नेहरू या जिन्ना, भारत के विभाजन का जिम्मेदार कौन?
15 अगस्त 2025 को भारत 79वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है. इस मौके पर एक बार फिर इस विवाद को समझने की कोशिश करते हैं कि देश के बंटवारे का असली जिम्मेदार कौन हैं? लेखक और इतिहासकार सुनील खिलनानी का यह आलेख इंडिया टुडे के 2 सितंबर 2009 के अंक में प्रकाशित हुआ था

भारत का विभाजन इतिहास की सबसे अनसुलझी कहानियों में से एक है, जो अभी तक चल रही है. क्या आपको पता है कि यह फैसला शिमला के वाइसरीगल लॉज में हुआ या कलकत्ता के किसी गली या नुक्कड़ पर? बॉम्बे के संवाददाता सम्मेलन में या फिर सिगार के धुंए से भरे ह्वाइट हॉल पार्लर में?
इस फैसले को लेने के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार कौन था? ब्रीफकेस हाथ में लिए बेदाग पोशाक पहनकर चलने वाला कोई वकील या धोती पहनने वाला कोई सनकी आध्यात्मिक नेता, अपनी कलम हाथ में लिए कोई उतावला नेता या फिर नक्शे और कंपास के साथ अक्सर दिखने वाला खुद अंग्रेज वॉयसराय?
देश के विभाजन से असल में सबसे ज्यादा किसे परेशानी हुई? यहां रहने वाले मुसलमान, सिख, किसी अन्य अल्पसंख्यक समुदाय को या फिर यहां के हिंदू बहुसंख्यकों को? चाहे जो भी हो या कोई भी हो, किसी न किसी को तो देश के बंटवारे के लिए जिम्मेदार ठहराया ही जाना चाहिए.
भारतीय इस सोच के साथ पले-बढ़े हैं कि देश के बंटवारे के लिए एक ही आदमी जिम्मेदार था, मोहम्मद अली जिन्ना, एक दुष्ट घुसपैठिया या कहें एक जोकर, जिसने भारत के इतिहास को उसकी नियति, अखंडता से अगवा कर लिया था.
जिन्ना का विरूप चित्र विडंबनापूर्ण है, इसलिए कि इस शख्स के बारे में सबसे अहम बात उसकी नीयत है और मान्यताओं के बारे में अबूझपन. उनके सरपरस्त-महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, लुइस माउंटबेटन-सभी बेबाक लेखक और अनथक स्वीकारोक्ति करने वाले नेता थे. लेकिन जिन्ना अपने निशान छिपाए रहे.
उन्होंने कोई डायरी नहीं लिखी, खुलासा करने वाले कुछ ही पत्र लिखे. असल में इतिहासकारों ने उन्मुक्तता से जिन्ना की भूमिका की इस तरह से व्याख्या की थी कि उससे भारत और पाकिस्तान दोनों के मूल राष्ट्रीय मिथकों की हवा निकल गई.
तकरीबन 25 साल पहले कैंब्रिज के इतिहासकार अनिल सील की छात्रा और पाकिस्तान की विद्वान आयशा जलाल ने दावा किया कि जिन्ना का उद्देश्य प्रांतीय सरकारों, जिन पर मुसलमान अपना ज्यादा नियंत्रण पाने की उम्मीद कर सकते थे, के लिए ज्यादा स्वायत्तता हासिल करते हुए भारतीय मुसलमानों के हितों की रक्षा करना था.
जिन्ना मजबूत केंद्रीकृत राष्ट्र बनाने की कांग्रेस नेताओं की महत्वाकांक्षा से भयभीत थे, जो उनके मुताबिक हिंदू बहुसंख्यकों के हितों की नुमाइंदगी का दावा करने वाले लोगों के हाथों में जा सकता था और अंततः भारतीय मुसलमानों को अधिकारों से वंचित कर सकता था.
