सिंधु नदी संधि आधुनिक विश्व के इतिहास का सबसे उदार जल बंटवारा है. इसके तहत पाकिस्तान को 80.52 फीसदी पानी यानी 167.2 अरब घन मीटर पानी सालाना दिया जाता है. नदी की ऊपरी धारा के बंटवारे में उदारता की ऐसी मिसाल दुनिया की किसी और संधि में नहीं मिलेगी. दरअसल सिंधु समझौते के तहत उत्तर और दक्षिण को बांटने वाली एक रेखा तय की गई है, जिसके तहत सिंधु क्षेत्र में आने वाली तीन नदियां पूरी-की-पूरी पाकिस्तान को भेंट के तौर पर दे दी गई हैं और भारत की संप्रभुता दक्षिण की ओर तीनों नदियों के बचे हुए हिस्से में ही सीमित रह गई है.
1960 में की गई यह संधि दुनिया की किसी भी जल संधि के मुकाबले ज्यादा दिक्कतें पैदा करती है. इन दिक्कतों की जड़ें पाकिस्तान से निकलती हैं. भारत पर लगाई गई सिलसिलेवार बंदिशों के चलते इन तीनों नदियों के सीमा पार प्रवाह की मात्रा और वक्तपर भारत का कोई नियंत्रण नहीं है. चिनाब और झेलम से सबसे ज्यादा पानी उस पार जाता है और तीसरी धारा खुद सिंधु की मुख्यधारा है. यह संधि वास्तव में दुनिया की इकलौती अंतरदेशीय जल संधि है, जिसमें सीमित संप्रभुता का सिद्धांत लागू होता है और जिसके तहत नदी की ऊपरी धारा वाला देश निचली धारा वाले देश के लिए अपने हितों की अनदेखी करता है.
इतनी बेजोड़ जल संधि से लाभान्वित होने के बावजूद पाकिस्तान ने भारत की उदारता का जवाब इस इलाके में आतंकी वारदातों को अंजाम देकर दिया है. मुमकिन था कि नेहरू के दौर में एक निश्चित काल तक के लिए की गई इस संधि को आने वाली पीढिय़ां एक भूल मानकर उसे सुधारने की कोशिश करतीं. लेकिन आज तक किसी भी सरकार ने आतंकवाद के मसले को जल बंटवारे से जोड़कर देखने की कोशिश नहीं की. यही सवाल हालांकि पाकिस्तानी जनरलों के दिमाग में भी होना चाहिए. जैसा कि शेक्सपियर के नाटक मैकबेथ में लेडी मैकबेथ कहती है, ''क्या नेप्च्यून का महासागर मेरे हाथ पर लगे खून के धब्बे धो पाएगा?”
भारत के लिए यह दुर्भाग्य की बात है कि पहले से ही नदी के ऊपरी हिस्से पर भारत की सीमित संप्रभुता हाल ही में किशनगंगा परियोजना के संदर्भ में दिए गए फैसले के बाद और संकुचित हो जाएगी. इस संधि के तहत भारत को सिर्फ रन-ऑफ-रिवर प्लांट (ऐसे प्लांट, जिनसे पानी का प्रवाह न रुके) ही बनाने की छूट है. ये ऐसे संयंत्र होंगे, जिनमें बिना कोई जलाशय बनाए सिर्फ नदी की धारा, गति और कुदरती उतार-चढ़ाव का प्रयोग किया जाएगा. सीमित जल भंडारण के चलते ऐसी परियोजनाओं में मौसमी प्रवाह का असर होता है और बिजली का उत्पादन प्रभावित होता है. विशाल जल भंडारण वाली परियोजनाओं के मुकाबले ये परियोजनाएं इस वजह से महंगी साबित होती हैं.
यह फैसला संधि की संकीर्ण व्याख्या करने की पाकिस्तान की कोशिशों की ही नई कड़ी है. यह भारत के अधिकारों को कम करने और सिंधु जल संधि को और लचर बनाने में पाकिस्तान की नर्ई कामयाबी है. किशनगंगा के मामले में दिया गया फैसला अधिप्लव मार्ग (स्पिलवे) की संरचना पर बंदिशें लगाता है. इससे नदी की धारा का इस्तेमाल कर बनाई जाने वाली परियोजनाओं की व्यावसायिक उपयोगिता प्रभावित हो सकती है. जैसा कि अस्सी के दशक में भारत की सलाल परियोजना के साथ हुआ था, जब पाकिस्तान के दबाव में उसकी डिजाइन में कुछ बदलाव किए गए थे. पानी के तेज बहाव के जरिए गाद नियंत्रण पर रोक लगाकर इस अंतरराष्ट्रीय फैसले ने स्पिलवे बनाने के सामान्य अंतरराष्ट्रीय मानक का मखौल उड़ाया है.
मामले से जुड़े सभी पक्षों से करोड़ों डॉलर की फीस और ऊंची कीमतें लेने वाले मध्यस्थों और अधिवक्ताओं के साथ मिलकर की जाने वाली अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता अकसर न्यूनतम साझा हितों के आधार पर काम करती है. किशनगंगा मामले में पैनल ने भारतीय परियोजना के कानूनी प्रावधानों को बनाए रखते हुए डिजाइन के मसले पर पाकिस्तान के पक्ष में फैसला दे दिया है. दोनों पार्टियों को और ज्यादा चूसने के लिए मध्यस्थ पूरी कार्रवाई को 2010 से इस साल के आखिर तक धकेल चुके है और अब उन्हें 'उम्मीद’ है कि वे एक और मसले पर अपना 'आखिरी फैसला’ देंगे. फैसला यह कि भारत को किशनगंगा से पाकिस्तान के लिए न्यूनतम कितना पानी छोडऩा है.
पाकिस्तान की मंशा साफ है: जम्मू-कश्मीर में बिजली की कमी के चलते वहां के लोगों में जो असंतोष बढ़ रहा है, उसे हल करने के लिए भारत ने देर से ही सही, लेकिन जो परियोजनाएं शुरू की हैं, पाकिस्तान का उद्देश्य उन पर आपत्ति उठाकर उनमें अड़ंगा डालना है. मकसद यह कि संधि के तहत भारत को जो भी सीमित लाभ मिल सकते हैं, वे भी न मिलें. यह रणनीति दरअसल पाकिस्तानी फौज की तय की हुई है, जिसका उद्देश्य घाटी में असंतोष और हिंसा का माहौल बनाए रखना है. एक अहम मसले पर सिंधु समझौते के प्रावधानों के पार जाकर मध्यस्थों ने जाने-अनजाने पाकिस्तान को एक ऐसा औजार दे दिया है, जिससे वह भारतीय परियोजनाओं पर ही सवाल उठा सकता है.
इस मसले पर रणनीतिक कमी के चलते भारत के लिए जो कड़वा नतीजा निकला है, उसका दोष खुद भारत सरकार पर है. उसने संधि को मुख्य वार्ताकार की सिफारिश के हिसाब से कर दिया और लंबी अवधि का कोई आकलन नहीं किया. भारत को अब भी संधि में दिए गए कुछ अधिकारों का इस्तेमाल करना है (मसलन भंडारण से जुड़े अधिकार). बावजूद इसके उसने पाकिस्तान को सिंधु घाटी में पानी की मांग और आपूर्ति के बीच बढ़ती खाई का मामला अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खींचकर ले जाने का मौका दे दिया. आखिर उदार भारत अपने हितों की ओर से कब तक आंखें मूंदे रहेगा?
ब्रह्म चेल्लानी पुरस्कृत पुस्तक वॉटर: एशियाज न्यू बैटलग्राउंड के लेखक हैं.

