इंडिया टुडे आर्काइव : जब नेहरू ने कराई नेताजी सुभाषचंद्र बोस के परिवार की जासूसी!

साल 2015 में जब नेताजी सुभाषचंद्र बोस से जुड़ी कुछ गोपनीय फाइलें सार्वजनिक हुईं तो कई चौंकाने वाले खुलासे हुए, जिनमें से एक यह भी था कि नेहरू सरकार ने 1945 में मौत के बाद भी उनके परिवार की जासूसी कराई थी

कांग्रेस की एक मीटिंग के दौरान नेताजी सुभाष चंद्र बोस और जवाहरलाल नेहरू
कांग्रेस की एक मीटिंग के दौरान नेताजी सुभाषचंद्र बोस और जवाहरलाल नेहरू

'नेताजी' यानी सुभाषचंद्र बोस भारत की आजादी की लड़ाई में ऐसे इंकलाबी किरदार रहे हैं, जिन पर जीते जी तो विवाद रहा ही, निधन के बाद भी इससे पीछा नहीं छूटा. उनकी मौत कैसे हुई, आज भी इस पर साफ-साफ नहीं कहा जा सकता.

सरकारें उनसे जुड़ी कई फाइलें सार्वजनिक करने से बचती रही हैं. दलील ये कि इससे कानून-व्यवस्था को खतरा हो सकता है. लेकिन साल 2015 में जब आईबी की कुछ फाइलें सार्वजनिक हुईं तो कई चौंकाने वाले खुलासे हुए. 

इनमें सबसे प्रमुख यह था कि कांग्रेस सरकार ने सुभाषचंद्र बोस के परिवार की जासूसी करवाई. यह जासूसी कुल 20 साल तक चली जिसमें 16 साल तक नेहरू प्रधानमंत्री थे. 1964 में नेहरू के निधन के बाद लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने. 1968 में जब जासूसी बंद हुई तो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं. 9 साल पहले इस पर इंडिया टुडे के 22 अप्रैल, 2015 के अंक में संदीप उन्नीथन की एक विस्तृत कवर स्टोरी छपी थी. इसके जरिए मामले की तह तक पहुंचने की कोशिश की गई थी. उस कवर स्टोरी के हवाले से आइए जानते हैं, क्या था पूरा मामला?

स्टोरी की शुरुआत में एक खत का जिक्र है, जिसे 1952 में नेताजी की पत्नी एमिली शेंकल ने ऑस्ट्रिया से लिखा था. यह चिट्ठी कोलकाता में नेताजी के भतीजे शिशिर कुमार बोस को लिखी गई थी. इसमें बेटी अनिता की पढ़ाई-लिखाई का जिक्र था. लेकिन यह चिट्ठी गंतव्य तक पहुंचने से पहले ही खोलकर पढ़ी जा चुकी थी. संदीप लिखते हैं, "यह पहला खत नहीं था, जिसे पढ़ा गया था. उनके (शिशिर) पढ़ने से पहले ही खुफिया ब्यूरो (आईबी) के कई अफसरों ने चुपचाप चिट्ठी की प्रतियां बनाकर उसे बोस परिवार से जुड़ी सीक्रेट फाइलों में नत्थी कर दिया था."

अब सवाल उठता है कि नेहरू सरकार ऐसा क्यों कर रही थी? सरकारी जासूस उस स्वतंत्रता सेनानी के परिजनों के पत्र पढ़ रहे और दर्ज कर रहे थे, जो 25 सालों तक नेहरू का राजनैतिक सहकर्मी रहा था. इन पत्रों के सार्वजनिक होने के बाद नेताजी के भतीजे के बेटे चंद्र कुमार बोस के मन में भी यही सवाल उठा, "निगरानी उनपर रखी जाती है जिन्होंने कोई अपराध किया हो या जिनके आतंकी तार जुड़े हों. नेताजी और उनके परिवार ने आजादी की लड़ाई लड़ी थी, फिर उनपर निगरानी रखने की क्या जरूरत थी?"

नेताजी ने जापान में भारतीय युद्धबंदियों को साथ लेकर आजाद हिंद फौज (आईएनए) बनाई थी जिसके सहारे उन्होंने आजाद भारत की अस्थाई सरकार का गठन किया. आईएनए ने अंग्रेजी राज वाले इस उपमहाद्वीप की सरहदों पर 1943 में कब्जा जमाया और इसकी टुकड़ियों ने पहली बार भारत की धरती पर तिरंगा फहराया था. इसके तुरंत बाद 1944 में जापानी सेना की हार ने आईएनए के कदम थाम दिए थे. माना जाता है कि इस हार के तीन दिन बाद 18 अगस्त, 1945 को 48 वर्षीय नेताजी की मौत एक विमान हादसे में हो गई थी.

