जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव-1987 : जिसके बाद चरमपंथ तेजी से उभरा और कश्मीरी पंडितों को घाटी छोड़नी पड़ी

इंडिया टुडे मैगजीन ने 1987 के विधानसभा चुनाव से पहले और उसके नतीजे आने के बाद जम्मू-कश्मीर में बदलते हालात पर कई रिपोर्ट की थीं

1987 में बड़गाम चुनाव क्षेत्र में नेशनल कॉन्फ्रेंस उम्मीदवार के लिए समर्थन मांगते फारुख अब्दुल्ला/इंडिया टुडे मैगजीन
1987 में बड़गाम चुनाव क्षेत्र में नेशनल कॉन्फ्रेंस उम्मीदवार के लिए समर्थन मांगते फारुख अब्दुल्ला/इंडिया टुडे मैगजीन

साल था 1987. शेर-ए-कश्मीर कहे जाने वाले शेख अब्दुल्ला के बेटे फारुख अब्दुल्ला मुख्यमंत्री बनने वाले थे. चुनाव के नतीजे आ चुके थे मगर जश्न के नाम पर कुछेक घरों को छोड़ एक दीया भी राज्य को नसीब ना हुआ. अब 2024 में फिर से जम्मू-कश्मीर में चुनाव हुए हैं और इससे पहले भी राजनैतिक बहसों के बीच अलगाववाद और सांप्रदायिकता जैसे मसलों पर खूब बहस हुई.

इन बातों की शुरुआत उसी चुनाव से शुरू हुई जिसका ऊपर जिक्र हुआ है. ऐसे में बात 1987 की जब विधानसभा चुनावों में हुई धांधली के साथ फैला अलगाववाद कश्मीर से आज तक अलग नहीं हो सका है. इंडिया टुडे मैगजीन ने 1987 में चुनाव से पहले और नतीजे आने के बाद इस मामले पर विस्तृत रिपोर्ट की थी जिसकी मदद से हम इस अलगाववाद की जड़ों को तलाश सकते हैं.

1987 में चुनावों की घोषणा होते ही जम्मू-कश्मीर में फिर से सांप्रदायिकता, सियासी चापलूसी और अलगाववाद जैसे मुद्दे तैरने लगे थे. इंद्रजीत बधवार ने 31 मार्च 1987 के अंक में बताया कि इस चुनावी समर में कसौटी पर जो चीज थी वह राजीव-फारुख समझौता थी. दरअसल, इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जब राजीव गांधी के हाथों में कांग्रेस की कमान आई तब उन्होंने फारुख अब्दुल्ला के साथ समझौता किया था. राज्यपाल शासन हटा दिया गया था और फारूक 1986 में सत्ता में वापस आ गए. शर्त यह रखी गई कि कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस 1987 के चुनाव के लिए गठबंधन करेंगे.

जम्मू में बीजेपी ने फारुख-राजीव के गठबंधन को 'नापाक' करार दिया था और कहा कि यह कुछ ऐसा है जो दो सत्ता के भूखे भेड़ियों के बीच सिर्फ सत्ता के लिया हुआ है. कथित हिंदूवादी पार्टी की तरफ से तर्क दिए गए थे कि महज तीन साल पहले कांग्रेस ने फारुख को राष्ट्रद्रोही और सुरक्षा के लिए खतरनाक बताया था. बीजेपी, कांग्रेस और फारुख अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस के अलावा जमात-ए-इस्लामी, उम्मत-ए-इस्लाम और महाज-ए-आजादी भी इस चुनावी रण में कूदे थे.

1987 की इंडिया टुडे मैगजीन की रिपोर्ट्स पढ़ना तब दिलचस्प हो जाता है जब एक तरफ आप पढ़ें कि हिंदूवादी बीजेपी फारुख-राजीव के गठबंधन को नापाक बता रही थी तो वहीं दूसरी ओर इस्लामिक पार्टियों के गठबंधन के मुताबिक यह गैर-इस्लामी था. इस्लामिक गठबंधन का कहना था कि शेख अब्दुल्ला के परिवार ने इस्लाम को हिंदुस्तान के हाथों बेच डाला है.

इंद्रजीत इंडिया टुडे की अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं, "अभी तक नेशनल कॉन्फ्रेंस के उम्मीदवार, फारुख और उनके पिता शेख, सभी कश्मीर की पहचान का मुद्दा उछाला करते थे और इस पहचान पर हिंदुस्तान के कहर का मुकाबला करने की बातें कहा करते थे. पर अब यही पार्टी और उसके नेता दिल्ली के तख़्त पर बैठी पार्टी के साथ किए गए गठजोड़ को जिताने की जरूरतें बता रहे हैं. जनता इसी से भ्रमित और अचंभित है."

