प्रधान संपादक की कलम से
नए रूपों के उभार के साथ भारत को प्रभावी स्ट्रेन निगरानी प्रणाली और डेटा एनालिसिस की सबसे ज्यादा जरूरत है.

अरुण पुरी
मार्च के पहले हफ्ते में जब कई विकसित देशों के उलट हमारे यहां कोविड-19 के मामले खासे घट गए थे, अफसरान वायरस पर फतह हासिल कर लेने के लिए अपनी पीठ थपथपाने में मशगूल थे. वह उल्लास ज्यादा समय टिक नहीं सका. 6 अप्रैल को महज 24 घंटों में भारत 1,15,312 संक्रमणों के पार चला गया.
यह रोजाना मामलों की अमेरिका के बाद सबसे ज्यादा और महामारी शुरू होने के बाद सबसे ऊंची तादाद थी. 2 अप्रैल को हमने 713 मौतें दर्ज कीं, जो एक दिन में मौतों का हमारा सबसे ज्यादा आंकड़ा था. संक्रमण की बढ़ती लहर को तोडऩे के लिए दुनिया का सबसे कठोर लॉकडाउन लगाने के करीब एक साल बाद हम फिर वहीं पहुंच गए लगते हैं जहां से चले थे.
अस्पताल तेजी से भर रहे हैं और बड़े महानगरों में रात का कर्फ्यू लगा दिया गया है. हम जो देख रहे हैं, वह संपूर्ण लॉकडाउन से कुछ ही कमतर है. 5 अप्रैल को मामले बढऩे के साथ शेयर बाजारों में 817 अंकों की गिरावट चेतावनी है कि कोविड की नई उछाल से हमारी आर्थिक बहाली खतरे में पड़ सकती है. यह उस देश के लिए मुश्किल स्थिति है, जो मानने लगा था कि उसने कोविड-19 के दु:स्वप्न को पीछे छोड़ दिया है.
इन हालात तक आखिर हम पहुंचे कैसे?
अब कहा जा सकता है कि इसके लिए हमारा अपना आत्मसंतोष सबसे ज्यादा दोषी है. जब संक्रमणों की दैनिक तादाद में उतार आने लगा, हमने सतर्कता, सामाजिक दूरी, हाथों की साफ-सफाई और मास्क को तिलांजलि दे दी. दूसरे कारकों ने भी कुछ भूमिका निभाई. जिन सरकारी स्वास्थ्य एजेंसियों को वायरस का पीछा और मरीजों का इलाज करना चाहिए था, उन्होंने चौकसी कम कर दी. यहां तक कि जब वैक्सीन आ गई तब भी हम ज्यादा से ज्यादा लोगों को टीके लगाने के लिए तेजी से हरकत में नहीं आए.
हालांकि भारत 7.5 करोड़ लोगों को टीके की पहली खुराक लगा चुका है, लेकिन सबसे ज्यादा सक्रिय मामलों वाले पांच शीर्ष राज्यों ने अपनी 15 फीसद आबादी को भी अभी टीके नहीं लगाए हैं. राष्ट्रीय स्तर पर यह आंकड़ा और भी कम 6 फीसद है. इसके विपरीत इजराइल अपनी कम से कम 59 फीसद, भूटान 62 फीसद, यूके 47 फीसद और अमेरिका 32 फीसद आबादी को टीके की कम से कम एक खुराक लगा चुका है.
चार पीडि़तों में से एक की मृत्यु दर वाले यानी कोविड से ज्यादा जानलेवा वायरस चेचक के उन्मूलन में भारत टीके की बड़ी सफलता की कहानी लिख चुका है. 1974 और 1975 के बीच साल भर में ही दुनिया भर में चेचक के 80 फीसद मामले यहां होने की स्थिति से निकलकर भारत ने इसके पूरी तरह सफाए की दूरी तय की थी. इंडिया टुडे ने अपने 15 जून 1977 के अंक में रिपोर्ट किया था कि भारत का यह अभियान जबरदस्त कोशिश था, जिसके अंतिम दौर में 1,52,000 मैदानी कार्यकर्ता टीके लगाने के लिए देश भर में फैल गए थे.
विडंबना यह है कि जिस देश ने चेचक और पोलियो के खिलाफ दुनिया के सबसे कामयाब टीकाकरण कार्यक्रमों में से एक चलाया था और जिसके पास संयोग से दुनिया की सबसे बड़ी वैक्सीन मैन्युफैक्चरिंग सुविधा है, अब अपनी आबादी को टीके लगाने की जद्दोजहद कर रहा है. हम वह देश भी हैं जो दुनिया के सबसे बड़े चुनावों का अबाध और दक्ष संचालन करता है, जो योजना, तालमेल और दसियों हजारों लोगों को सशरीर दूर-दूर पहुंचाने का भीमकाय काम है.