नेताजी की मौत की जांच के लिए नेहरू ने 1956 में शाहनवाज आयोग गठित किया था. हालांकि बोस परिवार के सदस्यों ने इस आयोग पर अपना संदेह जताया था. नेताजी को मान्यता न देने से उपजी निराशा का इजहार भी किया था. संदीप लिखते हैं, "1955 में शिशिर बोस ने नेताजी की पत्नी को लिखा था, अगर आज आप भारत में होतीं, तो आपको यह एहसास होता कि भारत की आजादी की लड़ाई में सिर्फ दो लोगों का महत्व था-गांधी और नेहरू. बाकी सब महत्वहीन थे." 

अपनी रिपोर्ट में संदीप लिखते हैं, "1950 के दशक में परिवार के सभी पत्रों की प्रतियां बनाई जाती थीं और कुछ को दिल्ली स्थित मुख्यालय में बैठे आईबी के दो अहम अफसरों से साझा किया जाता था- एक एल.एल. हूजा थे जो 1968 में आईबी के मुखिया बने और दूसरे रामेश्वरनाथ काव थे, जिन्होंने 1968 में रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) की स्थापना की. इसके पीछे जो इकलौता शख्स था, उसका नाम भोलानाथ मलिक (बीएन मलिक) था. यह शख्स नेहरू की सरकार में आंतरिक सुरक्षा का मुखिया था जो 1948 से 1964 के बीच लगातार 16 सालों तक आईबी का प्रमुख रहा."

तो क्या नेहरू को जीवित नेताजी से कोई खतरा था? संदीप लिखते हैं, "वैचारिक मतभेद के बावजूद दोनों के मन में एक दूसरे के लिए कोई दुर्भावना नहीं थी. नेहरू उम्र में नेताजी से 8 साल बड़े थे. वे उन्हें बड़ा भाई मानते थे. यहां तक कि आईएनए के एक रेजीमेंट का नाम भी उन्होंने नेहरू के नाम पर रखा था. नेहरू को जब बोस की मौत की खबर 1945 में मिली तो वे सार्वजनिक रूप से रोये थे. फिर सवाल उठता है कि नेहरू सरकार ने बोस परिवार की इतनी कड़ी निगहबानी क्यों करवाई? 

वे आगे लिखते हैं कि यह सवाल इसलिए भी खास है क्योंकि नेहरू को जासूसी जैसे काम से बहुत नफरत थी. अपनी रिपोर्ट में संदीप आईबी के पूर्व मुखिया बी.एन. मलिक की 1971 में आई किताब 'माई ईयर्स विद नेहरू' का हवाला देते हैं. इस किताब में मलिक ने लिखा, "प्रधानमंत्री नेहरू को इस काम (जासूसी) से इतनी चिढ़ थी कि वे हमें दूसरे देशों के उन खुफिया संगठनों के खिलाफ भी काम करने की अनुमति नहीं देते थे जो भारत में अपने दूतावास की आड़ में काम करते थे." सवाल फिर उठता है कि नेताजी के परिवार की जासूसी क्यों?

तब बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता रहे और लेखक एम जे अकबर ने इस मामले पर संदीप से कहा था, "सीधे नेहरू को रिपोर्ट करने वाली आईबी की ओर से बोस परिवार की इतने लंबे समय तक जासूसी की सिर्फ एक वाजिब वजह जान पड़ती है. सरकार आश्वस्त नहीं थी कि बोस की मौत हो चुकी है और उसे लगता था कि अगर वे जिंदा हैं तो किसी न किसी रूप में कोलकाता स्थित अपने परिवार के साथ संपर्क में होंगे. आखिर कांग्रेस को इस बारे में संदेह करने की क्या जरूरत थी?"

वे आगे कहते हैं, "बोस इकलौते करिश्माई नेता थे जो कांग्रेस के खिलाफ विपक्ष को एकजुट कर सकते थे और 1957 के चुनावों में गंभीर चुनौती खड़ी कर सकते थे. यह कहना बेहतर होगा कि अगर बोस जिंदा होते तो जिस गठबंधन ने कांग्रेस को 1977 में हराया, उसने 1962 के चुनाव में या फिर 15 साल पहले ही कांग्रेस को ध्वस्त कर दिया होता." 

तब कांग्रेस ने नेहरू पर लगे इन सभी आरोपों को बेबुनियाद बताते हुए केंद्र सरकार पर झूठ फैलाने का आरोप लगाया था. उस समय कांग्रेस म‌हासचिव रहे दिग्विजय सिंह ने कहा कि यदि पंडित नेहरू सुभाष चंद्र बोस के परिजनों की जासूसी करा रहे थे, तो उस समय गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल थे. क्या उन्हें इस बात की जानकारी थी? साथ ही, उन्होंने कहा कि सरदार पटेल के बाद लाल बहादुर शास्‍त्री, गोव‌िंद वल्लभ पंत और कैलाशना‌थ काटजू ने गृहमंत्रालय का कामकाज देखा था. शास्‍त्री बाद में प्रधानमंत्री भी बने. क्या ये सभी जासूसी से अवगत थे?

Read more!