कांग्रेस के नेताओं और अंग्रेजों के साथ अपने राजनैतिक जोड़तोड़ में जिन्ना ने स्वतंत्र पाकिस्तान की मांग महज झांसे के तौर पर उठाई थी. यह महज बंदरघुड़की थी ताकि ज्यादा विकेंद्रीकृत व्यवस्था हासिल की जा सके जैसी कि वे चाहते थे. लेकिन वे मायूस हो गए जब उनकी यह बंदरघुड़की काम कर गई.
इस व्याख्या के मुताबिक, पाकिस्तान के गठन को मजबूती मुस्लिम लीग की तरफ से नहीं बल्कि उस कांग्रेस नेतृत्व की ओर से मिला, जो राज्य पर नियंत्रण हथियाने को लेकर खुले तौर पर अधीर हुआ जा रहा था.
उनके अपने आंदोलन को भीतर के सांप्रदायिक हिंदुओं का समर्थन मिला. (इस दबाव का एक निर्णायक स्त्रोत, जैसा कि इतिहासकार जोया चटर्जी भरोसे के साथ तर्क देती हैं कि बंगाल का भद्रलोक था, जो प्रांत के पूरब में स्थित गरीब और मुस्लिम बहुल जिलों को अलग करने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ था.)
हालांकि, जिन्ना और कांग्रेस के नेताओं जैसे नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल और गांधी की भूमिकाओं के बारे में ये विद्वतापूर्ण व्याख्याएं भारतीय व्यापक राजनैतिक धारणा को भेदने में असफल रहीं. ऐसा लगता है कि हमें अभी भी इस तरह उनके क्रिया-कलाप व्याख्याओं को लेकर अपने नायकों और खलनायकों के स्थापित देवालय ही भाते हैं.
और यह सिर्फ BJP की सुषमा स्वराज, मुरली मनोहर जोशी या RSS के राम माधव ही नहीं हैं, जो अपने संभ्रम में व्यवधान डालने के अनिच्छुक हैं बल्कि कांग्रेस भी अपने उपदेशात्मक मिथक से उत्साह से चिपके रहने को प्राथमिकता देती है.
इस वजह से हमें जिन्ना के संबंध में जसवंत सिंह के अध्ययन का स्वागत करना चाहिए, किसी राजनैतिक प्रतिष्ठान के सदस्य की ओर से हमारी बुनियादी धारणाओं के बारे में साहसी और असहज सवाल पूछने की यह पहली कोशिश है. और यह हमें आमंत्रित करती है कि हम बंटवारे के मिथकों के बारे में फिर से सोचें, न सिर्फ लोगों के क्रियाकलापों के बारे में बल्कि इस बारे में भी कि हिंदू, मुसलमान, सिखों की रूढ़ भातृहंता गाथा से परे बंटवारे का असल मतलब क्या रहा.
जिन्ना, पटेल का राजनैतिक तौर पर परिपक्व और ऐतिहासिक तौर पर ठीक-ठीक मूल्यांकन कर पाना समय से परे की बात हो गई है. खासकर इन दिग्गज राजनैतिक व्यक्तित्वों को जिस मुख्य ऐतिहासिक चुनौती का सामना करना पड़ा और जिसे वे अंशत: ही संभाल पाए और जिसका आधा-अधूरा ही समाधान कर पाए, इन सबके मानवीय मतभेदों को कैसे साधा जाए और सामाजिक विविधता को कैसे पनपाया जाए. इसका आकलन करना भी समय के परे की बात हो गई है और यह सवाल हमारे सामने आज भी मुंह बाए खड़ा है.
पुरानी कहानियों को दरकिनार करने के लिए हमें पहले भारतीय असाधारणवाद की मान्यता से बाहर निकलना होगा-कि किसी-न-किसी तरह हमारा इतिहास विशिष्ट रूप से परिभाषित हुआ, कह सकते हैं कि हिंदू-मुसलमानों के रिश्तों के चरित्र से.
इसमें दो बातें हैं: जिन्ना को भारतीय इतिहास में फिर से स्थापित करना और विश्व इतिहास के ढांचे में भारतीय इतिहास को फिर से स्थापित करना. भारत के विभाजन को दुनिया के संदर्भ से अलग करके नहीं समझा जा सकता: यह दौर आधुनिक इतिहास का सबसे उथलपुथल भरा, अनिश्चित और बेचैन कर देने वाला दौर था.
