इंडिया टुडे आर्काइव : कश्मीरी पंडितों के पलायन के पहले और बाद में घाटी में क्या-क्या हुआ?

जनवरी महीने की 17, 18 और 19 तारीख़, जम्म-कश्मीर के इतिहास में सबसे वीभत्स दिन की तरह हैं. कई वर्षों से अलगाववाद की आग में झुलस रही घाटी के लिए 1990 में ये तीन तारीख़ें कश्मीरी पंडितों के पलायन की गवाह बनी थीं

जनवरी, 1990 में भारतीय सेना और उग्रवादी जम्मू-कश्मीर में आमने-सामने
जनवरी, 1990 में भारतीय सेना और उग्रवादी जम्मू-कश्मीर में आमने-सामने

"मरीज को अच्छा करने के लिए मैं प्यार, सहानुभूति और सेवाभाव से काम करुंगा, ठीक किसी नर्स की तरह", 19 जनवरी, 1990 को जम्मू के राजभवन में तुरत-फुरत हुए शपथ ग्रहण समारोह से ठीक पहले जगमोहन मीडिया के सामने ये बात कह रहे थे. तब अपनी वादियों के हसीन होने के गुमान में पलने वाली कश्मीर घाटी में अलगाववाद का नासूर फूट पड़ा था.

और कुछ यूं, जैसा पहले कभी नहीं हुआ था. इंडिया टुडे हिंदी के 15 फरवरी, 1990 के अंक में जम्मू-कश्मीर पर प्रभु चावला की ख़ास रिपोर्ट बताती है कि घाटी से कश्मीरी पंडितों के पलायन और हिंसा के बाद जगमोहन के लिए राह बनाना आसान नहीं था, फिर भी उनके शुरुआती कदमों से उम्मीद बंधी थी.

जनवरी महीने की 17, 18 और 19 तारीख़, जम्म-कश्मीर के इतिहास में सबसे वीभत्स दिन की तरह हैं. कई वर्षों से अलगाववाद की आग में झुलस रही घाटी के लिए 1990 में ये तीन तारीख़ें कश्मीरी पंडितों के पलायन की गवाह बनीं. मस्जिदों से घाटी छोड़ देने का फरमान जारी हो रहा था और सड़क पर नारे लगाती और हिंसा करती भीड़ गश्त कर रही थी. 17, 18 और 19 जनवरी को जो हुआ वो अचानक नहीं था, बल्कि बीते कई सालों से बिगड़ती स्थिति का नतीजा था.

इस दौरान घाटी की सड़कों पर क्या कुछ घट रहा था? इसकी बानगी इंडिया टुडे हिंदी के 31 जनवरी, 1990 के अंक में शेखर गुप्ता की कवर स्टोरी में देखने को मिलती है. "अक्सर भीड़ में आगे चलती औरतों और बच्चों के पीछे सशस्त्र उग्रवादी छिपकर चलते हैं. केंद्रीय रिजर्व पुलिस की 24वीं बटालियन के हवलदार कामेश्वर चौधरी को पिछले पखवाड़े यही कड़वा अनुभव हुआ. वे अपनी टुकड़े के साथ ज्यादातर औरतों वाले एक हुजूम को घर लौट जाने के लिए मना रहे थे. तभी पिस्तौल से निकली एकमात्र गोली उनके गले में आ लगी. बदले में चली पुलिस की गोली से एक प्रदर्शनकारी मारा गया. लेकिन हत्यारा उग्रवादी अपने मकसद में कामयाब हो चुका था. चौधरी के मरने की ख़बर फैलते ही दूसरे जवान भी गुस्से में आ गए. और गुस्सैल जवानों का मतलब होता है ज्यादा मौतें. उग्रवादी ठीक यही चाहते हैं."

31 जनवरी, 1990 के अंक में घाटी की स्थिति पर छपी कवर स्टोरी

"हर नए 'शहीद' का अर्थ है मुहल्ले की मस्जिद से हर बार एक नया नमाज-ए-जनाजा. अंततः इस जनाजे में शामिल भीड़ हिंसक हो जाती है और नतीजतन पुलिस को और गोलियां चलानी पड़ती हैं. फिर नए 'शहीद', फिर जनाजा और फिर हिंसा. यह दुष्चक्र है जिसमें विराम नहीं. शहरी बगावत की यह अनिवार्य त्रासदी है." राज्य में फारुक अब्दुल्ला की सरकार थी. 19 जनवरी को जगमोहन ने राज्यपाल का पदभार ग्रहण किया. इसके विरोध में राज्य के मुख्यमंत्री फारुक अब्दुल्ला ने इस्तीफा देकर विधानसभा भंग कर दी.

हालांकि ये माना जाता है कि फारुक ने इस्तीफा नहीं दिया होता तो जगमोहन खुद ही उनकी सरकार को बर्खास्त कर देते. प्रभु चावला अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं, "फारुक तो अपनी नाकामी की वजह से उभरी बला टालने के तैयार ही बैठे थे. उन्होंने इस बहाने इस्तीफा देकर हाथ झाड़ लिए कि जगमोहन की नियुक्ति पर केंद्र ने उनसे राय-मशविरा नहीं किया."

