प्रचार जब कारगर हो जाता है, तो वह बड़ी तेजी से परंपरागत ज्ञान में तब्दील हो जाता है. लंदन की राह में बढ़ती ओलंपिक मशाल जैसे-जैसे एक हाथ से दूसरे भव्य हाथ का सफर तय कर रही है, हम उसे उस पुराने इतिहास से चली आ रही परंपरा की महिमा से जोड़ रहे हैं, जिसमें यह घटना सिर्फ चंद नग्न यूनानी पुरुषों तक सीमित हुआ करती थी.
इस मशाल में निश्चित रूप से तेल से जलने वाली मशालों का अंदाज है, जो एक स्वर्णिम अतीत के युग का अक्स खींच देती है. थोड़ा विचार करके देखें तो किसी मशाल का कोई खास उपयोग नहीं रहा होगा क्योंकि खेल दिन की रोशनी में होते थे. वास्तव में इस पुराने तमाशे के नए रूप को नाजियों ने 1936 के बर्लिन तमाशे में हिटलर की छद्म-श्वेत आर्य सनक के झांसे के प्रचार की मुहिम के तौर पर देखा था. दुनिया ने नाजियों को तो खत्म कर दिया, लेकिन मशाल रख ली.
इसी तरह पांच आपस में जुड़े गोलों के प्रतीक चिन्ह की उत्पत्ति भी प्राचीन यूनान के किसी महान वास्तु प्रतीक से नहीं हुई थी. इसकी उत्पत्ति ओलंपिक्स का पुनराविष्कार करने वाले व्यक्ति-बैरॉन पिअरे डि कोबर्टिन-की विद्वत्तापूर्ण कल्पनाओं में तब हुई थी, जब उन्होंने इसी तरह के डिस्प्ले वाला डनलप के साइकिल टायरों का विज्ञापन एक पत्रिका में देखा था.
यह संभवतः किसी विज्ञापन एजेंसी द्वारा विश्व इतिहास में किया गया सबसे बड़ा योगदान भी हो सकता है. यह लोगो पहली बार 1914 में लाया गया था, यानी दो वर्ष में इसकी शताब्दी मनाई जाएगी.
प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत भी 1914 में ही हुई थी, लेकिन बहुराष्ट्रीय स्तर पर व्यवस्थित, अंधाधुंध और प्रायः अकारण किए गए नरसंहार की पहली घटना को याद करने में किसी व्यक्ति की कोई खास रुचि नजर नहीं आती. बैरॉन कोबर्टिन इस बात से सहमत हो गए थे कि युद्ध की तुलना में खेल बेहतर विकल्प हैं.
लेकिन उनका तर्क था कि सफल होने के लिए खेलों का आयोजन धर्म की तर्ज पर करना होगा, जिसका अपना चर्च होगा, अपना मत होगा, अपनी परिपाटियां होंगी. यह परम ज्ञान ही सारे समसामयिक खेलों की वाणिज्यिक सफलता का आधार है.
हर खेल का अपना धर्मगुरु है, जो जब तक कुर्सी पर है, तब तक गलत हो ही नहीं सकता. उसकी सहायक प्रणाली में प्रधानों का झुंड और पादरियों का एक ढांचाबद्ध क्रम है. इसके बाद यह सारे सवाल खत्म हो जाने चाहिए कि राजनेता इसकी कमान के केंद्र में होना क्यों चाहते हैं. उन्हें खेल से प्रेम नहीं है, बल्कि उन्हें मोह उसके कभी गलत न हो सकने का है.
खेलों के प्रबंधन में लोकतांत्रिक कुछ भी नहीं है. इसकी संस्कृति एक अपारदर्शी षड्यंत्र सरीखी है, और उस अधर्मी को बहुत हेय दृष्टि से देखा जाता है जो इस गुप्त समाज के अंदरूनी घपले के तौर-तरीकों में खलल डालने की कोशिश करता है, जैसा कि वर्तमान खेल मंत्री अजय माकन को एहसास हुआ, जब उन्होंने सोचा कि भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड की तुलना में भारत सरकार ज्यादा महत्वपूर्ण है. जिस सामूहिक शोर ने उन्हें चुप कर दिया, वह एक शक्तिशाली सर्वदलीय गठजोड़ था.
माकन को ध्वस्त करने वाला गठजोड़ दिल्ली में सरकार बना ले तो यह भारत के इतिहास का सबसे सशक्त, सबसे स्थिर, नीति-उन्मुख शासन होगा. शायद राहुल गांधी को, जब वे सितंबर में कांग्रेस की जिम्मेदारी प्रभावी ढंग से अपने हाथ में ले लेंगे, ललित मोदी को इस बात के लिए सलाहकार बना लेना चाहिए कि वे बीसीसीआइ के प्रबंधन के नियमों की सूची का अर्थ खोलकर स्पष्ट करें. मोदी लंदन में फंसे रह जाते हैं, तो जगमोहन डालमिया कोलकाता में मौजूद हैं ही.
खेलों से कहीं ज्यादा, राजनीति को प्रतीकों को एकजुट बनाए रखने की क्षमता की दरकार होती है. 1984 के आम चुनाव में प्राणांत-से अनुभव के बाद भाजपा अयोध्या में मंदिर निर्माण के आंदोलन के दौरान शिलाओं को चुंबक में तब्दील कर फिर सांस लेने लगी थी. कांग्रेस के लिए गांधी टोपी एकजुट बनाए रखने का अपना गुण खो चुकी है.
जब उसके नेता औपचारिकता में उसे पहनने के लिए मजबूर किए जाते हैं, तो वे नितांत हास्यास्पद लगते हैं. इससे भी बढ़कर यह कि अण्णा हजारे ने इस टोपी को अपनी ब्रांड इमेज में शामिल कर लिया है.
मशाल एक बेहतर विकल्प हो सकती है. आप उस जोश की कल्पना कर सकते हैं, जिसमें युवा कांग्रेस के कार्यकर्ता सुधारों की मशाल उठाए हुए एक गांव से दूसरे गांव तक दौड़ें, आगे-आगे एक बस हो, जिसकी छत पर नाच और संगीत हो रहा हो. इससे टीवी पर कवरेज भी सुनिश्चित हो जाएगा, क्योंकि न्यूज चैनलों को हिंदी फिल्मों के गीतों की फुटेज मुफ्त में दिखाने का सबसे उम्दा बहाना मिल जाएगा. टीवी प्रायोजकों को भी प्रोत्साहित करेगा. हरेक प्रदेश कांग्रेस कमेटी एक मशाल अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी अधिवेशन में भेजा करेगी, सारी मशालों का इस्तेमाल एक विशाल मशाल जला एक दहकता हुआ उद्घाटन करने में किया जाएगा.
शंकालु लोग ऐसे क्रांतिकारी विचारों को हमेशा ही खारिज करेंगे. जब कोबर्टिन ने कुछ देशों को गोला फेंकने के लिए राजी किया, तब क्या उन्हें पता था कि एक शताब्दी से ज्यादा समय बाद बोरिस जॉनसन नाम का लंदन का भूरे बालों वाला एक मेयर अपनी ओलंपिक क्षमता के आधार पर एक महाशक्ति का प्रधानमंत्री बनने के सपने देखेगा? कांग्रेस को जाहिरा तौर पर आशावाद की एक तगड़ी खुराक की जरूरत है. ओलंपिक की भावना की बयार बह रही है. कांग्रेस को इसे आत्मसात करना चाहिए.