़े माता-पिता, तृप्ता और देवेन्द्रनाथ, भी टीवी पर सीधा प्रसारण देख रहे थे.

गुरुत्वाकर्षण के खिलाफ तेज गति से अंतरिक्ष में जा रहे रॉकेट में राकेश शर्मा को अपने सीने में थोड़ा भारीपन महसूस हो रहा था, मगर जैसे ही धरती से रॉकेट की दूरी 200 किलोमीटर हुई, इस भारतीय कॉस्मोनॉट के सीने से बोझ उतर गया. इसके साथ ही राकेश शर्मा अंतरिक्ष में जाने वाले दुनिया के 138वें और भारत के पहले व्यक्ति बन चुके थे.

शर्मा की उड़ान ने सोवियत संघ और भारतीय सरकार के बीच संबंधों को और मजबूत किया और दोनों ओर के नेता बार-बार यही दोहराने लगे थे कि यह यात्रा दोनों देशों के बीच शांति और दोस्ती को बढ़ावा देगी. तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पहले तो सोवियत स्पेस स्टेशन सैल्यूट-7 पर पहुंच चुके राकेश शर्मा से बात की, जिसकी फुटेज आज भी इंटनरेट पर वायरल होती है. इसी बातचीत के दौरान प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के यह पूछे जाने पर कि अंतरिक्ष से भारत कैसा लगता है, राकेश शर्मा ने जवाब दिया था - "सारे जहां से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा!" इसके बाद नई दिल्ली में प्रधानमंत्री ने मीडिया से कहा कि यह उड़ान भारत-सोवियत संबंधों में एक 'नया आयाम' जोड़ेगी. आगे उनका यह भी कहना था, "भारत-सोवियत दोस्ती अब अंतरिक्ष में पहुंच गई है."

राकेश शर्मा अंतरिक्ष यान सोयूज टी-11 के सहारे अब सोवियत स्पेस स्टेशन सैल्यूट-7 में पहुंच चुके थे. भले ही यह राकेश शर्मा के लिए किसी स्पेस स्टेशन का पहला अनुभव था मगर उन्होंने अपने साथियों को जरा भी यह महसूस नहीं होने दिया कि यह स्टेशन उनके लिए कोई नई जगह है. अपनी जबरदस्त ट्रेनिंग के दम पर कुछ ही समय में राकेश शर्मा ने स्पेस स्टेशन की हर बारीकी समझ ली. सिर्फ इतना ही नहीं हर दिन समय निकलकर वे कम से कम दस मिनट भारतीय दर्शकों के लिए वीडियो भी रिकॉर्ड कर लेते थे जिसमें स्पेस स्टेशन में कहां क्या है, और किस तरह कॉस्मोनॉट वहां रहते हैं, इसका पूरा ब्यौरा दिया करते थे. भारत में इन फुटेज को दिखाने के लिए विशेष प्रसारण की व्यवस्था की गई थी. भारत में बैठे दर्शकों को ऐसा लग रहा था मानो उनका कोई भाई या दोस्त किसी दूसरे देश के बारे में अपने गांववालों को बता रहा है.

सैल्यूट ऑर्बिटल स्टेशन में राकेश शर्मा (दाएं) के साथ बाकी के कॉस्मोनॉट्स/इंडिया टुडे मैगजीन

हरे रंग के कपड़ों में शर्मा कभी एक बच्चे के उत्साह के साथ तो कभी एक वैज्ञानिक की तरह स्पेस स्टेशन गैजेट्स, वहां होने वाले एक्सपेरिमेंट्स, खाने और सोने के लिए बने क्वार्टरों के बारे में बताते थे. राज चेंगप्पा अपनी रिपोर्ट में बताते हैं कि अपनी सधी हुई हिंदी को बीच-बीच में अंग्रेजी के शब्दों के साथ जोड़ते हुए राकेश शर्मा अक्सर एक या दो चुटकुलों के साथ तैयार रहते थे. अंतरिक्ष यात्रियों के बारे में भारहीन रूप से तैरती चीजों की ओर इशारा करते हुए, शर्मा ने एक बार मजाक में कहा, "यदि आप चीजों को पट्टियों से बांध कर नहीं रखते, तो वे बस उड़ती हैं और अंत में हम उन्हें आधे घंटे बाद एग्जॉस्ट फैन में फंसा हुआ पाते हैं." अपनी बात समझाने के लिए, शर्मा ने अपने साथी किज़िम से एक कैमरा देने के लिए कहा - जिसे किज़िम ने उनकी ओर बढ़ाया और वह धीरे से राकेश शर्मा के हाथों में चला गया.

राकेश शर्मा ने अपने वीडियोज में बताया कि स्पेस स्टेशन में खाना पेस्ट के रूप में खाया जाता था और पहली बार रूसियों ने अंतरिक्ष में उनके द्वारा लाया गया भारतीय खाना खाया, जो विशेष रूप से मैसूर में डिफेन्स फूड रिसर्च लेबोरेटरी द्वारा तैयार किया गया था. इनमें सब्जी पुलाव, आलू छोले और सूजी का हलवा जैसे व्यंजन शामिल थे. लेकिन इन सभी को छोटे रोल में बनाया गया और सिलोफ़न पेपर में लपेटा गया क्योंकि बोर्ड पर टेबल सेट करना असंभव होता है.

