कारगिल युद्ध के बाद मिले ये दस्तावेज भारत-पाक जंग की कौन-सी नई कहानी बताते हैं?
कारगिल जंग जीते जाने के बाद दुश्मन सैनिकों के पास से बरामद दस्तावेज सालों तक भारत सरकार की अलमारियों में बंद रहे. इंडिया टुडे ने 2019 में इनके आधार पर एक कवर स्टोरी प्रकाशित की थी

कारगिल की 1999 में जीती गई जंग के मौके पर भारत सरकार 26 जुलाई को विजय दिवस मनाएगी. ऐसे में कुछ चौंकाने वाले खुलासों के बारे में जानना जरूरी है जो कारगिल जंग के बाद हुए थे.
इनमें जहां पाकिस्तान के नापाक इरादों की पोल-पट्टी खुलती नजर आती है तो वहीं भारत की ख़ुफ़िया चूक भी जाहिर होती है. दुश्मन के सैनिकों के शवों से बरामद दस्तावेज कारगिल की एक नई ही कहानी कहते हैं.
कारगिल जंग जीते जाने के बाद दुश्मन सैनिकों के पास से बरामद दस्तावेज सालों तक भारत सरकार की अलमारियों में बंद रहे. इनमें पाकिस्तानी सेना की पे-बुक, सैनिकों के अपने परिजनों को लिखे खत जो पोस्ट नहीं किए जा सके, पत्नियों और बच्चों की तस्वीरें, व्यक्तिगत बटुए, मेस बिल, मेस की संपत्ति का हैंडओवर-टेकओवर दस्तावेज और कम्युनिकेशन में इस्तेमाल होने वाले गुप्त शब्दों की सूची, पासवर्ड, इंच मैप, मोर्टार और आर्टिलरी यूनिट्स की टास्क टेबल, मनीऑर्डर फॉर्म और व्यक्तिगत डायरी आदि शामिल थे.
इनमें से कई सरकारी विभाग के 'नॉट टू गो आउट' या एनजीओ सेक्शन में थे. ये दस्तावेज़ उस कारगिल समीक्षा समिति के गोपनीय खंड का हिस्सा हैं जिसे इस जंग से भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भविष्य में काम आने वाले सबक खोजने की जिम्मेदारी दी गई थी. 2019 में इंडिया टुडे इनमें से कुछ दस्तावेज़ों की प्रतियां हासिल करने में सफल रहा था जिन्हें सेना ने 25 साल पहले इकट्ठा किया था.
17 जुलाई 2019 को इंडिया टुडे मैगजीन ने इन्हीं दस्तावेजों के आधार पर कवर स्टोरी छापी थी जिसमें पाकिस्तानी फौज के दुर्भाग्य की कहानी के साथ भारत की खुफिया चूक की बानगी भी सामने आई थी. संदीप उन्नीथन अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं, "भारतीय सेना को बंकरों और छोटी खाइयों में 200 से अधिक उन पाकिस्तानी सैनिकों के शव मिले जो शायद भारतीय सेना की होवित्जर तोपों की भारी गोलाबारी में मारे गए थे. भारतीय सैनिकों को मारे गए दुश्मन के सैनिकों की जेबों और बैग की तलाशी में ऐसे दस्तावेज मिले जिनसे राष्ट्रीय राजमार्ग 1ए पर नजर गड़ाकर संगरों में छिपकर बैठे दुश्मनों की ठीक शिनाख्त की जा सकी. यह राजमार्ग कश्मीर घाटी को जम्मू और शेष भारत से जोड़ता है."
इस रिपोर्ट में दर्ज है कि भारतीय सेना के एक अधिकारी, जो चोटियों पर कब्जा करने वाली एक गुप्त इकाई से जुड़े थे, ने कहा था कि वे 'बिल्कुल हमारे जैसे' थे. अभिशप्त पाकिस्तानी सेना ने इसे ऑपरेशन कोह पैमा (पर्वतारोही) या ऑप केपी का कोड नाम दिया था.
कारगिल जंग की शुरुआत 3 मई 1999 को मिली एक सूचना से हुई जिसमें देश की सीमाओं के अंदर घुसपैठियों के होने की बात थी. यह सूचना भारतीय सेना को चरवाहों ने दी थी. इस जंग के एक साल पहले ही भारत और पाकिस्तान दोनों ने परमाणु हथियारों का परीक्षण किया था और तब तक किन्हीं भी दो परमाणु-शक्ति संपन्न देशों ने युद्ध नहीं किया था.
