लोकसभा चुनाव से पहले मायावती की खामोशी का राज क्या है?
हर लोकसभा चुनाव में सबसे पहले उम्मीदवार घोषित करके लीड लेने वाली बसपा सुप्रीमो मायावती इस बार अप्रत्याशित रूप से शांत दिख रही हैं और इस बीच कांग्रेस-बसपा गठबंधन की अटकलें भी लगने लगी हैं

लोकसभा चुनाव से पहले यह पहली बार है कि बहुजन समाज पार्टी (बसपा) अप्रत्याशित रूप से शांत पड़ी हुई है. पहले के हर चुनाव के काफी पहले अपने उम्मीदवारों की घोषणा कर लीड लेने वाली बसपा सुप्रीमो मायावती इस बार बिल्कुल ही खामोश हैं.
लोकसभा चुनाव की घोषणा का समय जिस तरह नजदीक आ रहा है, मायावती की अचानक चुप्पी से पार्टी कैडर में भी संशय फैला हुआ है. सोशल मीडिया प्लेटफार्म 'एक्स' पर भी मायावती की खामोशी दिखाई दे रही है. पिछले करीब दस दिनों से बसपा सुप्रीमो ने इस पर कोई भी पोस्ट शेयर नहीं की है.
मायावती ने आखिरी बार 28 फरवरी को यूपी में बसपा सरकार के दौरान महाधिवक्ता रहे ज्योतींद्र मिश्र के निधन पर शोक संवेदनाएं इस सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर प्रकट की थीं. इसके बाद से वे खामोश हैं.
बसपा नेता और कार्यकर्ता मानते हैं कि उन्हें भी नहीं पता कि मायावती के दिमाग में क्या चल रहा है. लेकिन, यह देखते हुए कि पार्टी ने 2022 के विधानसभा चुनावों के बाद से जमीन पर बहुत कुछ हरकत नहीं दिखाई है, ऐसे में लोकसभा चुनावों में किसी भी 'चमत्कारिक' वापसी का सवाल ही नहीं है.
हाल के राज्यसभा चुनावों में, भाजपा को वोट देने के पार्टी के आह्वान से बसपा नेता आश्चर्यचकित रह गए थे. 27 फरवरी को हुए मतदान में सपा के विधायकों की क्रॉस वोटिंग के बाद भाजपा अपना आठवां उम्मीदवार भी राज्यसभा चुनाव में जिताने में सफल हो गई थी. उधर यूपी विधानसभा में बसपा के एकमात्र विधायक उमाशंकर सिंह ने भी भाजपा के पक्ष में मतदान किया था जबकि उनके पास मतदान से गायब रहने का विकल्प था.
उमाशंकर उस विधायक समूह का भी हिस्सा थे, जिसने 12 फरवरी को भाजपा राज्य सरकार द्वारा आयोजित दौरे के हिस्से के रूप में अयोध्या के राम मंदिर का दौरा किया था और वहां तारीफ भी की थी. हालांकि उमाशंकर ने इसे संतुलित करते हुए कहा था कि उनकी पार्टी बाबरी मस्जिद के स्थान पर बन रही मस्जिद का भी दौरा करेगी.
पहले भी कई मौकों पर जैसे राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पदों के चुनाव, नए संसद भवन के उद्घाटन (जब अधिकांश विपक्ष दूर रहा) और महिला आरक्षण विधेयक के संसद में पारित होने के दौरान भी बसपा ने मोदी सरकार का पक्ष लिया. राजनीतिक विश्लेषक और लखनऊ के कान्यकुब्ज कॉलेज में प्रोफेसर ब्रजेश मिश्र बताते हैं, "पार्टी के अन्य नेताओं का कहना है कि जब मायावती भाजपा पर हमला करती हैं तो वे साथ में कांग्रेस (और, कुछ हद तक, सपा) पर भी हमला करने का ध्यान रखती हैं. मायावती प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के खिलाफ सीधी टिप्पणी करने से बचती हैं. मायावती के इन राजनीतिक तेवरों ने उनके बारे में भाजपा की करीबी होने का भ्रम पैदा किया है."
यह संशय और बढ़ा जब राज्यसभा चुनाव के तुरंत बाद, केंद्र ने बसपा में मायावती के बाद दूसरे नंबर पर काबिज उनके भतीजे और पार्टी के नेशनल कोआर्डिनेटर आकाश आनंद के लिए वाई-प्लस सुरक्षा को मंजूरी दे दी. इन घटनाक्रमों से पार्टी के मुस्लिम नेता आशंकित हैं कि अगर पार्टी उन्हें फिर से मैदान में उतारती है, तो भी उनकी जीत की संभावना कम है.
बसपा के एक मुस्लिम नेता बताते हैं, "आज बसपा को दलितों के अलावा मुस्लिमों का वोट मिलना संभव नहीं है. अगर हम चुनाव में मुसलमानों के पास भी जाएंगे और उनसे वोट मांगेंगे तो वे बसपा के भाजपा के साथ होने का मुद्दा उठाएंगे. इसलिए बसपा के मुस्लिम नेताओं के पास अन्य पार्टियों में शामिल होने के अलावा दूसरा विकल्प नहीं है."
यूपी में बसपा के 10 मौजूदा सांसदों में से दो मुस्लिम सांसद पहले ही पार्टी छोड़ चुके हैं. सबसे पहले बाहर निकले अमरोहा के सांसद दानिश अली, जिन्हें संसद में भाजपा सांसद रमेश बिधूड़ी की विवादास्पद टिप्पणी का सामना करना पड़ा था. दानिश को तृणमूल कांग्रेस सांसद महुआ मोइत्रा के समर्थन में संसद से वॉकआउट में शामिल होने के कुछ ही समय बाद, 'पार्टी विरोधी गतिविधियों' के लिए बसपा ने निलंबित कर दिया था. अली बाद में मणिपुर से कांग्रेस सांसद राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा के शुभारंभ में शामिल हुए और उम्मीद है कि कांग्रेस उन्हें अमरोहा से मैदान में उतारेगी.