दिलचस्प है कि भोजन के अलावा राकेश शर्मा अपने साथ इंदिरा गांधी, राष्ट्रपति जैल सिंह, रक्षा मंत्री वेंकटरमन की तस्वीरें और गांधी के समाधि स्थल राजघाट से थोड़ी मिट्टी भी ले गए थे. भारतीय तिरंगे के साथ ये स्मृति चिह्न सैल्यूट स्टेशन की दीवारों पर सजे हुए थे. इससे पहले जब एयर चीफ मार्शल दिलबाग सिंह ने उनसे बात की तो शर्मा ने गर्व से कहा, "सर, भारतीय वायुसेना के लिए आसमान अब कोई सीमा नहीं है."

आप सोच रहे होंगे कि वहां सब अच्छा-अच्छा ही था या कोई गड़बड़ी भी हुई होगी. राकेश शर्मा की पूरी अंतरिक्ष यात्रा के दौरान बस एक गड़बड़ी हुई थी और वो यह कि स्पेस स्टेशन की फर्नेस यानि भट्ठी ख़राब हो गई थी. हालांकि इस दौरान स्पेस स्टेशन में मौजूद सभी साथियों ने मिलकर इसे ठीक कर दिया था और राकेश शर्मा का समर्पण देखकर सभी साथियों ने उनकी बहुत तारीफ की थी.

ऊपर अंतरिक्ष से भारत को देखने के राकेश शर्मा के अनुभव को राज चेंगप्पा ने अपनी रिपोर्ट में बखूबी कैद किया है. वे लिखते हैं, "भारत के ऊपर से गुजरते हुए, शर्मा ने खूब खुश होते हुए कहा - जैसे-जैसे हम दक्षिण से उत्तर की ओर बढ़े, समुद्र का नीला रंग मैदानों के हरे रंग में विलीन हो गया और मध्य भारत का दृश्य भूरा हो गया और हिमालय की बर्फीली चोटियां मिलाकर एक शानदार सुंदर दृश्य में बदल गया. उन्होंने (राकेश शर्मा) ने बाद में सोचा - 'यहां से कोई सीमा नहीं है. पूरा ग्रह एक है. यह समझना मुश्किल है कि दुनिया में इतना तनाव क्यों है. यहां ऊपर से सब कुछ कितना शांत दिखता है.' वास्तव में शर्मा अंतरिक्ष यात्रा के वंडरलैंड में ऐलिस की तरह थे."

यह एक एक सवाल सहज ही उठता है कि राकेश शर्मा ने अंतरिक्ष में जाकर किया क्या? दरअसल अलग-अलग एक्सपेरिमेंट्स के अलावा एक चीज उन्होंने की वो थी तस्वीरें लेना. एक विशेष मल्टी-स्पेक्ट्रल कैमरों का उपयोग करते हुए शर्मा ने देश के 60 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र की तस्वीरें खींचीं, जिससे वैज्ञानिकों को देश के प्राकृतिक संसाधनों का मानचित्रण और अध्ययन करने में भी मदद मिली. उन्होंने जो तस्वीरें ली थीं उसकी वजह से भारत को उसी क्षेत्र की मैपिंग करने के लिए जरूरी दो साल की हवाई फोटोग्राफी की बचत हुई. राकेश शर्मा के कैमरे इतने शक्तिशाली थे कि उन्होंने पर्वतारोहियों के एक समूह को माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने की कोशिश करते हुए देखा. इसके अलावा उन्होंने मध्य बर्मा (अब म्यांमार) में 30 वर्ग किमी से अधिक क्षेत्र में फैली भीषण जंगल की आग देखी और इसकी सूचना मिशन नियंत्रण केंद्र को दी. वहां की सरकार को तुरंत इसके बारे में सूचित किया गया.

तारीख थी 11 अप्रैल, 1984 और अब चला-चली की बेला आ चुकी थी. राकेश शर्मा और उनके दोनों सोवियत अंतरिक्ष साथी ने स्पेस स्टेशन में पहले से मौजूद लोगों के लिए सोयूज टी-11 (जिससे वे ऊपर आए थे) को वहीं छोड़, पुराने मॉड्यूल टी-10 से वापस धरती की ओर लौट चले. उनका यान सुरक्षित उसी दिन धरती पर लौट आया. लौटते ही सबसे पहले राकेश शर्मा को मेडिकल चेकअप के लिए ले जाया जाने लगा लेकिन तभी उन्होंने कहा, "वापस आकर बहुत अच्छा लग रहा है. हमारा लौटना मुश्किल लेकिन आरामदायक था."

सुरक्षित लैंडिंग के बाद तीनों अंतरिक्ष यात्रियों को भारत सरकार ने अशोक चक्र दिया गया और सोवियत ने तो राकेश शर्मा को 'सोवियत संघ का हीरो' बना दिया. लेकिन एक वादा था जिसे पूरा किया जाना था. राकेश शर्मा के साथ ही उनके साथी रवीश मल्होत्रा ​​को भी कीर्ति चक्र से सम्मानित किया गया. सैल्यूट-7 स्पेस स्टेशन पर एक सप्ताह रहने के दौरान, राकेश शर्मा ने कई अध्ययन और प्रयोग शुरू किए जो भारतीय वैज्ञानिकों के लिए भविष्य की रिसर्च में बहुत काम आए. 5 मई को जब भारत का अंतरिक्ष नायक राकेश शर्मा अपने वतन लौटा तो किसी को भी उससे शिकायत नहीं थी. इतिहास रचकर, देश का बेटा घर आ चुका था.

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