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जान से खिलवाड़: सवालों के घेरे में दवा परीक्षण

जानकारियां छुपा रहे आंबेडकर अस्पताल का मनोरोग विभाग मरीजों पर धोखे से दवा परीक्षण  के गंभीर आरोपों से घिरा

आंबेडकर अस्पतालः नियमों को ताक पर रखकर दवा परीक्षण के आरोप
आंबेडकर अस्पतालः नियमों को ताक पर रखकर दवा परीक्षण के आरोप
अपडेटेड 12 नवंबर , 2011

रायपुर के डॉ. भीमराव आंबेडकर अस्पताल के मनोरोग विभाग में पिछले दिनों दो दवाओं का परीक्षण किया गया और  आरोप है कि मोटी कमाई के लिए डॉक्टरों ने नियम-कायदों को ताक पर रख दिया. अस्पताल के डॉक्टर जिस तरह से मरीजों की जानकारी छुपा रहे हैं, अंदेशा है कि उन्हें धोखे में रखकर कहीं ट्रायल न कर लिया गया हो.

गुड़गांव की ईली लिली ऐंड कंपनी इंडिया प्राइवेट लि. की ओर से आंबेडकर अस्पताल में 2007-08 और 2009-10 में किए गए दो परीक्षण सवालों के घेरे में हैं. दवाओं का परीक्षण जिन मरीजों पर किया गया, अस्पताल प्रशासन उनकी संख्या, नाम, पते समेत कोई भी ब्यौरा देने को तैयार नहीं है.

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अपनी ही बिरादरी के खिलाफ मुहिम छेड़ने वाले फिजियोथेरेपिस्ट डॉ. गीतेश अमरोहित ने सूचना के अधिकार के तहत इसकी जानकारी मांगी तो गोपनीयता का हवाला देते हुए गोल-मोल जवाब देकर अस्पताल प्रशासन ने उन्हें टरका दिया. डॉ. अमरोहित का कहना है, ''मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया का स्पष्ट प्रावधान है कि इसकी जानकारी गोपनीय रखने की जरूरत नहीं है. मेडिकल काउंसिल रेग्यूलेशन-2002 के तहत जनहित में यह जानकारी दी जा सकती है. मगर सूचना देना तो दूर, आरटीआइ के तहत शुल्क जमा कराने के बाद भी देखने के लिए भी दस्तावेज नहीं दिए गए.''

मरीजों से जो सहमति-पत्र भरवाए गए उसका बिना दस्तखत वाला प्रोफार्मा अमरोहित ने मांगा. ताकि उन्हें कम-से-कम यह पता चल सके कि नियमानुसार सहमति-पत्र तैयार किया गया है या नहीं. लेकिन विभाग ने उसे भी देने से इनकार कर दिया. डॉ. अमरोहित का सवाल है कि महज सहमति-पत्र देने से मरीजों की गोपनीयता कैसे भंग होती.

उनका दावा है, ''इससे साबित होता है कि बिना सहमति-पत्र बनाए ट्रायल शुरू कर दिया गया. क्योंकि, सहमति-पत्र बना होता तो उसका प्रोफार्मा देने में कोई दिक्कत न होती.'' उधर, मनोरोग विभाग के अध्यक्ष और ड्रग ट्रायल करने वाले डॉ. एम.के. साहू दो-टूक कहते हैं, ''कोर्ट या ड्रग कंट्रोलर जनरल के मांगने पर ही मरीजों की जानकारी दी जा सकती है.''  वे कहते हैं कि पूरे नियम-कायदे से दवाओं का परीक्षण किया गया है.

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मगर डॉ. अमरोहित की तहकीकात में चौंकाने वाले तथ्य मिले जो गड़बड़झाले की ओर इशारा करते हैं. दवा परीक्षण से पहले मरीजों का बीमा किया जाता है. मरीज की मौत होने या परीक्षण के दौरान कोई साइड इफेक्‍ट होने पर उसे बीमा की राशि दी जाती है. लेकिन दोनों दवाओं के परीक्षण में मरीज के बजाए दवा कंपनी का बीमा किया गया. डॉ. अमरोहित का कहना है, ''दवा कंपनी को लाभ पहुंचाने के लिए ऐसा किया गया है.''

सहमति-पत्र में यह शर्त होती है कि मरीज को किसी तरह का नुक्सान होने पर दवा कंपनी उसकी भरपाई करेगी. मगर गोपनीयता की आड़ में वे सहमति-पत्र दिखाने के लिए तैयार नहीं हैं. इंडियन ड्रग कंट्रोलर से दवा कंपनी को परीक्षण करने के लिए जो इजाजत मिली है, उसमें इस बात का जिक्र नहीं है कि आंबेडकर अस्पताल में परीक्षण किया जाएगा.

डॉ. साहू इस बात पर अड़े रहे कि अनुमति-पत्र में आंबेडकर अस्पताल का नाम लिखा है. मगर वे दस्तावेज नहीं दिखा सके. असिस्टेंट ड्रग कंट्रोलर ए.के. प्रधान के दस्तखत वाले अनुमति-पत्र की प्रति में भी इसका कोई उल्लेख नहीं है. डॉ. अमरोहित के मुताबिक ड्रग कंट्रोलर कार्यालय के साथ मिलीभगत कर कई कंपनियां अनुमति-पत्र में अस्पताल का उल्लेख नहीं करवातीं और बाद में अपने हिसाब से जहां सेटिंग हो जाए, परीक्षण करा लेती हैं.