बसपा छोड़ने वाले दूसरे मुस्लिम सांसद अफ़ज़ाल अंसारी थे, जो ग़ाज़ीपुर से बसपा सांसद थे और गैंगस्टर से नेता बने मुख्तार अंसारी के भाई हैं. अफजाल को सपा ने तुरंत ही गाजीपुर से अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया. हाल ही में मुबारकपुर से दो बार बसपा विधायक रह चुके शाह आलम गुड्डु जमाली सपा में शामिल हो गए.
बृजेश मिश्र बताते हैं, "बसपा के मुस्लिम सांसदों को लगता है कि वर्ष 2019 में उनकी जीत उस दलित-मुस्लिम गठजोड़ के कारण संभव हुई थी जो सपा और बसपा के चुनावी गठबंधन के कारण साथ आया था. अब बसपा के अलग रहने से मुस्लिम वोटों का पार्टी की तरफ झुकाव काफी कम रहने की उम्मीद है इसीलिए पार्टी के मुस्लिम नेता अलग राह तलाश रहे हैं. क्योंकि अकेले दलित वोटबैंक के जरिए बसपा किसी भी सीट पर जीत हासिल नहीं कर सकती."
वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में, सपा से गठबंधन करके बसपा ने 80 में से 10 सीटों के साथ भाजपा के 62 सीट के बाद यूपी में दूसरी सबसे अधिक सीटें जीती थीं. साल 2019 के आम चुनावों में, बसपा को लगभग 22% वोट शेयर मिला (सपा के साथ गठबंधन में 38 सीटों पर चुनाव लड़ते हुए) वहीं 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में, बसपा के वोट शेयर में 10% की भारी गिरावट देखी गई. सभी 403 सीटों पर चुनाव लड़ते हुए, 12.8% वोटों के साथ, बसपा को अपने गठन के बाद अपने पहले चुनाव में मिले वोटों से थोड़े ही अधिक वोट मिले.
इसके साथ ही यूपी विधानसभा चुनाव में बसपा एक सीट पर सिमट गई थी. वास्तव में, बसपा का 2022 के विधानसभा चुनाव का वोट शेयर, यूपी में जाटव वोटों (मायावती से संबंधित दलित उपजाति) के लगभग बराबर है. यूपी में कुल वोटों में 21% दलित हैं और अकेले जाटव लगभग 13% हैं. ब्रजेश मिश्र बताते हैं, "वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव में जाटव दलित मतदाताओं का एकतरफा समर्थन बसपा को मिला था. अब अगर बसपा को चुनावी राजनीति में अपनी धमक दिखानी है तो पार्टी को साथ में एक जिताऊ वोट बैंक जोड़ना पड़ेगा."
बसपा के वोट बैंक में वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव में अपेक्षाकृत अधिक सेंध लगाने वाली सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव पिछड़े, दलित, अल्पसंख्यक पर मुख्य रूप से अधारित रणनीति को गढ़कर गैर यादव पिछड़ों के साथ दलित और मुसलमान वोटों में आधार बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं. उधर जिस तरह भाजपा ने लोकसभा चुनाव से पहले अपने करीब 70 फीसदी से अधिक उम्मीदवार घोषित कर दिए हैं उससे अब बसपा के भगवा दल के साथ किसी प्रकार का प्रत्यक्ष तालमेल की गुंजाइश खत्म हो गई है.
बावजूद इसके मायावती की खामोशी किसी नए राजनीतिक समीकरण की ओर प्रयास करने की अटकलों को भी जन्म दे रही है. कांग्रेस ने बसपा को विपक्षी इंडिया गठबंधन में शामिल करने के लिए कई प्रयास किए लेकिन मायावती ने इसे बार-बार विफल कर दिया. लोकसभा चुनाव से ठीक पहले यूपी में 'भारत जोड़ो न्याय यात्रा' निकाल चुके राहुल गांधी को मुस्लिम आबादी के बीच जैसा समर्थन मिला, उससे पार्टी को ऐसे दूसरे जिताऊ वोट बैंक की जरूरत महसूस हुई जो लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को पहचान दिला सके.
इंडिया गठबंधन में सपा के सहयोगी के रूप में कांग्रेस को जो 17 लोकसभा सीटें मिली हैं उसमें पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को कोई खास फायदा होता नहीं दिख रहा है. उधर बसपा के पास जो जाटव दलित वोट बचा है उस पर भाजपा की नजरें हैं. अगर जाटव मतदाताओं को बसपा कमजोर दिखी तो वह हाथी से छिटक भी सकता है. कांग्रेस और बसपा की इन्हीं जरूरतों ने दोनों दलों के करीब आने की गुंजाइश बनाई है.
जानकारी के मुताबिक बसपा और कांग्रेस के नेतृत्व के बीच लोकसभा चुनाव में किसी समझौते की बातचीत इसबार पहले की तुलना में काफी आगे बढ़ी है. पेंच सपा को लेकर फंसा है.
बसपा ऐसे किसी विपक्षी गठबंधन का हिस्सा नहीं होना चाहती जिसमें सपा शामिल हो और सपा भी ऐसे बसपा के साथ गठबंधन करने की इच्छुक नहीं है. हालांकि कांग्रेस जिस तरह बसपा के साथ गठबंधन करने को आतुर दिख रही है उससे तो लोकसभा चुनाव से पहले यूपी में विपक्षी राजनीतिक गठबंधन का चेहरा बदलने की अटकलें जोर मारने लगी हैं.