अमेठी सीट का वो किस्सा, जिसने नेहरू-गांधी परिवार के दो टुकड़े कर दिए

1984 के लोकसभा चुनाव में अमेठी दो कांग्रेसी बहुओं के बीच प्रतिस्पर्धा का गवाह बना था

मेनका को समझ आ गया था कि सत्ता में कांग्रेस की ही वापसी होने वाली है मगर अमेठी में अपना किला मजबूत करने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी/इंडिया टुडे मैगजीन
अपने पति राजीव गांधी के साथ सोनिया (बाएं), मेनका गांधी (दाएं) /इंडिया टुडे मैगजीन

लोकसभा चुनाव 2024 के लिए कांग्रेस की तरफ से प्रत्याशी घोषित करने से पहले उत्तर प्रदेश की अमेठी और रायबरेली हॉटसीट्स बनी हुई थीं. हर तरह के कयास सूत्रों के हवाले से वायरल किए जा रहे थे. जब यह घोषणा हुई कि राहुल गांधी अमेठी से नहीं रायबरेली से लड़ेंगे, तब किसी ने इसे कांग्रेस का मास्टरस्ट्रोक बताया तो किसी ने उनके स्मृति ईरानी से डरने की बात कही. 

हालांकि ऐसा पहली बार नहीं है कि अमेठी सीट पर इतनी अटकलबाजियां हुईं हों. 1984 के बहुचर्चित लोकसभा चुनाव में यह सीट खुद गांधी परिवार की अंदरूनी कलह का गवाह बनी जब मेनका गांधी ने राजीव गांधी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था. 1984 की इस कलह को खोलने से पहले थोड़ा इस सीट का राजनैतिक इतिहास समझना बेहतर है.

1967 में उत्तर प्रदेश की लोकसभा सीटों का जब परिसीमन हुआ, तब पांच विधानसभाओं - तिलोई, सलोन, जगदीशपुर, गौरीगंज और अमेठी - को मिलाकर अमेठी संसदीय क्षेत्र बनाया गया. कांग्रेस के विद्याधर बाजपेई इसी साल यहां से पहले सांसद चुने गए और 1977 तक बने रहे. ज्यादातर लोगों को ऐसा लगता है कि 2019 ही वह पहला मौका था जब अमेठी से किसी गांधी परिवार के सदस्य की हार हुई हो, मगर ऐसा नहीं है.

1977 में अमेठी से पहली बार संजय गांधी ने चुनाव लड़ा था मगर इमरजेंसी और विपक्ष की लहर की वजह से वे जनता पार्टी के रविंद्र प्रताप सिंह से हार गए. इससे आगे की कहानी जानने के लिए हमने सहारा लिया इंडिया टुडे मैगजीन की 31 दिसंबर 1984 अंक में छपी सुनील सेठी की रिपोर्ट का जिसमें उन्होंने अमेठी सीट पर राजीव और मेनका के बीच हुए 1984 के दंगल के बारे में काफी कुछ बताया है. 

इंडिया टुडे मैगजीन के 31 दिसंबर, 1984 के अंक में छपी रिपोर्ट

सुनील सेठी अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं, "गांधी भाइयों में से छोटे की जोरदार अस्वीकृति के कारण अमेठी पर गुमनामी में जाने का साया मंडरा रहा था. मगर संजय ने दोबारा लड़ने का फैसला लिया और 1980 के आम चुनाव में अमेठी के लोगों ने उन्हें जोरदार तरीके से अपना नेता चुना."

1980 में अमेठी से सांसद बनने के 6 महीने के बाद ही संजय गांधी की प्लेन-क्रैश में मृत्यु हो गई. इंदिरा अपना 'उत्तराधिकारी' खो चुकी थीं और एक सफल पायलट के रूप में अपने परिवार के साथ जीवन व्यतीत कर रहे राजीव गांधी को अनायास ही उस राजनीति का रुख करना पड़ा जिसकी उन्हें कभी चाह भी नहीं थी. 