वे बताते हैं कि बहुतेरे ऐसे थे जिन्हें इसमें धोखाधड़ी दिखाई देती थी. यह तबका नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस को छोड़कर 'किसी अन्य' को जिताने के मूड में दिख रहा था. कट्टरपंथी ताकतें इसी के इंतजार में बैठी थीं. उनका दबदबा इसलिए बढ़ता महसूस हो रहा था क्योंकि अब उन इलाकों में भी उनकी घुसपैठ हो चुकी थी जहां पहले उन्हें ना तो समर्थन और ना ही वोट मिले थे.

सीटों के बंटवारे के दौरान राजीव-फारुख समझौते की मुखालफत करने वाला तबका, खासकर कांग्रेसियों का, इस प्रक्रिया से एकदम अलग रखा गया था. इसी क्रम में तत्कालीन केंद्रीय पर्यटन मंत्री मुफ़्ती मुहम्मद सईद और उनके गुट का पत्ता पूरी तरह से कट गया था. इस गुट के एक भी व्यक्ति को ना तो कांग्रेस का टिकट मिल पाया और ना किसी को प्रचार का जिम्मा ही दिया गया. हालांकि कभी मुफ़्ती के समर्थक रहे गुलाम रसूल कार को प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया गया था. इंद्रजीत बधवार अपनी रिपोर्ट में बताते हैं कि ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि कार ने राजीव को निजी तौर पर बताया था कि वे समझौते का समर्थन करते हैं.

सत्ता भोग चुके नेताओं (नेशनल कॉन्फ्रेंस के अब्दुल्ला और कांग्रेस नेताओं) के खिलाफ इस बीच जम्मू-कश्मीर में जबरदस्त नाराजगी थी. इसी वजह से राजीव-फारुख के गठबंधन के लिए चुनाव जीतना बहुत मुश्किल था. हालांकि जहां एक तरफ केंद्र को यकीन था कि राज्य में स्थिरता बनाए रखने के लिए फारुख जरूरी हैं तो दूसरी तरफ नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता को भी दिल्ली दरबार के साथ मिलकर चलने की मजबूरी का अहसास हो चुका था.

फारुख हर चुनावी भाषण में दोहराते कि कट्टरपंथी 'इस्लाम खतरे में है' का नारा देकर लोगों को धोखे में रख रहे हैं और असली खतरा तो गरीबी का है. वे यह भी जोड़ते कि मजहबी आजादी की सच्ची गारंटी धर्मनिरपेक्ष राज्य में ही होती है. वहीं दूसरी तरफ विपक्षी उम्मीदवार, जिनमें ज्यादातर मुस्लिम मोर्चे और पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के लोग थे, उनकी सभाएं 'अवा, अवा, अवा इंकलाब' (इंकलाब आ रहा है) और 'असेम्ब्ली में क्या चलेगा? निजामे मुस्तफा' जैसे नारों से गूंज रही थीं.

इंद्रजीत बताते हैं, 1987 के चुनाव के दौरान कश्मीरी लोग जुझारू मुद्रा में थे. यदि वे आश्वस्त हो जाते कि फारुख अपनी बात पर गंभीर हैं तो उन्हें पार्टी की गरीबी-विरोधी लड़ाई में खींचा जा सकता था. लेकिन नेशनल कॉन्फ्रेंस के उमीदवार वही पुराने घिसे-पिटे चेहरे थे जिन पर से लोगों का भरोसा उठ चुका था. और उस माहौल में कट्टरपंथियों के पाले में बड़ी संख्या में वोटों के पड़ने की आशंका प्रबल हो उठी थी.

23 मार्च 1987 को राज्य में मतदान हो चुके थे और उसके सात दिन बाद तक भी चुनाव के नतीजे घोषित नहीं हो सके थे. इससे विपक्षी नेताओं की ओर से मतदान में गड़बड़ी और वोटों की हेराफेरी के आरोपों को विश्वसनीयता मिली. चुनाव से लगभग दो सप्ताह पहले, 600 विपक्षी कार्यकर्ताओं को उन क्षेत्रों में गिरफ्तार किया गया जहां एमयूएफ (मुस्लिम मोर्चा), निर्दलीय और पीसी (पीपुल्स कॉन्फ्रेंस) उम्मीदवारों का अपना दबदबा था. 

चुनाव के नतीजे आने के बाद इंद्रजीत बधवार ने 15 अप्रैल, 1987 के इंडिया टुडे मैगजीन के अंक के लिए कवर स्टोरी की. अपनी रिपोर्ट की शुरुआत करते हुए उन्होंने लिखा, "विधानसभा चुनावों में शेख अब्दुल्ला के वारिस के नेतृत्व वाले गठबंधन की जबरदस्त जीत पर तो पूरे राज्य में भारी जश्न मनाया जाना चाहिए था, पर ऐसा कुछ हुआ नहीं. श्रीनगर जिले में, नेशनल कॉन्फ्रेंस के कुछ चुनिंदा गढ़ों में भी थोड़ी-बहुत आतिशबाजी के अलावा कहीं कुछ ख़ास नहीं हुआ."

