राखीगढ़ी में ऐसा क्या मिला था जिसने हिंदू राष्ट्रवादियों के 'इतिहास' को दिया झटका?
हिंदू राष्ट्रवादी मानते हैं कि आर्य मूल रूप से भारत या हड़प्पा सभ्यता के निवासी थे जिन्होंने वैदिक सभ्यता की नींव रखी और इनके जरिए ही यह संस्कृति मध्य एशिया से लेकर पूर्वी यूरोप तक फैली

हाल ही में एनसीईआरटी की किताबों में केंद्र सरकार ने कुछ बदलाव किए हैं. इनमें सबसे ज्यादा चर्चा में जो बदलाव है वह बारहवीं कक्षा की इतिहास की किताब 'भारतीय इतिहास के कुछ विषय- 1' के पहले चैप्टर 'ईटें, मनके तथा अस्थियां - हड़प्पा सभ्यता' को लेकर है. इस चैप्टर में राखीगढ़ी से मिले अवशेषों के आधार पर 'आर्यन माइग्रेशन' मतलब कि आर्यन बाहर से आए थे, इस बात को नकारने की कोशिश की गई है.
इतिहास के हिसाब से देखें तो 1920 में जब खुदाई के दौरान हड़प्पा सभ्यता के बारे में पता चला तो अंग्रेजी हुकूमत ने कहा कि यह सभ्यता पूर्व वैदिक काल की है और उन्होंने आर्य आक्रमणकारियों का सिद्धांत दिया. इस सिद्धांत के मुताबिक, उत्तर-पश्चिम से आए आर्यों ने हड़प्पा सभ्यता के इन लोगों पर हमला किया और इन्हें विंध्याचल माउंटेन रेंज के पार दक्षिण में खदेड़ दिया.
विंध्याचल माउंटेन रेंज मध्य प्रदेश को करीब-करीब बीच में से विभाजित करती है और गुजरात तक जाती है. यह माउंटेन रेंज नर्मदा से उत्तर में नदी के समांतर चलती है.
तब इतिहास का यह सिद्धांत सामने आया कि इन्हीं आर्यों ने 'हिंदू भारत' की नींव रखी. बाद में जब और शोध हुए तब इसी आर्य आक्रमणकारियों के सिद्धांत या 'आर्यन इन्वेजन थ्योरी' को ख़ारिज कर दिया गया और इतिहासकारों ने 'आर्यन माइग्रेशन' का सिद्धांत दिया. आर्यन माइग्रेशन थ्योरी के मुताबिक, सिंधु घाटी सभ्यता (यह हड़प्पा सभ्यता का ही दूसरा नाम है) के मुहाने पर आर्य उत्तर-पश्चिम (मौजूदा यूरेशिया) से मध्य एशिया होते हुए भारत पहुंचे और यहां अपनी संस्कृति शुरू की. इन्हीं आर्यों के डीएनए के आनुवांशिक मार्कर आज के उत्तर भारत की उच्च जातियों में मिश्रित तरीके से देखने को मिलते हैं.
इसी 'आर्यन माइग्रेशन' के सिद्धांत को अभी तक इतिहासकार मानते चले आ रहे थे. मगर हिंदुत्व की राजनीति करने वाले इस सिद्धांत से इत्तेफाक नहीं रखते और उनके मुताबिक 5000 साल पुरानी सभ्यता अभी तक भारतवासियों की रगों में दौड़ रही है. हिंदुत्व की राजनीतिक धारणा के मुताबिक, हड़प्पा सभ्यता ही आगे वैदिक सभ्यता में विकसित हुई और भारत से आर्य नस्ल के लोग (जो इनके मुताबिक भारत के मूल निवासी थे) दुनियाभर में फैले. हिंदूवादियों के मुताबिक, इसी वजह से यूरोप और भारत की भाषाएं (इंडो-यूरोपियन) इतनी मिलती जुलती हैं, मसलन मातृ और मदर, या त्रिकोणमिति और ट्रिगोनोमेट्री. उम्मीद यह पढ़ते हुए आपको बॉलीवुड फिल्म 'नमस्ते लंदन' में अक्षय कुमार की तथ्यों से परे स्पीच याद आ रही होगी.
स्वामी विवेकानंद से लेकर आरएसएस के नेता गोलवलकर तक ने इस बात को सही ठहराया था. जहां स्वामी विवेकानंद का यह कहना था कि आर्य भारत से ही आए थे और प्राचीन भारत में अफगानिस्तान भी शामिल था तो वहीं, गोलवलकर के मुताबिक आर्यों का मूल देश आर्कटिक था, लेकिन उत्तरी ध्रुव तब भारत में था.