इसी बीच पाकिस्तान के तत्कालीन सेना प्रमुख परवेज मुशर्रफ को सूझी कि क्यों ना एलओसी के पास स्थित उन भारतीय चौकियों पर कब्जा जमा लिया जाए जिन्हें भारतीय सेना सर्दियों में खाली करके चली जाती है. दरअसल हजारों फुट पर स्थित एलओसी सर्दियों में जानलेवा हो जाती है और 90 के दशक तक भारतीय सेना भी वैसी तकनीक का इस्तेमाल नहीं करती थी, जिससे इन कातिल सर्दियों में दुश्मन का मुकाबला किया जा सके.
संदीप अपनी रिपोर्ट में बताते हैं कि मुशर्रफ का यह 'अनोखा' प्लान पाकिस्तान के जनरल हेडक्वार्टर में कई वर्षों से धूल फांक रहा था. इसके बारे में मुशर्रफ को पहले से काफी कुछ जानकारी इसलिए थी क्योंकि वे एक बार डायरेक्टर जनरल मिलिट्री ऑपरेशंस (डीजीएमओ) रह चुके थे.
एलओसी पर भारी बर्फबारी होती है और 10-40 फुट तक मोटी बर्फ की परत जम जाती है जिसके कारण भारतीय सेना के लिए पोस्ट पर रहना मुश्किल हो जाता है. इसलिए सेना अक्टूबर में इन पोस्ट को खाली कर देती थी और बर्फ पिघलने के बाद मई में यहां वापस आती थी. ऑप केपी में योजना बनाई गई कि एलओसी की उन खाली पोस्टों पर पाकिस्तानी सेना के अर्धसैनिक बल एनएलआई (नदर्न लाइट इन्फेंट्री) का उपयोग करके कब्जा जमा लिया जाए.
पाकिस्तानी सेना के इन जवानों ने मुजाहिदीन की तरह ही सलवार-कमीज पहनी थी. सेना के तत्कालीन उप-प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल चंद्रशेखर ने इंडिया टुडे को बताया, "मई के शुरुआती हफ्तों में, हमें लगा कि हम मुजाहिदीन से लड़ रहे हैं. हमने जो रेडियो संदेश पकड़े वे पश्तो, बल्ती और अन्य स्थानीय भाषाओं में थे."
हमारी सेना को इस बात की पक्की जानकारी भी नहीं थी कि घुसपैठ करने वाले लोग कौन हैं, कितनी तादाद में हैं. हालांकि जून की शुरुआत में ही यह साफ हो गया था कि यह एक बड़ी घुसपैठ है और घुसपैठियों ने अस्थाई मोर्चे तैयार कर लिए हैं. 6 जून को सेना ने कारगिल में बड़ा हमला किया और बटालिक में दो प्रमुख पोस्ट पर फिर से कब्जा कर लिया.
संदीप उन्नीथन अपनी रिपोर्ट में इस बात का जिक्र करते हैं कि इस वक्त तक भारत में खुफिया विफलता का एहसास होने लगा था. कारगिल अभियान में शामिल एक अनुभवी अधिकारी ने आश्चर्य और अविश्वास के भाव से बताया था, "वे सब एक झील के पार बैठे थे...एक पूरी पाकिस्तानी ब्रिगेड झील के उस पार खड़ी थी और हमें वे कैसे नजर नहीं आए?"
इंडिया टुडे की 2019 की कवर स्टोरी में तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल वी.पी. मलिक का बयान दर्ज है जिसमें वे कहते हैं, "पाकिस्तानी सेना का मुजाहिदीन मुखौटा 1999 के जून मध्य तक सफल रहा क्योंकि जंग से पहले तक सेना के शामिल होने की कोई खुफिया रिपोर्ट नहीं आई थी. सभी खुफिया एजेंसियां अपनी शुरुआती रिपोर्ट में मुजाहिदीन आतंकी कैंपों और गुलाम कश्मीर में उनके जमावड़े पर ध्यान दे रही थीं. गलत सूचना देने की पाकिस्तान की ये योजना (इलेक्ट्रॉनिक डिसेप्शन प्लान) सफल रही."