1930 और 40 के दशक के अंतिम वर्षों में यूरोप और एशिया में युद्ध छिड़ा हुआ था, साम्राज्य ढह रहे थे, देश जीते जा रहे थे. नए भौगोलिक अस्तित्वों की कल्पना की जा रही थी: एक हजार साल के जर्मन साम्राज्य से ग्रेटर पूर्वी एशियाई सह समृद्ध क्षेत्र, 1945 के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ और यूरोपीय समुदाय तक.
राष्ट्रवाद की छूत की बीमारी इस उथल-पुथल की वजह थी. राष्ट्रवाद का कमजोर पक्ष था-अल्पसंख्यकों की समस्या: सामाजिक और सांस्कृतिक मतभेदों से कैसे निपटा जाए? पारिभाषिक तौर पर साम्राज्यों ने सांस्कृतिक और सामाजिक तौर पर मिश्रित लोगों पर शासन किया; उनके भू-भाग धार्मिक या भाषायी पहचान से जुड़े नहीं थे बल्कि एक दबंग प्रतीक या सोच की निष्ठा से जुड़े थे.
साम्राज्यों के पतन या उनकी हार के बाद राष्ट्र-राज्य के फैलते मॉडल ने सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान का अपने भू-क्षेत्र से मेल कराने की कोशिश की. यह संक्रमण काफी खून-खराबे भरा रहा, जिसने जनसंहार, जातीय सफाई और विभाजन जेसे शब्दों को जन्म दिया.
दूसरे विश्व युद्ध के बाद अल्पसंख्यकों की समस्या से निपटने के लिए दो बड़े सिद्धांतों का उदय हुआ. पहले ने अल्पसंख्यक अधिकारों को सुरक्षित करने का सबसे भरोसेमंद तरीका निकाला-अपने खुद के भूक्षेत्र में देश का निर्माण, अपनी राष्ट्रीय भू-सीमा के भीतर अल्पसंख्यक बहुसंख्यक हो सकते थे.
दूसरे सिद्धांत के तहत राष्ट्रीय भूक्षेत्र में अल्पसंख्यकों की पहचान सुरक्षित रखने के लिए संवैधानिक, खास तौर पर मानवाधिकारों के अंतरराष्ट्रीय कानून को स्वीकार किया गया जो युद्ध के बाद के वर्षों में नया-नया अस्तित्व में आया था.
भारतीय उपमहाद्वीप में अल्पसंख्यकों की समस्याओं और ऐसे तरीकों के फायदों पर जोरदार बहस हुई. मिसाल के तौर पर डॉ. बी. आर. आंबेडकर ने 1940 के अपने उल्लेखनीय लेख 'पाकिस्तान आर द पार्टिशन ऑफ इंडिया' में यूरोप के लंबे इतिहास और सबसे हाल के तुर्की, ग्रीस और बुल्गारिया के उदाहरणों से बताया कि अल्पसंख्यकों का स्थानांतरण सांप्रदायिक शांति का एकमात्र स्थायी समाधान है.
इस तर्क से आंबेडकर 'दलितस्तान' के गठन की मांग को प्रेरित हुए. और 1942 में राजाजी कांग्रेस के पहले नेता थे जिन्होंने भारतीय मुसलमानों के अधिकारों को सुरक्षित किए रखने के तरीके पर पाकिस्तान के विचार की वैधानिकता स्वीकार की. 1943 में उन्होंने नेहरू, जिन्होंने इसे पूरी तरह से असहनीय विचार करार दिया, के गुस्से का सामना करते हुए कहा, ''अब जरूरत है क्षेत्रीय स्वनिर्णय के अधिकार को स्वीकार करने की.”
यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि उस समय भारत का व्यापक तौर पर कोई स्वीकृत विवरण न था, वह नक्शा जिसे उस समय उग्र जिन्ना, अधीर नेहरू या जिस किसी ने भी फाड़ दिया. इसकी बजाए भारत के भविष्य को भी लेकर काफी बहस थी कि इसका स्वरूप क्या होगा-एक परिसंघ, प्रांतों का समूह, एक भारतीय संघ, रजवाड़ों और अन्य राज्यों का मिश्रण, एक डोमिनियन (अधिगणराज्य) या एक गणराज्य.
यह स्वीकार करना कि साम्राज्यवादी शासन के तहत भारत का एकीकृत अस्तित्व था, ब्रिटिश उपनिवेशवाद के केंद्रीय मिथक को स्वीकार करने जैसा होगा. असल में 40 के दशक में भारतीयों के लिए भूगोल किसी भी स्वरूप में ऐसा न था, बल्कि इसे मानवीय फैसलों से आकार दिया जाना था. पहचान और सुरक्षा के लिए अल्पसंख्यकों (यहूदी, अरबी और फिलिस्तीनियों का मिसाल लें) के संघर्ष के साथ ही नक्शों को फिर से बनाने के लिए दुनिया भर में भी कोशिशें जारी थीं.
इस तरह भारत की विकट स्थिति को अनोखी की बजाए वैश्विक हिस्सा मानकर देखें. यह संदर्भ, जो इस मामले में अधिक स्थानीय स्वरूप का है, जिन्ना जैसे लोगों को बेहतर तरीके से समझने के लिए अहम है. यह एक तथ्य है कि जीवन में एक साल को छोड़कर बाकी दिनों जिन्ना भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण शख्सियत थे- हमारे ऐतिहासिक मंच पर एक नायक.
भारत की प्रगति के सहजता से घूमते पहिए को तोड़ने-फोड़ने के लिए वे ऊपर से से नहीं टपके थे. भारतीय इतिहास में उनको उनकी सही जगह देने से हम उन्हें आसानी से समझ सकते हैं-ऐसा नेता जो इस सवाल के साथ आंबेडकर, गांधी, नेहरू के साथ-साथ खुद भी जूझ रहा था कि मतभेद से कैसे निबटा जाए.
जिन्ना ने एक बार इच्छा जताई थी कि उन्हें 'मुस्लिम गोखले ' के तौर पर याद किया जाए, और जिन विचारों और चिंताओं ने उनको गढ़ा वे वही थीं जिनसे न केवल गोखले बल्कि सप्रू, गांधी, नेहरू, पटेल और आंबेडकर बने थे. इनमें से हर कोई इस समस्या के साथ अपने तरीके से जूझा कि एक ऐसी राजनैतिक व्यवस्था कैसे कायम की जाए जिसमें सामाजिक और वैयक्तिक विविधता को जगह मिल सके. यह भारतीय उदारवादी परंपरा सामुदायिक अपनापान और अल्पसंख्यकों के अधिकारों के बारे में तब के पश्चिमी विचारों की तुलना में अधिक संवेदनशील थी.
इसे एक ऐसे राजनैतिक विश्व में संचालित होना था जो संवैधानिक वैधता की भाषा और धार्मिक संकेतवाद तथा संकल्पना से संचालित आमफहम उदगारों में बंटा था. मदन मोहन मालवीय और पुरुषोत्तम दास टंडन और निश्चित तौर पर खुद गांधी जैसे लोगों के साथ-साथ जिन्ना ने इस विखंडित व्यक्तित्व और भारतीय उदारवाद की क्षमता की मिसाल पेश की.
उनके संवाहकों ने जनता को एकजुट करने के लिए धार्मिक शोर-शराबा मचाकर उस लोकलुभावनवादी दिशा का बखान किया जिस पर भारतीय उदारवाद चल सकता था. जिन्ना को उदारवादी और उदारवाद के बाद की भारतीय बहस में हस्तक्षेपकर्ता के तौर पर देखने का मतलब है इस बात को दूसरी तरह से समझना कि विभाजन के दौरान दांव पर क्या कुछ लगा था.