हालांकि अभी तक हिंदुत्व के इस सिद्धांत का का सबूत हिंदूवादी पुख्ता तौर पर नहीं दे सके थे मगर हाल ही में एनसीईआरटी की इतिहास की किताब में जो बदलाव हुए हैं, वे हिंदू राष्ट्रवादियों की इसी बात को सही साबित करते नजर आते हैं. इसके लिए एनसीईआरटी की किताब में 2015 में हरियाणा के राखीगढ़ी में मिले अवशेषों को आधार बनाया गया है.
अब सवाल है कि इस राखीगढ़ी में ऐसे कौन से सबूत मिले जिनके आधार पर सालों से प्रचलित 'आर्यन माइग्रेशन' का सिद्धांत को खारिज हो गया?
इंडिया टुडे मैगजीन के 12 सितम्बर, 2018 के अंक में राखीगढ़ी में मिले अवशेषों पर एक कवर स्टोरी प्रकाशित हुई थी. काई फ्रेज अपनी इस स्टोरी की शुरुआत में ही कुछ अहम सवालों का जवाब देते हैं और बताते हैं कि ऐतिहासिक भारतीय नगर राखीगढ़ी से मिले कंकाल के डीएनए के अध्ययन ने कुछ ऐसे सबूतों का खुलासा किया है जो हिंदू राष्ट्रवादियों को असहज कर देंगे.
"प्रश्न- क्या हड़प्पा सभ्यता के लोग वैदिक हिंदू धर्म की संस्कृत भाषा और संस्कृति के मूल स्रोत थे? उत्तर- नहीं. प्रश्न- क्या उनके जीन भारत की वर्तमान जनसंख्या में एक महत्वपूर्ण घटक के रूप में जीवित हैं? उत्तर- निश्चित रूप से. प्रश्न- वे 'आर्यों' और 'द्रविड़ों' की लोकप्रिय धारणा में किसके करीब थे? उत्तर- द्रविड़ों के. प्रश्न- वे आज के 'दक्षिण भारतीयों' और 'उत्तर भारतीयों' में से किसके करीब थे? उत्तर- दक्षिण भारतीय." काई आगे लिखते हैं कि ये सारे प्रश्न निश्चित रूप से विवादास्पद हैं. इन निष्कर्षों पर पहुंचने के लिए उन्होंने पुरातत्ववेता तथा पुणे के डेक्कन कॉलेज के कुलपति डॉ वसंत शिंदे की अगुवाई वाली एक टीम के नतीजों का सहारा लिया था. डॉ वसंत शिंदे के नेतृत्व में ही राखीगढ़ी में खुदाई हुई थी.
इसी खुदाई के नतीजों के आधार पर काई फ्रेज ने अपनी 2018 की रिपोर्ट में बताया कि ये नतीजे विवादास्पद क्यों थे. उन्होंने लिखा, "सत्ता में आने के बाद से ही हिंदूवादी लॉबी ने भारतीय इतिहास को फिर से लिखने के अपने प्रोजेक्ट को तेज कर दिया है ताकि इतिहास को प्राचीन हिंदू ग्रंथों (वेदों) के सबसे स्वीकार्य कालक्रम के अनुरूप दिखाया जा सके और सिंधु घाटी सभ्यता को 'वैदिक' सभ्यता के रूप में पेश किया जा सके."
काई बताते हैं कि राखीगढ़ी में सिंधु घाटी सभ्यता से सम्बंधित जो 4500 वर्ष पुराना कंकाल मिला है, उसके डीएनए के नमूने इस लॉबी के मंसूबों पर पानी फेर सकते हैं. कंकाल के डीएनए से पता चला है कि प्राचीन राखीगढ़ी के निवासी 'प्राचीन दक्षिण भारतीय वंश' और 'ईरानी कृषि संप्रदाय' का मिला-जुला रूप थे. उनमें स्टेपी (पूर्वी यूरोप और मध्य एशिया में पाए जाने वाले घास के मैदान) में रहने वाले चरवाहों के जीन का कोई अंश नहीं पाया गया है, जिसका अंश आज की उत्तर भारतीय उच्च जातियों में प्रमुखता से पाया जाता है. इसी जीन के अंश को आर्यन जीन भी कहा जाता है.