तब जनरल का यह भी कहना था, "हमारी खुफिया एजेंसियां, यहां तक कि मोर्चे पर सैनिक भी यही मान रहे थे. मेरा तर्क था कि मुजाहिदीन इतनी देर टिक नहीं सकते या तोप का प्रयोग नहीं करते पर सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी (सीसीएस) को इससे सहमत नहीं करा सका. शायद यही कारण था कि सीसीएस ने कारगिल को 'युद्ध' घोषित नहीं किया और एलओसी पार करने की अनुमति नहीं दी." सरकार तब मानी जब तोलोलिंग पर कब्जे (13 जून) के बाद पाकिस्तानी सेना का हाथ होने के ठोस सबूत मिले. वहां से पाकिस्तानी सेना के नियमित हथियार और उपकरण ही नहीं मिले बल्कि सैनिकों की पे बुक, मूवमेंट ऑर्डर और सिग्नल कोड बुक भी हाथ लगे.
संदीप उन्नीथन अपनी 2019 की रिपोर्ट में लिखते हैं, "ऑप केपी पाकिस्तान का गुपचुप तरीके से कारगिल की पहाडिय़ों को अपने कब्जे में लेने का अभियान था पर इसने अपने पीछे दस्तावेजों का ऐसा अंबार छोड़ा जिसने उसकी कलई खोल दी. उसमें भारी मात्रा में ऐसी सामग्री भी थी जिससे एक आम औपनिवेशिक मूल वाली दोनों ओर की सेनाएं परिचित थीं. उनकी गौर से छानबीन की जाए, तो उनमें से कई ऐसे सुराग मिलते हैं जो नजर से छूट गए."
इसका उदाहरण देते हुए उन्होंने आगे बताया कि बटालिक सेक्टर से बरामद ऑफिसर्स मेस प्रॉपर्टी के हैंडिंग/टेकिंग ओवर पेपर को ही लें, जहां 5 एनएलआई लड़ रही थी. बटालियन ने पाकिस्तान की तरफ के एलओसी का एक बेस खाली कर दिया और बटालिक में भारतीय सीमा की तरफ बढ़ी. भारतीय खुफिया तंत्र इस हरकत को भांपने में पूरी तरह विफल रहा.
इसके अलावा बरामद की गई चीजों के बीच पाकिस्तान के नक्शे की प्रतियां भी थीं जिसमें भारत के हिस्से के एलओसी को पाकिस्तान में दिखाया गया था. इसने पाकिस्तानी सेना के शुरुआती दावों की पोल खोल दी कि वे केवल एलओसी के अपनी तरफ वाले हिस्से में ही अपनी सैन्य गतिविधियां चलाते थे.
जब 5 जुलाई को प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के साथ बैठक के बाद अपनी सेना को कारगिल की चोटियों से हटाने की घोषणा की तो पाकिस्तान सेना ने एनएलआई (नदर्न लाइट इन्फेंट्री) सैनिकों के शव लेने तक से इनकार कर दिया. पाकिस्तान फौज ने सिर्फ पांच शवों को स्वीकारा जिसमें 12-एनएलआई के कैप्टन करनाल शेर भी थे, जो कारगिल के गूल्टरी में मारे गए और उन्हें मरणोपरांत पाकिस्तान का सर्वोच्च सैन्य पुरस्कार निशान-ए-हैदर दिया गया.
कारगिल में जीत के दो दिन पहले 24 जुलाई को भारत सरकार ने के. सुब्रह्मण्यम की अध्यक्षता में कारगिल समीक्षा समिति (केआरसी) का गठन किया जिसके सदस्य लेफ्टिनेंट जनरल के.के. हजारी, बी.जी. वर्गीज और राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के सचिव सतीश चंद्रा थे. दिसंबर, 1999 में इस समिति ने सरकार को रिपोर्ट सौंपी थी. पाकिस्तान अभी-भी इनकार करता रहा है पर दुश्मनों के पास से मिले अहम दस्तावेजों की कड़ियों को जोड़कर उन घटनाओं का खाका तैयार किया गया जो इस अभियान के दौरान पाकिस्तान की ओर से हुई थीं.
मश्कोह सेक्टर में 12-एनएलआई के कैप्टन हुसैन अहमद की डायरी से मिली जानकारी बहुत अहम है. 12-एनएलआई ने फरवरी, 1999 में एलओसी को पार किया और इस बीच उनके कैंप को 25 फरवरी और 25 मार्च को दो हिमस्खलनों का सामना करना पड़ा जिसमें उन्होंने अपने 11 जवान और एक सिपाही गंवा दिया. मश्कोह घाटी में भारत की ओर से कम से कम आठ हवाई टोही मिशन की बात भी लिखी है, जो उनका पता लगाने में विफल रहे.