जून, 1981 में राजीव गांधी को संजय गांधी की अमेठी सीट सौंप दी गई और बताने की जरूरत नहीं है कि यहां हुए उपचुनावों में उनकी जीत हुई. ऊपर से देखने में यह कहानी कितनी सामान्य लगती है कि एक भाई के निधन के बाद दूसरे भाई ने उसकी कमी को पूरा करने का प्रयास किया, मगर 'घर-घर की कहानी' अभी बाकी थी. अमेठी की जनता का तमाशा देखना अभी बाकी था. 

जब इंदिरा ने राजीव को अमेठी सीट सौंपी तो उनकी पत्नी मेनका गांधी को यह बात बहुत नागवार गुजरी. उनके मुताबिक, वह सीट उन्हें मिलनी चाहिए थी और अपना हक़ उन्होंने खुद लेने की भी ठानी. 1981 के अमेठी उपचुनाव के दौरान मेनका बमुश्किल 25 साल की भी नहीं थीं और कानूनन चुनाव नहीं लड़ सकती थीं. मगर 1981 के बाद से उन्होंने संजय के साथियों से संपर्क साधना शुरू जो दोस्ती में अपनी वफादारी के लिए बदनाम थे. 

ऐसे ही एक वफादार साथी अकबर अहमद ने लखनऊ में 1982 में एक आयोजन किया जिसमें मेनका गांधी ने भाषण दिया और बढ़-चढ़कर राजनीति में शामिल होने की बात कर डाली. यह बात इंदिरा को लंदन तक पहुंचाई गई और भारत लौटते ही वह मेनका पर फट पड़ीं. इंदिरा ने मेनका को घर छोड़ने की बात तक कह डाली जिसके बाद मेनका ने तुरंत अपना सामान बांधा और 2 साल के वरुण को लेकर घर से निकल गईं. घर से निकलते ही मीडिया के कैमरे चमकने लगे और अगले दिन अख़बार की सुर्ख़ियों ने पूरे देश को बता दिया कि इंदिरा ने अपनी छोटी बहु को घर से निकाल दिया है. 

प्रधानमंत्री आवास छोड़कर अपने बेटे वरुण के साथ जातीं मेनका गांधी/इंडिया टुडे

इंडिया टुडे मैगजीन की रिपोर्ट के मुताबिक, मेनका गांधी ने 1981 में एक दोस्त को कहा, "संजय के काम करने का तरीका सबको मिलाकर शासन करने का था. उनके वफादार इसीलिए हमेशा उनके वफादार बने रहे. लेकिन मम्मी लोगों को बांटकर शासन करना चाहती हैं, लोगों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करना चाहती हैं, और कठपुतलियों के सहारे राज करना चाहती हैं. उन्हें घोर अव्यवस्था के सिवाय और इन सब से मिलेगा भी क्या?" 

प्रधानमंत्री आवास छोड़ने के बाद मेनका ने अकबर अहमद के साथ मिलकर राष्ट्रीय संजय मंच बनाया और अमेठी में आना-जाना करने लगीं. 31 अक्टूबर, 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई थी और राजीव गांधी अब प्रधानमंत्री थे. अब अमेठी की सीट पर मेनका का सामना अपने जेठ से नहीं बल्कि देश के प्रधानमंत्री से था. इसके अलावा इंदिरा की हत्या के बाद उपजी सहानुभूति तो थी ही. 

मेनका झुकी नहीं और पूरी जोर लगाकर लड़ीं. उन्हें समझ आ गया था कि सत्ता में कांग्रेस की ही वापसी होने वाली है मगर अमेठी में अपना किला मजबूत करने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी. अपनी जनसभाओं में मेनका कहा भी करती थीं, "राजीव जी, आप देश की फ़िक्र कीजिए. अमेठी की फ़िक्र आप मेनका पर ही छोड़ दीजिए."