इसका मतलब है कि सिंधु घाटी सभ्यता के निवासी और उसकी संस्कृति, वैदिक (हिंदू) सभ्यता की शुरुआत करने वाली आबादी से भिन्न थे क्योंकि उनमें वे जेनेटिक मार्कर ( अनुवांशिक लक्षण) नहीं मिले जो स्टेपी के आरंभिक प्रवासियों से मेल खाते हों. यह एक और प्रमाण है कि सिंधु घाटी सभ्यता पहले से अस्तित्व में थी. बाद में आए स्टेपी के प्रवासियों ने वैदिक हिंदू धर्म की शुरुआत की, न कि यह आरम्भ से विद्यमान था जैसा कि दावा किया जाता है.
काई अपनी रिपोर्ट में यह भी साफ करते हैं कि राखीगढ़ी के निष्कर्ष विशेषज्ञों की वेदों को लेकर उन मान्यताओं को मजबूत करते हैं कि वेद 1500 ईसा पूर्व के हैं. यही वह दौर था जब सिंधु घाटी के शहरों का पतन हो चुका था और उत्तर पश्चिम के स्टेपी मैदानों से आए लोग भारत में बस गए.
राखीगढ़ी में मिले कंकाल का डीएनए, दक्षिण भारतीय जनजातीय आबादी के डीएनए से काफी हद तक मेल खाता है जो यह भी बताता है कि सिंधु घाटी संस्कृति के मूल निवासी कोई द्रविड़ भाषा बोलते थे. हालांकि इससे दक्षिण भारतीय राजनैतिक दलों को अपना पुराना दावा मजबूत करने में बल मिलेगा जिसके मुताबिक द्रविड़ ही भारत के मूल निवासी हैं. लेकिन उत्तर भारत की हिंदूवादी राष्ट्रवाद की लोकप्रिय व्याख्या के लिए इसे पचाना बड़ा मुश्किल होगा.
कितने हिंदू थे हड़प्पावासी? इस सवाल के जवाब में इतिहासकार और जेएनयू की प्रोफेसर रोमिला थापर ने 2018 में इंडिया टुडे से बातचीत में बताया था, "सिंधु घाटी सभ्यता प्रमुख तौर पर शहरी और शिक्षित थी, जबकि वैदिक लोग मूल रूप से कृषि और देहाती पृष्ठभूमि के थे, नगरीय सभ्यता और लिपि के प्रयोग से अनजान थे."
हॉवर्ड मेडिकल स्कूल के जेनेटिसिस्ट डेविड राइक ने इस मामले में कहा था, "जेनेटिक्स से यह पता नहीं चल सकता कि सिंधु घाटी के अंत में क्या हुआ, लेकिन इससे हमें यह पता चल सकता है कि उनकी एकदम अलग वंश-परंपरा वाले लोगों में मुठभेड़ हुई. मिश्रण ही प्रवासियों के आने का सबूत नहीं लेकिन यह पता चलता है कि हड़प्पा सभ्यता के पतन के वक्त आबादी में बदलाव हुआ."
राखीगढ़ी की बात करें तो 1963 से ही पुरातत्व खनन से राखीगढ़ी की पहचान सिंधु घाटी सभ्यता के एक अहम शहरी स्थल के रूप में हो गई. हालांकि हाल में जेनेटिक्स विश्लेषण में हुई प्रगति से उस प्राचीन शहर से मिले एक कंकाल के डीएनए परीक्षण के लिए नमूना निकालना संभव हो पाया. कुछ शोधकर्ताओं के पहले के शोध के आधार पर तैयार राखीगढ़ी के नतीजे यह बताते हैं कि सिंधु घाटी सभ्यता के आखिरी चरण में यूरेशिया के स्टेपी मैदान से एक बड़ी आबादी इधर आई.
काई लिखते हैं, "महत्वपूर्ण यह भी है कि दक्षिण एशिया और उत्तरी यूरोप के प्रागैतिहासिक काल में समानता है क्योंकि स्टेपी के मैदान से दोनों ही उपमहाद्वीपों की ओर आबादी बढ़ी. ये प्रवासी दोनों की आबादी में घुले-मिले और इसी से दोनों में भाषाई समानताओं को समझने में भी मदद मिलती है."
