इंडिया टुडे आर्काइव : जब एक अमेरिकी इतिहासकार ने भारतीयों को संविधान बदलने के खिलाफ चेताया...

भारतीय संविधान के विशेषज्ञ और अमेरिकी इतिहासकार ग्रैनविल ऑस्टिन ने इंडिया टुडे मैगजीन के 31 जनवरी, 2000 के अंक के लिए यह आलेख लिखा था

Article 1 of the Indian constitution defines the name of our country as “India, that is Bharat shall be the union of states”.
प्रतीकात्मक तस्वीर

मैं भारत का अध्येता होने के नाते इस देश से मुझे गहरा लगाव है. इसके आकर्षक संवैधानिक इतिहास के छात्र के रूप में, मैं दिल्ली उस समय लौटा हूं जब एक बार फिर संविधान की “समीक्षा” करने की बातें हवा में तैर रही हैं. 

मुझे जो मुद्दे दिखाई दे रहे हैं, वे नए नहीं हैं : न्यायपालिका की भूमिका और स्वतंत्रता, राष्ट्रपति तथा राज्यपालों के अधिकार, सरकारों की स्थिरता, राजनीतिक दलों की भूमिका और दल-व्यवस्था का कामकाज, विभिन्न समूहों के लिए सीटों का आरक्षण, अनुच्छेद-356 का उपयोग, और इसी तरह के मुद्दे. 

संविधान की “समीक्षा” करना भी नया नहीं है. 1950 के बाद अब तक पांच बड़ी “समीक्षाएं” हो चुकी हैं. मैंने अपनी पुस्तक में, जो 1950 से संविधान के कामकाज के इतिहास पर है, इन सबकी चर्चा की है. पहली समीक्षा 1950 में शुरू हुई, 1951 में पूरी हुई और इसके परिणामस्वरूप नवीं अनुसूची (Ninth Schedule) अस्तित्व में आई, जिसमें सरकार द्वारा चुने गए कानूनों को न्यायिक समीक्षा से परे रखा गया.

दूसरी समीक्षा 1954 में कांग्रेस वर्किंग कमिटी की एक उप-समिति ने की थी. इसमें न्यायपालिका-विरोधी भावनाएं इतनी तीखी थीं कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें संविधान में शामिल होने से रोक दिया. तीसरी समीक्षा 1967 के गोलकनाथ फैसले से शुरू हुई,  नाथ पाई विधेयक तक चली और 24वें संशोधन के रूप में परिणाम निकला. इसमें घोषणा की गई कि संसद संविधान में जोड़कर, बदलकर या हटा करके संशोधन कर सकती है. यह समीक्षा केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट “मूल संरचना सिद्धांत” (basic structure doctrine) के साथ समाप्त हुई. 

चौथी समीक्षा 1976 में स्वर्ण सिंह समिति ने की थी, जिसके बाद 42वां संशोधन हुआ. यह संशोधन देश के लोकतंत्र को नष्ट कर सकता था अगर यदि पांचवीं समीक्षा न हुई होती और जनता पार्टी सरकार के सुधारात्मक 43वें और 44वें संशोधन लागू न होते. 

इसके बाद अगली समीक्षा 1980 के दशक में हुई : जस्टिस रंजीत सिंह सरकारिया की केंद्र-राज्य संबंधों पर रिपोर्ट - जो उत्कृष्ट थी, लेकिन उसे बड़े पैमाने पर नजरअंदाज कर दिया गया. इन पिछले सभी समीक्षाओं से जो स्थाई सबक मिलता है, वह यह है कि अगर संविधान की समीक्षा करनी ही है तो बेहत सावधानी से आगे बढ़ना चाहिए. 