भारत और पाकिस्तान नामक दो देशों का गठन असल में सभ्यताओं, संस्कृतियों या धर्मों की वजह से नहीं, बल्कि टकराव की वजह से हुआ. यह विपरीत विचारों का टकराव था कि अल्पसंख्यकों की नुमाइंदगी कैसे हो और भविष्य के लोकतांत्रिक ढांचे में उनको सुरक्षा -कैसे दी जाए.
इस दौरान भड़काऊ धार्मिक अपीलें चल रही थीं- पहले बुदबुदाहट के बतौर और फिर खुल्लमखुल्ला. लेकिन यह टकराव मुख्यतः: आधुनिक उदारवादी राजनीति की शांत किस्म की शब्दावली में चल रहा था.
जिन्ना की दलीलें इस अर्थ में पूरी तरह उदारवादी थीं: हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच संख्या के अंतर के कारण और सार्वभौम मताधिकार पर अधारित भविष्य की राजनैतिक व्यवस्था में इसकी अहमियत के मद्देनजर उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि समुदायों के बीच बराबरी होनी चाहिए.
उनके लिए यह सिद्धांत की बात थी, न कि किसी इलाके पर खास दावा. दरअसल वे तो पाकिस्तान के भू-भाग की रचना को लेकर बेहद उदासीन या लापरवाह थे, और हालांकि उन्होंने इसे 'दीमक का चट किया ' कहा, फिर भी उन्होंने इसे खुशी-खुशी मंजूर कर लिया,
जबकि आधुनिक समय में यह शायद सबसे बेढंगे भू-भाग वाला मुल्क था, जिसके दो हिस्सों के बीच में भारत का विशाल भू-भाग पड़ता था (जैसा कि इसे 'बिन शरीर के दो पंख' कहा गया). जिन्ना ने पाकिस्तान के लिए शुद्धता नहीं, बराबरी की, अस्मिता नहीं, समानता की चाह की. पाकिस्तान की स्थापना यह सोचकर की गई कि देश बनने से इस उपमहाद्वीप के मुसलमानों को ऐसी बराबरी मिल जाएगी. लेकिन पाकिस्तान का बाद के वर्षों का इतिहास वास्तव में एक कड़वा सबक रहा है कि सभी राज्य-राष्ट्र एक समान नहीं होते.
इसने पाकिस्तान को कुछ बाहरी, तीसरी पार्टी-संयुक्त राष्ट्र, अमेरिका, चीन-पर स्थायी रूप से निर्भर बना दिया, जो उसकी ओर से बोले और एक ऐसे अंपायर के रूप में काम करे जो उसके दावों पर भी दूसरों के दावों की तरह ही विचार किया जाना पक्का करे.
परमाणु हथियार हासिल करने की पाकिस्तानी नेताओं की भीषण चाहत (“हम घास भी खा लेंगे... ””) की जड़ में यह सोच है कि ये विध्वंसक हथियार कम से कम और आखिरकार, वह वीटो अधिकार उसे दिला देंगे जो जिन्ना हमेशा चाहते थे.
जो कोई भी 1947 के दुष्कर मार्ग का अध्ययन करता है, उसे अपना मनपसंद 'मोड़"' मिल जाएगा जब चीजें एक अलग दिशा में जा सकती थीं. जसवंत की अपनी सूची है : संविधान पर 1928 की नेहरू रिपोर्ट, गोलमेज सम्मेलन और उनके साथ शामिल होने से कांग्रेस का इनकार.
1937 में उत्तर प्रदेश में मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन सरकार बनाने से इनकार; डोमिनियन दर्जा देने की ब्रिटिश सरकार की पेशकश को कांग्रेस की ओर से ठुकराया जाना; द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान गांधी और कांग्रेस नेतृत्व की ओर से जेल जाने का फैसला और इस तरह जिन्ना के लिए मुफीद राजनैतिक मैदान खुला छोड़ना; और इस सबसे ज्यादा हर किसी की जल्दबाजी.