इस रिपोर्ट के ठीक एक साल बाद काई फ्रेज ने इसी मुद्दे पर एक और रिपोर्ट लिखी, जिसका शीर्षक था - 'अध्ययन की असली बात ही दफ़न'. दरअसल प्राचीन हड़प्पावासियों और दूसरों के डीएनए विश्लेषण से जुड़े दो शोधपत्रों का लंबे समय से इंतजार हो रहा था. सितंबर, 2019 में ये शोधपत्र करीब-करीब एक साथ ही जारी हुए. इससे यह सवाल कुछ और उलझन भरा लगने लगा था कि प्राचीन हड़प्पावासी लोग कौन थे, कहां से आए थे, उनका क्या हुआ और आज के भारतीय नागरिकों से उनका क्या रिश्ता है?
काई बताते हैं कि कैसे दोनों शोधपत्रों की बेहद स्पष्टता के बावजूद, कुछ ही घंटों में मीडिया और सोशल मीडिया भी उन पर टूट पड़ा और उनके निष्कर्षों के उलट निष्कर्ष पेश करने लगा था. खासकर 2014 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद से मंत्री स्तर के लोगों के दबाव और कथित तौर पर देसी सिद्धांत को आगे बढ़ने के कारण, जिसके मुताबिक हड़प्पा सभ्यता ही 'वैदिक' सभ्यता थी, यह मुद्दा राजनैतिक रंग लेने लगा. इन्हीं सक्रियताओं की वजह से राखीगढ़ी से हड़प्पावासियों के डीएनए विश्लेषण की परियोजना को लेकर चर्चा तेज हो गई. जहां हिंदूवादी इसके परिणामों को लेकर आशान्वित थे कि यह उनके दृष्टिकोण को सही ठहराएगा तो वहीं असल में विज्ञान पर भरोसा करने वाले लोग इस बात का जवाब जानना चाहते थे कि हड़प्पन लोग कौन थे.
सितम्बर, 2019 की अपनी रिपोर्ट में काई लिखते हैं, "पिछले (2018 के) मार्च में हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी के जीन-विज्ञानी डेविड राइक (जो वसंत शिंदे के रिसर्च पेपर में भी सह-लेखक हैं) की अगुआई में शोधकर्ताओं के एक दल ने शायद डेक्कन कॉलेज के वसंत शिंदे की राखीगढ़ी परियोजना के नतीजों को भांपते हुए अपने एक अध्ययन का एक ऑनलाइन प्रिंट जारी कर दिया. इस अध्ययन के मुताबिक, सिंधु घाटी सभ्यता से इतर ईरान और तुर्केमेनिस्तान के कई प्राचीन स्थलों में कई लोगों के अस्थि-पंजर ऐसे पहचाने गए हैं जो 'बाहरी' थे और जो हड़प्पा सभ्यता मूल के थे."
इससे यह बात साफ़ होती दिखती है कि हड़प्पा मूल के लोगों ने भी मध्य एशिया की तरफ प्रवास किया था. हालांकि इससे यह भी जाहिर नहीं होता मध्य एशिया या स्टेपी (घास के मैदान वाले) इलाके से लोग भारत की तरफ नहीं आए थे.
इसके करीब साल भर बाद 2019 में राखीगढ़ी पर दो शोध-पत्र जारी किए गए - एक शिंदे की अगुवाई वाले खुदाई के नतीजों से जुड़ा और दूसरा हॉर्वर्ड ने एक अध्ययन-पत्र जारी किया जिसे इन्हीं वसंत शिंदे, वी. नरसिंहन और डेविड राइक ने शोधकर्ताओं की पूरी टीम के साथ तैयार किया था.
इन रिपोर्ट्स के मुताबिक, शिंदे की शोध टीम ने पाया कि दोनों अध्ययनों में सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों के नमूनों से पता चलता है कि वहां आज के अंडमानी आदिम लोगों से जुड़े 'दक्षिण भारतीय आदिवासियों' और करीब 12,000 साल पहले प्राचीन ईरानियों की एक शाखा की मिश्रित आबादी थी. इस निष्कर्ष से पहले के उन सिद्धांतों का खंडन होता है जिसके मुताबिक ईरानी कृषि-सभ्यता से जुड़ाव अपेक्षाकृत बाद का है.