बहुत सतर्कता बरतने के गंभीर कारण मौजूद हैं. संविधान निष्क्रिय होते हैं. वे अपने आप “काम” नहीं करते;  नागरिक और सरकारें उनसे अपना काम “चलाती” हैं. जैसा कि संयुक्त राज्य अमेरिका के मुख्य न्यायाधीश जॉन मार्शल ने 1821 में कहा था: “संविधान आने वाली सदियों के लिए बनाया जाता है, और इसका उद्देश्य मानवीय संस्थाओं के लिए जितना संभव हो उतना अमरत्व के करीब पहुंचना होता है. इसका मार्ग हमेशा शांत नहीं रह सकता.” वे मनुष्यों के कार्यों को दिशा दे सकते हैं और राजनीतिक कार्यों की सीमाएं निर्धारित कर सकते हैं, लेकिन वे मानवीय चरित्र को सुधार या बेहतर नहीं बना सकते.

किसी भी देश की राजनीति मुख्य रूप से उसकी परिस्थितियों और उसकी संस्कृति से उत्पन्न होती है. जब बात ऐसी है, तो क्या आज रात संविधान में संशोधन कर दिया जाए तो कल इस देश की राजनीति अलग हो जाएगी?

हाल के लेखों और चर्चाओं में संविधान पर कई असफलताएं और कमजोरियां थोपी जा रही हैं, जिन्हें तर्कसंगत रूप से संविधान का दोष नहीं कहा जा सकता. यह बेतुका होगा- जैसा कि कुछ लोग सुझा रहे हैं कि गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की जरूरतें पूरी करने या विदेशी निवेशकों के दायित्व निर्धारित करने के लिए संविधान में संशोधन किया जाए. बाद वाला काम तो कानून से बेहतर तरीके से किया जा सकता है. वहीं गरीबों की मदद के उपाय संविधान में पहले से ही पर्याप्त रूप से वर्णित हैं. वे पूरे नहीं हो पा रहे हैं क्योंकि समस्याएं बहुत बड़ी हैं और मौज काटने वालों को अभावों के बीच रहने वालों की परवाह नहीं है.

अमेरिकी राष्ट्रपति प्रणाली और “सीधे चुने जाने वाले प्रधानमंत्री” के समर्थक शायद इन दोनों की मुश्किलों से अनजान हैं. सरकारें संवैधानिक संशोधन से नहीं, बल्कि गुटबाजी और उसके कारणों के कम होने से स्थिर होंगी. जैसे कोई माली जानता है कि जड़ों की सेहत देखने के लिए पौधा उखाड़ने से वह मर सकता है, वैसे ही भारत के संविधान की पिछली समीक्षाओं ने संविधान निर्माताओं के मूल इरादों की दृष्टि से इसे लाभ से ज्यादा नुकसान पहुंचाया है. खुद जवाहरलाल नेहरू भी नौंवी अनुसूची के मामले में गलत थे, जैसा कि अब व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है. इसलिए “संविधान की समीक्षा” का विचार कुछ गंभीर सवाल खड़े करता है.

पहला, समीक्षा से कौन-से राष्ट्रीय उद्देश्य या लक्ष्य पूरे होंगे, और क्या संविधान में संशोधन करके हम उन नेक उद्देश्यों के और करीब पहुंच जाएंगे जो पहले से ही संविधान में व्यक्त हैं?
दूसरा, संविधान की समीक्षा के विचार मात्र से नागरिकों की क्या प्रतिक्रिया होगी, क्योंकि संविधान तो उनका अपना है?

तीसरा, समीक्षा शुरू करने का- संशोधन से अलग- नैतिक और राजनीतिक अधिकार किसके पास है, और समीक्षा की प्रक्रिया तय करने का अधिकार किसे है, जिसमें यह तय करना भी शामिल है कि समीक्षा करने वाले कौन होंगे?

चौथा, समीक्षा शुरू करने के राष्ट्रीय परिणाम क्या होंगे, और क्या वे परिणाम आगे आने वाले किसी भी संवैधानिक बदलाव के सुझावों से अधिक भारी होंगे? पांचवां, क्या समीक्षा की पूरी प्रक्रिया जनता के सामने होगी?

मेरी निजी राय में संविधान को समीक्षा करने से कहीं ज्यादा उसकी अक्षरशः और भावना से पालना करने की जरूरत है.

(यह आलेख इंडिया टुडे मैगजीन के 31 जनवरी, 2000 के अंक में प्रकाशित हुआ था)

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