शपथ ग्रहण के बाद फारुख अब्दुल्ला/इंडिया टुडे मैगजीन

वे बताते हैं कि एक ओर चुनाव के परिणाम आ रहे थे और दूसरी और नई सरकार मुस्लिम संयुक्त मोर्चे के नेताओं प्रो. अब्दुल गनी, डॉ गुलाम कादिर वानी, गुलाम मोहम्मद बट वगैरह को राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के आरोप में गिरफ्तार करने में व्यस्त थी. मतदान के पांच दिनों बाद भी कई इलाकों में कर्फ्यू लागू था. आम लोगों के मन में भी यह बात बैठ गई कि सत्तासीन गठबंधन ने चुनावों में गड़बड़ कराई है. इससे लोगों के मन में गुस्सा भी था. मुस्लिम मोर्चे की ओर से की गई बंद की अपील को राज्य के कई इलाकों में काफी समर्थन मिला.

1987 के जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनावों के नतीजे/इंडिया टुडे मैगजीन

76 में से कुल 60 सीटों पर राजीव-फारुख गठबंधन जीता था. तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने इसे कट्टरपंथी ताकतों पर राष्ट्रवादी और धर्मनिरपेक्ष शक्तियों की जीत बताया. इंद्रजीत लिखते हैं, "यह चुनाव न तो कट्टरपंथी ताकतों को जड़ से उखाड़ने वाला रहा और न ही कांग्रेस को कोई बड़ी विजय दिलाने वाला. कश्मीर की राजनीति में कांग्रेस कुल मिलाकर एक हवाई पार्टी ही है, जड़ों तक उसकी पहुंच नहीं. उसके अधिकांश लोग जम्मू इलाके में जीते, वह भी इसलिए क्योंकि उन पर 'फारुख के उम्मीदवार' का ठप्पा लगा था."

हालांकि मुस्लिम मोर्चे को केवल चार सीटें मिलीं, पर अगर वोटों पर नजर डालें तो कुल पड़े वोटों का 35 फीसदी उसने हासिल किया. चुनाव में खड़े सभी कांग्रेस उम्मीदवारों को भी इतने वोट नहीं मिल पाए थे. इस चुनाव में दूसरी बड़ी प्रतिद्वंदी पार्टी थी - अब्दुल गनी लोन की पीपुल्स कॉन्फ्रेंस जो कभी कांग्रेसी मंत्री रह चुके थे.

इंडिया टुडे की रिपोर्ट में दर्ज है कि लोन के गढ़ों में वोटों की गिनती आखिरी वक्त में रोकी गई. लोन ने चुनाव आयोग के पास लिखित शिकायत की थी कि मतगणना केंद्रों में मतपेटियां रातोंरात गायब कर दी गई और उनके 100 एजेंटों को गिरफ्तार कर लिया गया. दो दिन बाद लोन को 1300 वोटों से पराजित घोषित कर दिया गया.

पूरी घाटी से मतदान केंद्रों पर गड़बड़ी होने की ख़बरें पार्टी दफ्तरों और जिला आयुक्तों के कार्यालयों में आती रहीं. पट्टन में मतदान केंद्रों से मतपत्रों की ऐसी गड्डियां बरामद की गईं जिन पर पहले ही नेशनल कॉन्फ्रेंस के उम्मीदवार के पक्ष में मुहर लगी थी. कई मतदान केंद्र नेशनल कॉन्फ्रेंस के समर्थकों के मकान में बनाए गए थे और वहां वोटरों को वोट ही डालने नहीं दिया जा रहा था.

इंद्रजीत बधवार लिखते हैं, "इनमें से कुछ घटनाएं तो 'इंडिया टुडे' ने खुद अपनी आंखों से देखी हैं. इन घटनाओं से उन युवकों का मोहभंग पक्का ही हुआ है जो कश्मीर में सत्ता परिवर्तन की चाह लिए विपक्षी खेमे में चले गए थे."

हालांकि आगे इंद्रजीत यह भी लिखते हैं, "इसका मतलब यह कतई नहीं है कि फारुख और उनकी पार्टी ने पूरे चुनाव में धोखाधड़ी ही की. नेशनल कॉन्फ्रेंस को जनसमर्थन प्राप्त है और फारूक का नेतृत्व भी गतिशील और करिश्माई है. उन्होंने पूरे चुनाव प्रचार के दौरान एक बार भी कट्टरवादी और अलगाववादी ताकतों को खुश करने वाले बयान नहीं दिए जैसा कि वे पहले करते रहे थे." इस रिपोर्ट के अंत में इंद्रजीत ने उस निराशा का भी जिक्र किया जिसे जीतना फारुख अब्दुल्ला के सामने एक चुनौती थी.