ये दूसरा मौका था जब जगमोहन को जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल बनाया गया था. इससे पहले 1984-89 तक वो ये पद संभाल चुके थे. यह पूरा दौर हिंसक घटनाओं से पटा पड़ा था. हालांकि जब 1990 में घाटी के हालात को देखते हुए केंद्र की वीपी सिंह सरकार ने उन्होंने दोबारा ये जिम्मेदारी सौंपी तो घाटी में खुशी भी थी.

जम्मू के शरणार्थी शिविर में एक कश्मीरी पंडित बच्चा

15 फरवरी, 1990 को इंडिया टुडे हिंदी में छपी रिपोर्ट में एक वकील कहते हैं, "जब जगमोहन के नाम की घोषणा की गई तो खुशी और दहशत दोनों एक साथ ही फैली. जनता खुश हुई कि उसके साथ न्याय होगा जबकि राजनीतिक और आतंकवादी खौफ में आ गए कि उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई होगी. जो लोग खुश हो गए थे, आज फिर उनमें सुरक्षा बलों और आतंकवादियों का डर बैठ गया है." हालांकि जगमोहन के दूसरे कार्यकाल के पहले ही दिन पुलिस की गोलीबारी में 35 लोग मारे गए और 400 गिरफ्तार हुए. इसके बाद के हफ्ते में दर्जन भर पुलिसवालों और सैनिकों समेत 90 लोग गोलियों के शिकार हुए.

केंद्रीय रिजर्व पुलिस के एक अधिकारी ने तब इंडिया टुडे से कहा था कि पहले हवा में एक गोली छोड़ते ही भीड़ बिखर जाती थी. अब आप एक को मारिए तो दूसरा, और दूसरे को मारिए तो तीसरा चढ़ा चला आता है. अंततः खुद आपको ही पीछे हटना पड़ता है. दरअसल अधिकारी ये मानने लगे थे कि "लोगों का डर खत्म हो गया है. कश्मीरियों की यह एक नई उग्र पीढ़ी है."

घाटी में इस आग की लपटों की तपिश सबसे ज्यादा कश्मीरी पंडितों को झेलनी पड़ी. मस्जिदों से कश्मीर छोड़ने के फरमान और उग्रवादियों की हिंसा का नतीजा ये हुआ कि 'बड़ी संख्या' में कश्मीरी पंडितों को अपना घर छोड़कर पलायन करना पड़ा. ये 'बड़ी संख्या' कितनी थी? अलग-अलग दावे और आंकड़े हैं जो कुछ हज़ार से कई लाख तक की परिधि में जाते हैं. राज्यपाल जगमोहन ने पलायन कर रहे लोगों को जम्मू के शरणार्थी शिविर में जाने के लिए कहा. लोग अपनी जान बचाकर शिविर में पहुंचे.

फारुक अब्दुल्ला (बाएं) और जगमोहन (दाहिने)

हालांकि इस पलायन के बावजूद आठ सौ से ज्यादा कश्मीरी पंडितों ने अपना घर नहीं छोड़ा. वे घाटी में ही टिके रहे. इस दौर में धार्मिक उन्मादियों ने सिनेमाघर, वीडियो लाइब्रेरी और ब्यूटी पार्लर को निशाना बनाया. इन्हें इस्लाम विरोधी बताकर बम धमाकों या आग के हवाले कर दिया. हर छोटी चीज़ पर उग्रवादियों की नज़र पड़ी. यहां तक कि ताश को भी इस्लाम विरोधी बताया. जो सिनेमाघर इनकी सनक से बच गए उन्हें उनके मालिकों ने कोल्ड स्टोरेज में तब्दील कर दिया.

बेकाबू हो चुकी स्थिति पर नियंत्रण पाने के लिए जगमोहन ने उग्रपंथियों के बंदूकों का जवाब बंदूक और रोजी-रोटी दोनों से देने की कोशिश की. प्रभु चावला 15 फरवरी की अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं, "उन्होंने सीमा सुरक्षा बल में 9 हज़ार बेरोजगार कश्मीरी युवकों की भर्ती और एक महीने में शिक्षकों के 3 हज़ार खाली पड़े पदों को भरने की घोषणा की है. कानून व्यवस्था के मोर्चे पर उन्होंने 20 जनवरी की तलाशियों के मौके पर गैर-कानूनी तरीके से कैद अधिकांश लोगों को रिहा करने और साथ ही उग्रवादियों या पुलिस हिंसा में मारे गए बेगुनाह लोगों के लिए 50,000 से 1 लाख रुपए मुआवजे के रुपए में तुरंत अदा करने का आदेश दिया."

तीन दशक हो चुके हैं इस घटनाक्रम को. जम्म-कश्मीर का परिदृश्य बदल चुका है. कश्मीर का स्पेशल स्टेटस यानी धारा-370 समाप्त कर दी गई है. केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के इस फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने भी मुहर लगा दी है. 90 के दशक में हुए उत्पात पर काबू पाने का जिम्मा केंद्र सरकार के विश्वस्त राज्यपाल जगमोहन के कंधे पर था. अब कश्मीर को 'मुख्य धारा' से जोड़ने और विकास की दिशा में बढ़ाने का जिम्मा केंद्र के ही भरोसेमंद राज्यपाल मनोज सिन्हा के पास है.

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