मेनका अक्सर खुद को 'थर्ड पर्सन' में संबोधित किया करती थीं और नारा दिया करती थीं कि 'मेनका नाम नहीं आंदोलन है'.

सुनील सेठी अपनी 1984 की इंडिया टुडे मैगजीन की रिपोर्ट में लिखते हैं, "राजीव-मेनका की इस जंग को भारत के चुनावी सर्कस का सबसे रोमांचक और साहसी मुकाबला माना जा रहा था, जिसमें राजीव की हार को पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता था." 

1983-84 में मेनका गांधी 22 बार अमेठी जा चुकी थीं और गांव-गांव घूमकर अपना प्रचार कर रही थीं. राजीव गांधी के गाड़ियों के काफिले के खिलाफ मेनका एक खुली जीप में जब लोगों के बीच जातीं तो लगता मानो किसी फिल्म की शूटिंग चल रही है. मेनका अमेठी सीट से निर्दलीय प्रत्याशी भले थीं मगर उनके चुनाव प्रचार के पीछे संजय गांधी के साथियों का पूरा एक कुनबा था. 

खुली जीप में अमेठी में चुनाव प्रचार करतीं मेनका गांधी/इंडिया टुडे मैगजीन

1984 के लोकसभा चुनावों के लिए अमेठी में कांग्रेस के चुनाव प्रचार के बारे में सुनील सेठी अपनी इंडिया टुडे मैगजीन की रिपोर्ट में बताते हैं, "राजीव के चुनाव प्रचार में पूरा अमेठी रंग दिया गया था. क्या कच्चे तो क्या पक्के मकान, सभी राजीव के चेहरे से ढंके थे. 'आपका दाहिना हाथ राजीव', 'अमेठी का नाम विकास, विकास का नाम राजीव' और 'तरक्की के साथ चलो, राजीव के साथ बढ़ो' नारों की एक पूरी फेहरिस्त ने अमेठी की गलियों को लील लिया था. राजीव और सोनिया की रंगीन तस्वीरों वाले पोस्टर ने अमेठी को राजीव का वंडरलैंड बना दिया था." 

तमाम ओपिनियन पोल इस बात की गवाही देने लगे थे कि राजीव निर्विरोध अमेठी से जीत रहे हैं, बावजूद इसके कांग्रेस ने जिस तरह से अमेठी के चुनाव प्रचार में पैसा बहाया था वह अभूतपूर्व था. राजीव ने भी अपने भाषणों में मेनका पर निशाना साधने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. वे कहते थे, "क्या उन्होंने (मेनका) बताया है कि वे अमेठी के लिए क्या विकास करेंगी? अभी तक उन्होंने सिर्फ बाहरी कार्यकर्ताओं को अमेठी में लाकर आपको बरगलाने का काम किया है. अगर इन कार्यकर्ताओं के क्षेत्र में जाकर उनके बारे में पता करेंगे तो ज्यादातर का नाम आपको पुलिस की फाइलों में मिलेगा."

मेनका की धार और भी तेज थी. उन्होंने अपनी एक जनसभा के दौरान कहा, "विकास? क्या यही वो विकास है जिसके बारे में इतनी बातें की जा रही हैं? वही झोपड़ियां, वही कुपोषित बच्चे, वही कच्ची सड़कें. जब संजय इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर रहे थे तो उन्होंने यहां के लिए काफी यथार्थवादी सपना देखा था. भारी-भरकम फैक्टरियों की जगह संजय गांवों के लिए कुटीर उद्योग, स्कूल और पॉलिटेक्निक कॉलेज खोलना चाहते थे ताकि यहां के युवाओं को रोजगार मिल सके. वे छोटी डिस्पेंसरीज खोलना चाहते थे जिसमें गरीबों का इलाज हो, ना कि बड़े अस्पताल जिसमें संपन्न वर्ग के लोगों तक ही स्वास्थ्य की सुविधा सीमित रहे." 