आंबेडकर अस्पताल में लंबे समय तक सेवा दे चुके रायपुर के एक वरिष्ठ चिकित्सक के मुताबिक, दवा कंपनियां प्रोडक्ट के परीक्षण के लिए सरकारी अस्पतालों को इसलिए प्राथमिकता देती हैं, क्योंकि वहां इलाज कराने वालों में गरीब और अशिक्षित तबका ही ज्‍यादा होता है. डॉक्टरों के लिए उन्हें  मुफ्त दवाइयां देने की लालच देकर फांसना आसान होता है. इसके बाद सहमति-पत्र पर मरीज के दस्तखत ले लिए जाते हैं. मरीज को पता नहीं चलता कि डॉक्टर के लिए वह प्रयोग का विषय बन गया है.

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आंबेडकर अस्पताल में पहला परीक्षण प्लेसिबो ट्रायल के तहत किया गया. इसके तहत मरीजों को दो समूह बनाकर, एक को ट्रायल वाली दवाई और दूसरे को खाली कैप्सूल दी जाती है, जिससे ट्रायल वाली दवा का तुलनात्मक आकलन किया जा सके. इसमें जिन मरीजों को ट्रायल वाली दवा दी जाती है, उनको कुछ तो राहत मिलती है मगर जिन्हें खाली कैप्सूल दिया जाता है, उनकी बीमारी ठीक नहीं होती. मरीज धोखे में रहता है कि उसका इलाज किया जा रहा है. लंबे समय तक ठीक न होने पर रोगी डिप्रेशन में चला जाता है और कई बार इससे मौत भी हो जाती है.

आइएमए से जुड़े एक डॉक्टर का दावा है कि प्लेसिबो ट्रायल के नियम-कायदे इतने कड़े हैं कि मरीजों को गुमराह किए बगैर इसके तहत परीक्षण मुमकिन ही नहीं है. सहमति-पत्र में इस बात का उल्लेख होता है कि परीक्षण के दौरान अस्पताल में उन्हें खाली कैप्सूल दिया जाएगा. सीधी-सी बात है, अस्पताल में इलाज कराने के लिए भर्ती कोई मरीज भला इसके लिए कैसे तैयार हो जाएगा कि तकलीफ में रहने के बाद भी वह दवाई नहीं खाएगा और दवा कंपनियों के हित के लिए अपनी बीमारी और बढ़ा लेगा.

इस पर डॉ. साहू  का कथन चौंकाने वाला है,  ''प्लेसिबो ट्रायल पढ़े-लिखे मरीजों पर किया जाता है, ताकि वे पूरी शर्तों को समझ सकें.'' यह पूछने पर कि कितने पढ़े-लिखे? साहू कहते हैं, कम-से-कम प्राइमरी पास. प्लेसिबो का रिजल्ट सटीक आता है. दवा कंपनियां डॉक्टरों को प्लेसिबो के लिए मोटी रकम देने के लिए तैयार रहती हैं.

मेडिकल गाइडलाइन के अनुसार दवाओं के परीक्षण से पहले एथिकल कमेटी बनाई जाती है, जो मरीजों पर पूरी निगरानी रखती है कि कहीं उनके साथ उपेक्षापूर्ण व्यवहार तो नहीं हो रहा है. परीक्षण के छह महीने बाद तक एथिकल कमेटी की निगरानी में मरीजों का रूटीन चेकअप होता है. यह स्वायत्त निकाय बॉडी होता है इसलिए इसका पंजीयन भी कराने का नियम है. मगर यहां आलम यह है कि एथिकल कमेटी के ज्‍यादातर सदस्यों को पता ही नहीं है कि कमेटी के क्या दायित्व हैं?

जाहिर है, खानापूर्ति के लिए कागजों पर कमेटी बना दी गई. कमेटी के चेयरमैन डॉ. ए.आर. दल्ला से पंजीयन न होने के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा, ''मैं अस्पताल वालों से पूछकर बताऊंगा कि पंजीयन क्यों नहीं हुआ.'' वे कहते हैं, ''एमसीआइ के नियमों के तहत मरीजों के नाम, पते नहीं बताए जा सकते.'' वहीं, कमेटी के सदस्य डॉ. सूरज अग्रवाल को इतने अहम परीक्षण के बाद भी यह पता नहीं कि कितने मरीजों पर दवा की आजमाइश की गई.

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मरीजों का अहित न हो, इसके लिए भारत में ड्रग ट्रायल के कड़े नियम बनाए गए हैं. परीक्षण में मानव अधिकारों का खास ध्यान रखा जाता है. ट्रायल से पहले क्लिनिकल ट्रायल रजिस्ट्री ऑफ  इंडिया में पंजीकृत होना जरूरी है. इसके बाद ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ  इंडिया की इजाजत ली जाती है. इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च की गाइडलाइंस  का पालन भी जरूरी है.

क्लिनिकल ट्रायल के चार चरण होते हैं. पहले चरण में सबसे पहले जानवरों पर इसका प्रयोग किया जाता है. दूसरे चरण में 150 से 200 लोगों पर दवा का प्रयोग किया जाता है. इससे दवा के प्रभाव का आकलन किया जाता है. तृतीय चरण में दवा का असर, पहले से बाजार में उपलब्ध दवाओं से कितना अधिक है, इसका तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है.

और आखिरी एवं चौथे चरण में 500 से 1,000 मरीजों का पर दवा के दीर्घकालीक प्रभावों का आकलन किया जाता है. चारों चरण के कामयाबी से पूरा होने पर इंडियन ड्रग कंट्रोलर के पास हरी झंडी के लिए भेजा जाता है. वहां से लाइसेंस मिलने के बाद दवा का व्यावसायिक उत्पादन शुरू हो जाता है. आंबेडकर अस्पताल में हुए दवा परीक्षण में क्या ऐसी ही प्रक्रिया का कानूनी तरीके से पालन हुआ, यही सबसे बड़ा सवाल है.

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