वे डोमिनियन दर्जा दिए जाने की संभावना पर विचार करने से नेहरू के इनकार की विशेष रूप से आलोचना करते हैं. अगर यह दर्जा मिला होता तो एक संक्रमण का दौर आता जिसके दौरान जिन्ना का विश्वास हासिल किया जा सकता था और वे आश्चर्यजनक रूप से नेहरू के उस आग्रह की भी आलोचना करते हैं कि भारत को एक सुदृढ़ केंद्रीय राज्य की जरूरत है.
इसमें कोई यह भी जोड़ सकता है कि नेहरू उनके खुद के और जिन्ना के बीच दोस्ताना संबंधों के अभाव के लिए भी अंशतः जिम्मेदार थे, एक ऐसा रिश्ता जो भारतीय इतिहास के लिए बेहद महत्वपूर्ण था. ये दोनों नेता कई मामलों में एक जैसे थे; दोनों अल्पसंख्यक, शहरी समुदायों (खोजा मुस्लिम और कश्मीरी पंडित) से थे, दोनों कानून की पढ़ाई कर चुके थे, दोनों अंग्रेजीदां और तुनुकमिजाज और अहंकारी थे. और दोनों ने एक दूसरे के प्रति अपनी नापसंदगी पनपाई.
एक दूसरे को लिखे पत्रों में नेहरू अनुग्रही और उपदेशात्मक थे, जबकि जिन्ना आडंबरपूर्ण शैली रखते थे: ''मैं आपके पत्र के अंतिम से पहले पैराग्राफ के आखिर में व्यक्त किए गए विचारों से सहमत हूं.” नेहरू के उपदेश पर जिन्ना ने महज यही जवाब दिया, “आप एक-दूसरे को बोलने देना पसंद करते हैं जबकि मैं एक दूसरे से बातचीत करना पसंद करता हूं. '”
महत्वपूर्ण यह है कि विभाजन से पहले नेहरू उस बेपनाह डर को पूरी तरह समझने में असफल रहे थे जो ज्यादातर मुसलमानों के भीतर पनप आया था, और जिसे जिन्ना ने मुखर किया, यह अंदेशा कि लोकतांत्रिक शासन में मुसलमानों को अल्पसंख्यक बनकर रहना होगा, क्योंकि लोकतंत्र में राजनैतिक सत्ता संख्या की ताकत पर आधारित होती है.
(यह तथ्य कि विभाजन के बाद नेहरू ने अपनी पहले की इस असफलता को मुसलमानों को गणराज्य में संपूर्ण नागरिक होने की उनकी हैसियत का भरोसा देने की अनगिनत कोशिशों से दूर किया, नेहरू के किसी भी मूल्यांकन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है.)
अगर जिन्ना-नेहरू के रिश्ते अलग होते तो क्या स्थिति कुछ और होती? इतिहास में, और चूंकि यह मानवीय कार्रवाइयों का ब्यौरा है, स्थितियां अलग हो सकती थीं; और अक्सर हम उन संभावनाओं को किसी व्यक्ति की पसंद या उसके चरित्र पर छोड़ देते हैं. लेकिन 1920 और 1950 के बीच उथल-पुथल भरे दशकों को देखें तो लगता है कि कितनी ही महत्वपूर्ण घटनाएं प्रमुख अभिनेताओं द्वारा अभिप्रेरित नहीं थीं, वे कितनी सांयोगिक थीं.
मानव मस्तिष्क आरोप और जिम्मेदारी थोपने का आदी होता है और यह स्वीकारना कठिन है कि विभाजन जैसी घटना, जिसने ऐसे गंभीर नतीजे दिए, कमजोर इरादों के कारण हुई. हम भयंकर घटनाओं के मूल में खलनायकों को खोजने की चाहत रखते हैं. ऐसी घटनाएं भयंकर महज इसलिए नहीं बनतीं कि वे अंशत: व्यक्तिगत अनिष्टकारी इरादों से पनपती हैं, बल्कि वे मोटे तौर पर प्रमुख पात्रों के इरादों के बगैर ही घट जाती हैं.