अपने भाषणों में मेनका ने स्वर्गीय इंदिरा गांधी को भी नहीं छोड़ा था. वे कहती थीं, "श्रीमती गांधी याद हैं आपको? जब उनका सुहाग उजड़ा तब वे अपने पति के संसदीय क्षेत्र रायबरेली में गईं और लोगों से वोट मांगे. लोगों ने वोट दिया भी और कुछ वक्त तक रायबरेली ने खूब तरक्की देखी. मगर जब से वह प्रधानमंत्री बनीं, रायबरेली पर उन्होंने ध्यान देना छोड़ दिया. अगर आप राजीव जी वोट देंगे तो यहां भी ऐसा ही होगा."

अमेठी के इस महामुकाबले में सोनिया गांधी की भी कम भूमिका नहीं थी. सुनील सेठी अपनी रिपोर्ट में बताते हैं, "मेनका के जज्बे में यह बात भी सेंध लगा रही होगी कि अमेठी की दूसरी बहू, राजीव की पत्नी सोनिया, अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में कोई कसर नहीं छोड़ रही हैं. जब राजीव अपने राष्ट्रव्यापी दौरे पर थे, तब सोनिया ने अरुण सिंह की पत्नी नीना के साथ अमेठी में डेरा डाला; और जब वह वहां प्रचार के लिए पहुंचे तो सोनिया भी सामने आईं, हथकरघा साड़ी में सिर ढंके हुए, लाल बिंदी और लाल चूड़ियां पहने हुए." 

अमेठी में चुनाव प्रचार के दौरान राजीव गांधी के साथ मंच साझा करतीं सोनिया गांधी/इंडिया टुडे मैगजीन

जब लोकसभा चुनाव के नतीजे आए तो मेनका गांधी की काफी बुरी हार हुई थी. राजीव गांधी को अमेठी में 84 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिले थे और 1991 में अपनी हत्या तक वही अमेठी के सांसद बने रहे. मेनका ने इस हार के बाद दोबारा मुड़कर कभी अमेठी को नहीं देखा और 1988 में जनता दल में शामिल हो गईं. 2004 में मेनका भाजपा में आईं और अभी तक वहीं हैं. अमेठी छोड़ने के बाद उन्होंने सुल्तानपुर को अपना गढ़ बनाया और 2024 में भी इसी सीट से भाजपा की प्रत्याशी हैं. उनके बेटे वरुण भाजपा से पीलीभीत के सांसद रह चुके हैं मगर इस बार पार्टी ने उन्हें टिकट नहीं दिया.    

अमेठी संसदीय क्षेत्र का इतिहास/ग्राफ़िक्स - नीलिमा सचान

राजीव की हत्या के बाद राजनीति से दूरी बना चुकीं सोनिया गांधी 1999 के लोकसभा में अमेठी से खड़ी हुईं और जनता का उन्हें भरपूर आशीर्वाद मिला. 2004 में उन्होंने अमेठी की सीट अपने बेटे राहुल गांधी को सौंप दी जो लगातार तीन बार वहां से सांसद बने. 2019 में स्मृति ईरानी ने राहुल को अमेठी से हरा दिया और कइयों के मुताबिक यहीं उनके राजनीतिक करियर का हाई-पॉइंट भी रहा. 

अब राहुल गांधी के रायबरेली से लड़ने के बाद कांग्रेस समर्थक यह कह रहे हैं कि उन्होंने स्मृति ईरानी से उनके जीवन की सबसे बड़ी उपलधि ही छीन ली और किशोरी लाल शर्मा को टिकट दे दिया. पहली बार सांसद बनने के बाद 1983 से ही किशोरी लाल शर्मा अमेठी में राजीव गांधी के प्रतिनिधि रहे हैं और इसलिए उनको टिकट दिए जाने पर लोगों का कहना है कि यह सीट अभी भी गांधी परिवार के ही पास है.

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