12 अप्रैल को दर्ज एक नोट कहता है, "मौसम सबसे क्रूरतम, सबसे कठोर और सबसे बुरा है. हम निराशा के चरम बिंदु पर हैं और हिम्मत जवाब दे रही है." और फिर पुख्ता सबूत का जिक्र आता है. ऑप केपी के षड्यंत्रकारी जनरल मुशर्रफ 28 मार्च को सेक्टर का दौरा करते हैं. वे इस रणनीति को "1984 के भारत के सियाचिन आक्रमण का जवाब" बताते हैं और 12-एनएलआई के मुजाहिदों के बीच मिठाई बांटने के लिए 8,000 रुपए देते हैं.
इंडिया टुडे की रिपोर्ट के मुताबिक, 2006 में जब मुशर्रफ ने अपना संस्मरण 'इन द लाइन ऑफ फायर' जारी किया तो उन्होंने सार्वजनिक रूप से अपनी सेना की भूमिका स्वीकार की और कारगिल में जीत का दावा किया. जुलाई 2004 में इंडिया टुडे से खास बातचीत में नवाज शरीफ ने कहा था, "कारगिल में मारे गए सैनिकों की तादाद 1965 और 1971 की जंग में मारे गए सैनिकों की कुल संख्या से भी ज्यादा थी." सऊदी अरब में तब अपने निर्वासन के दौरान शरीफ ने सत्ता में वापस आने पर इसकी जांच का वादा किया था. लेकिन उन्होंने ऐसा किया नहीं. नवंबर 2010 में मुशर्रफ के लंदन जाने के बाद फौज ने ऑप केपी में मरे 453 फौजियों की सूची अपलोड की.
इंडिया टुडे की 17 जुलाई, 2019 की कवर स्टोरी की दूसरी कड़ी में संदीप उन्नीथन हालिया स्थिति बयान करते हैं. वे कहते हैं, कारगिल जैसी घुसपैठ की पुनरावृत्ति की संभावना अब नहीं दिखती. लद्दाख क्षेत्र में अब सेना का बड़ा जमावड़ा है और नए तोपखाने तथा यहां तक कि युद्धक टैंक और बख्तरबंद गाड़ियों की भी भारी तैनाती है. 20 साल पहले इस क्षेत्र की निगरानी यहां तैनात रहने वाली एकमात्र बिग्रेड के हवाले हुआ करती थी. उसकी जगह अब यहां की जलवायु में पूरी तरह से अभ्यस्त तीन डिविजनों की एक पूरी आर्मी कोर ने ले ली है. अब सियाचिन जैसी स्थिति वाले इस इलाके में जहां बर्फीली हवाएं तापमान को शून्य से 30 डिग्री नीचे तक गिरा देती हैं, साल भर हजारों सैनिक पूरी मुस्तैदी के साथ तैनात रहते हैं.
इस भरोसे के साथ ही 2019 की यह रिपोर्ट एक चेतावनी भी देती है. इसके मुताबिक, "दो दशक बीत चुके हैं, कारगिल दुनिया की सबसे ऊंची रणभूमि का सिर्फ नाम भर नहीं है, यह भारत की रुकी हुई रक्षा आधुनिकीकरण प्रक्रिया का अप्रिय प्रतीक भी है. पहाड़ों में युद्ध लड़ने की प्रमुख तकनीकों को अभी शामिल किया जाना है." वेस्टर्न एयर कमान के पूर्व कमांडर, एयर मार्शल पी.एस. अहलुवालिया ने इंडिया टुडे को बताया था कि बीस साल बाद भी हम एलओसी या एलओएसी के भीतर 50 किलोमीटर तक चौबीसों घंटे निगरानी करने में असमर्थ हैं.
कारगिल समीक्षा समिति के मुताबिक, पिछले 52 वर्षों का सामान्य आकलन यह बताता है कि 'देश भाग्यशाली था जो उसने 1962 को छोड़कर, राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े सभी संकटों का मुकाबला बिना बहुत अधिक नुकसान उठाए कर लिया.' अब देश इस कामचलाऊ कार्यप्रणाली को बर्दाश्त नहीं कर सकता, इसलिए समिति ने राष्ट्रीय सुरक्षा प्रबंधन, निर्णय लेने की सर्वोच्च व्यवस्था और रक्षा मंत्रालय तथा सशस्त्र बल मुख्यालय के बीच इंटरफेस के गठन की सिफारिश की थी. 20 साल हो गए लेकिन यह प्रक्रिया अब तक शुरू नहीं हुई है.