फारुख अब्दुल्ला मुख्यमंत्री चुन लिए गए और उन्होंने गठबंधन की सरकार बनाई. हालांकि, घाटी के लोगों की नज़र में सरकार अभी भी 'तिकड़म' की ही थी. विद्रोहियों ने पूरे चुनाव को नकली बताते हुए ख़ारिज कर दिया था. घाटी में जैसे-जैसे निराशा बढ़ती जा रही थी, कट्टरपंथ का दलदल उतना ही गहरा होता जा रहा था. जून 1988 में बिजली दरों में बढ़ोतरी के खिलाफ राज्य में विरोध प्रदर्शन हुए, जिसमें पुलिसिया गोलीबारी हुई. अगले ही महीने जुलाई में, जम्मू और कश्मीर लिबरेशन फ्रंट ने श्रीनगर में अपना पहला बम हमला किया. 1987 के चुनाव से उपजी हताशा कब हिंसक विरोध में बदल गई किसी को पता नहीं चला.

कश्मीर में अलगाववाद की आंच/इंडिया टुडे मैगजीन

जुलाई 1988 में, जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (JKLF) ने भारत से कश्मीर को अलग करने के लिए एक अलगाववादी विद्रोह शुरू किया. इस समूह ने 14 सितंबर 1989 को पहली बार एक कश्मीरी हिंदू को निशाना बनाया, जब उन्होंने कई लोगों के सामने जम्मू-कश्मीर में बीजेपी के एक प्रमुख नेता और वकील टीका लाल टपलू की हत्या कर दी.

इससे कश्मीरी हिंदुओं में डर पैदा हो गया, खासकर इसलिए क्योंकि टपलू के हत्यारे कभी पकड़े नहीं गए, जिससे आतंकवादियों का हौसला भी बढ़ा. हिंदुओं को लगा कि वे घाटी में सुरक्षित नहीं हैं और उन्हें कभी भी निशाना बनाया जा सकता है. कई प्रमुख लोगों सहित कश्मीरी हिंदुओं की हत्याओं ने और अधिक डर पैदा कर दिया.

1989 में कश्मीर में लगातार विद्रोह शुरू हुआ. 1987 विधानसभा चुनाव में धांधली करने और अधिक स्वायत्तता के वादे को नकारने को लेकर भारत सरकार के साथ कश्मीरियों के असंतोष ने इसे बढ़ावा दिया.

1990 की शुरुआत में, कश्मीरी हिंदुओं का एक बड़ा हिस्सा सामूहिक पलायन में घाटी से निकल गया. 19 जनवरी, 1990 कश्मीर के इतिहास का सबसे काला दिन माना जाता है. कश्मीरी पंडित समुदाय को बंदूक की नोक पर कश्मीर घाटी से जबरन निर्वासित कर दिया गया था. वे अपने ही देश में शरणार्थी बन गए, और जम्मू, दिल्ली और कई दूसरी जगहों पर शरण लेने लगे. उन्होंने अपने घरों को पीछे छोड़ दिया, जो अब बर्बाद हो चुके हैं और विद्रोहियों और असामाजिक तत्वों ने उसपर कब्जा कर लिया गया है.

आगे के सालों में पलायन और बढ़ा ही. 2011 के डाटा के मुताबिक, अब केवल लगभग 3,000 परिवार ही घाटी में बचे थे. भारतीय गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, 1988 से 1991 के बीच 217 हिन्दू नागरिकों की घाटी में मौत हुई थी.

जनवरी 1990 में, केंद्र सरकार ने जगमोहन को राज्य का राज्यपाल नियुक्त किया और इसी के विरोध में फारुख अब्दुल्ला ने इस्तीफा दे दिया. राज्यपाल शासन की घोषणा की गई जो 1996 तक जारी रही. इसके बाद कुछ और सरकारें आईं और गईं मगर घाटी में तनाव बना रहा. 2019 में जब नरेंद्र मोदी की सरकार ने आर्टिकल 370 को हटाने की घोषणा की, उससे कुछ दिनों पहले से ही पूरे कश्मीर में एक अघोषित लॉकडाउन लगा दिया गया था. 370 हटने का जख्म इतना गहरा था कि पिछले 5 सालों तक कश्मीर से आवाज नहीं आई. हालांकि इस बार के चुनाव में इस मुद्दे की भी काफी चर्चा रही. अब जबकि विधानसभा चुनाव के नतीजे आ चुके हैं और नेशनल कॉन्फ्रेंस तथा कांग्रेस का गठबंधन यहां सरकार बनाने जा रहा है, आगे यह देखना अहम होगा कि वे इस मुद्दे पर किस तरह का रुख अपनाते हैं. 

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