इससे यह संभावना भी उभरती है कि उत्तर-पश्चिम भारत में खेती का पश्चिम एशिया के 'उपजाऊ इलाकों' से कोई सीधा संबंध नहीं है. दोनों ही शोध-पत्रों से यह भी साबित होता है कि सिंधु घाटी की वंश परंपरा उपमहाद्वीप में आधुनिक भारतीयों के जीनोम में अहम है. लेकिन शिंदे इस बात को छुपाने की कोशिश करते दिखे जो भारत के लोगों के लिए बेशक चौंकाने वाली सुर्खियां हैं. वह यह कि आधुनिक भारतीयों के पशुपालक जातियों की वंशावली सिंधु घाटी सभ्यता में नहीं है और उसका संबंध ईसा पूर्व दूसरी सहस्राब्दी में सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के बाद दक्षिण एशिया में बड़े पैमाने पर आए इंडो-यूरोपियन (या इंडो-आर्य) बोलियां बोलने वाले लोगों से है. यही तथ्य सीधा-सीधा हिंदूवादियों के उस तर्क को ख़ारिज कर देता है जिसमें वह हड़प्पा सभ्यता को ही वैदिक सभ्यता बताने की कोशिश करते दिखते हैं.
2019 की एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान भारतीयों को इस प्राचीन वंश परंपरा पर 'गर्व' महसूस करने की सलाह देते हुए शिंदे ने कहा, "भारतीय जीन बदल नहीं गया है." उनकी प्रेस विज्ञप्ति में तो यह तक दावा किया गया कि "हमारी इस अवधारणा को प्राचीन डीएनए अध्ययनों के आधार पर पुख्ता वैज्ञनिक साक्ष्य मिला है कि हड़प्पा में वैदिक लोग ही थे."
काई लिखते हैं, "डॉ शिंदे के इन बयानों को उपरोक्त दो अध्ययनों से मिलाना काफी मुश्किल है जिनमें आर्यों के बाहर से आने की बात कही गई थी. लेकिन हिंदुत्ववादी हलकों में इसे काफी उत्साह से स्वीकार किया गया और मीडिया में भ्रामक खबरें आईं. इस तरह शिंदे टोली ने इस पर अपनी मुहर लगा दी कि दक्षिण एशिया में इंडो-यूरोपियन भाषाओं का प्रसार पूर्वी यूरोप से मध्य एशिया के रास्ते ईसा पूर्व दूसरी सहस्त्राब्दि के पहले हिस्से में हुआ. ट्रांसमिशन की यह श्रृंखला अब प्राचीन डीएनए विश्लेषण के ब्यौरों से स्पष्ट है.''
इसके बाद शिंदे ने इकोनॉमिक टाइम्स अख़बार को दिए एक बयान में यह तक कह दिया, ''कोई आर्यन इनवेजन और इमिग्रेशन नहीं हुआ.'' काई थोड़ी नाराजगी भरे स्वर में इस बयान के बारे में लिखते हैं, "उन्होंने यह परवाह नहीं कि जो लोग दोनों अध्ययन-पत्रों को पढेंगे, वे क्या कहेंगे? शायद कुछ लोग उनकी प्रशंसा न कर पाएं लेकिन उन्हें राजनैतिक रूप से सही रहना ही ठीक लगा. लगता है, अब भारत में राजनैतिक रूप से संवेदनशील शोध में भी विद्वानों ने दोहरी बोली का तरीका निकाल लिया है."
अब हाल के एनसीआरईटी के इतिहास की किताब में हुए बदलावों को देखें तो यह एक तरीके से अपनी विचारधारा को पुख्ता करने वाली एक राजनैतिक रणनीति लगती है. जैसे, परिषद ने राखीगढ़ी में हालिया डीएनए अध्ययन पर तीन नए पैराग्राफ जोड़े हैं जो मुख्य रूप से आर्यन इमिग्रेशन को खारिज करते हैं और इस बात पर जोर देते हैं कि 'हड़प्पावासी इस क्षेत्र के मूल निवासी हैं.'
इसके अलावा हड़प्पा और वैदिक लोगों के बीच संबंधों पर अधिक शोध की मांग करते हुए एक वाक्य भी जोड़ा गया है. इसमें कहा गया है, "हड़प्पा और वैदिक लोगों के बीच संबंधों पर भी अधिक शोध की आवश्यकता है क्योंकि कुछ विद्वानों ने तर्क दिया है कि हड़प्पा सभ्यता और वैदिक सभ्यता के लोग एक ही थे."
राखीगढ़ से मिले जिन अवशेषों के आधार पर आर्यों से जुड़े सिद्धांत को लेकर इतिहासकार भी अपनी बात पूरी तरह से नहीं रख पाए हों, उसकी एक-तरफा व्याख्या देश की नई पीढ़ी की इतिहास की समझ को विकृत ही करेगी.