फिर भी हम यह सबक अपने टीकाकरण कार्यक्रम पर लागू करने में नाकाम रहे. बेशक यह पहली बार है जब एक महामारी के ऐन बीचोबीच वैक्सीन आई है, पर लगता है दूसरी लहर को रोकने के लिए तत्काल टीके की खुराकें लगाने के बारे में ज्यादा सोचा ही नहीं गया. निजी क्षेत्र को लाने से पहले टीके लगाने का काम सार्वजनिक क्षेत्र तक सीमित था.
स्वास्थ्य क्षेत्र के और फ्रंटलाइन वर्कर्स के बाद 60 से ऊपर और सहरुग्णताओं वाले लोगों तक पहुंचने में हमें महीना भर लगा. हमने टीके लगाने के लिए टुकड़ा-टुकड़ा नीति अपनाई, तब भी जब हमारे पास वैक्सीन का पर्याप्त भंडार था. इसकी जगह भारत ने 5 करोड़ खुराकें निर्यात कीं, जो खुद अपने लोगों को लगाई गई 7 करोड़ खुराकों से कुछ ही कम थीं. वैक्सीन कूटनीति की अपनी अच्छाइयां हैं, लेकिन खुद अपने नागरिकों की कीमत पर यकीनन नहीं.
वायरस अब फिर हमलावर है. यह दूसरी लहर उस मूल चीनी रूप के चार अलग-अलग स्ट्रेन से शुरू हुई है जिसने 2020 में पहली लहर पैदा की थी. दूसरी लहर में एक बहुत हल्की-सी आशा की किरण यह है कि पिछले साल की तरह हमारे यहां मृत्यु अनुपात दुनिया में सबसे कम बना हुआ है. अपना व्यवहार बदलते हुए वायरस ज्यादा संक्रामक हो रहा है पर ज्यादा जानलेवा नहीं. खुशकिस्मती से पिछले साल के मुकाबले हम ज्यादा तैयार हैं.
संक्रमण में उछाल से निपटने के लिए व्यवस्था को बहुत तेजी से हरकत में लाया जा सकता है, लेकिन हमें रणनीति पर नए सिरे से विचार करने और टीके लगाने की रफ्तार बढ़ाने में सरकारी संसाधन झोंकने की जरूरत है. विशेषज्ञों का कहना है कि हमें वैक्सीन की आपूर्ति बढ़ाने और साथ ही वैक्सीन की पात्रता बढ़ाने पर ध्यान देने की जरूरत है. असल में, वायरोलॉजिस्ट गगनदीप कांग चुनावों की मिसाल देते हुए कहती हैं कि खासकर गंभीर उछाल झेल रहे राज्यों में मतदान बूथ की तरह वैक्सीन स्टेशन बनाने की जरूरत है. सरकार को वैक्सीन लगवाने को लेकर हिचकिचाहट के संगीन मुद्दे से निबटने और टीकाकरण अभियान से जुड़े दुष्प्रचार को शिकस्त देने की जरूरत है.
नए रूपों के उभार के साथ भारत को प्रभावी स्ट्रेन निगरानी प्रणाली और डेटा एनालिसिस की सबसे ज्यादा जरूरत है. हमें कोविड के बदले हुए रूपों के प्रभावों को समझने के लिए भी अध्ययनों की जरूरत है. फिलहाल भारत के पास बदले हुए रूपों के संक्रमणों की कुल संख्या, टीके लगाने के बाद संक्रमणों की कुल संक्चया के बारे में सीमित जानकारी है. फैलाव रोकने को सुचिंतित फैसले लेने के लिए सभी स्तरों पर डेटा की सख्त जरूरत है.
एसोसिएट एडिटर सोनाली आचार्जी ने इस हफ्ते हमारी आवरण कथा 'कोविड-19: कैसे रोकें दूसरी लहर को’ का तानाबाना बुना है. उन्होंने पिछले पूरे साल महामारी की चाल-ढाल पर नजर रखी थी. वे इस विषय पर 17 आवरण कथाएं और 50 से ज्यादा स्टोरी कर चुकी हैं. उन्होंने स्वास्थ्य विशेषज्ञों से बात करके नए उभार की वजहों का विश्लेषण किया और दूसरी लहर से निबटने की केंद्र की नई पांच स्तरीय रणनीति की चीर-फाड़ की है.
कोविड-19 साफ तौर पर अभी हमारे इर्द-गिर्द रहेगा. यह वायरस के फैलाव और हमारे टीकाकरण की रफ्तार के बीच भीषण दौड़ है. कहते हैं, इलाज से रोकथाम भली. दूसरी तरफ आत्मसंतोष तबाही का नुस्खा है.