आमतौर पर कुछ इस तरह की राजनैतिक कहानी सुनाई जाती है: राजीव गांधी, एक लायक बेटा, राजनीति से दूर इंडियन एयरलाइंस के पायलट के रूप में एक साधारण जिंदगी जी रहा था. साफ, बेदाग छवि, सत्ता के लोभ से कोसों दूर. लेकिन परिवार के साथ समय ने छल किया—एक विमान हादसा और एक सनसनीखेज हत्या और फिर नियति ने उन्हें सत्ता के गलियारों में ला खड़ा किया. अब इस कहानी में जबरदस्त नाटकीय मोड आ रहा है, जो नई दिल्ली स्थित अमेरिकी दूतावास से वाशिंगटन भेजे गए लीक हुए केबल्स के सौजन्य से है.
21 अक्तूबर, 1975 को भेजे गए एक केबल में बताया गया है कि भारतीय वायु सेना को 140 जेट विमानों की सप्लाई के संबंध में सौदा तय करने के लिए तीन यूरोपीय निमार्ताओं के बीच कड़ी टक्कर चल रही थी. केबल में एक स्वीडिश राजनयिक का जिक्र किया गया है जिनका कहना है कि अपने अमेरिकी प्रतिद्वंद्वियों के मुकाबले उनके पास हुक्म का इक्का है: ''दिल्ली में स्वीडिश कंपनी के साथ मध्यस्थ की मुख्य भूमिका निभाने वाले शख्स इंदिरा गांधी के बड़े बेटे राजीव गांधी हैं.”
यह केबल इमरजेंसी की घोषणा के चार महीने बाद दिल्ली स्थित अमेरिकी दूतावास से भेजा गया था. अमेरिकी केबल में इस आरोप का समर्थन करने के लिए कोई सबूत पेश नहीं किया गया था. अमेरिकी दूतावास से संदेश भेजने वाले इस बेनामी शख्स ने भी अपनी बात भरोसे से नहीं लिखी, ''राजीव गांधी का एयरक्राफ्ट उद्योग से इतना ही रिश्ता था (हमारी जानकारी के मुताबिक) कि वह इंडियन एयरलाइंस के पॉयलट हैं और उद्यमी के तौर पर उनका नाम हमने पहली बार सुना है.”
यह तो 1973 से 1974 के बीच भेजी गई 17 लाख गोपनीय केबल्स का हिस्सा भर हैं. इन केबल्स के जरिये अमेरिका के तत्कालीन विदेश मंत्री और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंगर ने भांप लिया था कि भारत में कैसी राजनीतिक उथल-पुथल चलने वाली है.
1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में हासिल जीत से इंदिरा गांधी के हिस्से आई जयकारे की आवाज कमजोर पड़ती जा रही थी. यह एक ऐसी लड़ाई थी जिसमें उन्होंने अमेरिका का विरोध करने की जांबाजी दिखाई थी जिसने भारत को धमकाने के लिए बंगाल की खाड़ी में यूएसएस इंटरप्राइज के नेतृत्व में अपना शक्तिशाली सातवां बेड़ा भेज दिया था. उन्होंने अमेरिका की परवाह किए बगैर सोवियत संघ के साथ 20 साल लंबी दोस्ती के लिए 1971 में संधि कर ली. 1974 तक भारत ने परमाणु हथियार का परीक्षण कर लिया था जो अमेरिकी राजनयिक केबलों के मुताबिक 'आम घरेलू विषाद’ और 'अनिश्चितता’ को दूर करने के लिए किया गया था.” 
इंदिरा गांधी देखे और अनदेखे दुश्मनों से लड़ रही थीं, तो उनके बेटे और उत्तराधिकारी संजय का रसूख पार्टी में तेजी से परवान चढ़ता जा रहा था. वह पार्टी में नेताओं को मनमानी जगह दे रहे थे. प्रियरंजन दासमुंशी को हटाकर उन्होंने अंबिका सोनी को युवा कांग्रेस की अध्यक्ष बना दिया था. संजय अब पार्टी में दूसरे स्थान पर आ पहुंचे थे. ऊपर की ओर बढ़ते उनके कदमों को शक्ति दे रहा था उनका उद्योग: गुडग़ांव में उनका कार कारखाना जहां आम लोगों की प्यारी कार मारुति तैयार हो रही थी. अगर अमेरिकी केबल की मानें तो प्रगति की ओर बढ़ते उनके कदम भ्रष्टाचार में सने थे. 1970 के दशक के मध्य में मारुति हेवी व्हीकल्स प्राइवेट लिमिटेड में, जिसमें संजय साझेदार थे, ब्रिटिश एयरक्राफ्ट कॉर्पोरेशन के ठेके के लिए होड़ मच गई. मारुति के एक वरिष्ठ अधिकारी ने सेसना एयरक्राफ्ट कंपनी के प्रतिनिधियों से मिलने के लिए अमेरिकी दूतावास से मदद मांगी थी.
संजय के समर्थक कमलनाथ और अंबिका सोनी अमेरिकी दूतावास की तेज नजर से नहीं बच पाए. संजय गांधी के विश्वासपात्र और उस समय कारोबारी रहे कमलनाथ को 1976 के एक केबल में 'मुश्किल हालात में फंसे अयोग्य शख्स’ और 'राजनीतिक नौसिखुआ’ कहा गया था जो पश्चिम बंगाल (उस समय यह राज्य कांग्रेस शासित था) में राज्य कांग्रेस पार्टी और वामपंथी पार्टियों के बीच के नाजुक संतुलन को बिगाड़ सकता था. अंबिका सोनी जिनका गांधी परिवार में अनौपचारिक आना-जाना था और माना जा सकता था कि वे वहां के निर्देशों का ही पालन करेंगी, को 'बौद्धिक रूप से कमजोर’ और 'वैचारिक तौर पर ढुलमुल इच्छाशक्ति का’ मानते हुए खारिज कर दिया गया था.
विकिलीक्स के मुताबिक इंदिरा गांधी के घर का एक भेदिया अमेरिकी दूतावास को उनकी सभी गतिविधियों के बारे में बता रहा था. अमेरिकी दूतावास ने सही भविष्यवाणी की थी कि वह आपातकाल खत्म कर 1977 में चुनाव की घोषणा कर देंगी. 1976 के जून-जुलाई में एक केबल में इस खबर के लिए प्रधानमंत्री के घर के भीतर के 'घरेलू सूत्र’ का हवाला दिया गया है. हालांकि उसकी पहचान जाहिर नहीं की गई है.
ऐसा नहीं था कि गांधी परिवार के युवा वंशज के आगे बढ़ते कदमों के सामने कोई चुनौती नहीं थी. कम-से-कम दो कांग्रेस नेता प्रियरंजन दासमुंशी और ए.के. एंटनी 1976 में गुवाहाटी में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में उनके कदमों को लेकर विरोध जता चुके थे. उस समय एंटनी ने पूछा था, ''देश या पार्टी के लिए उन्होंने क्या बलिदान दिया है?”
यह राजनैतिक पलीता 1970 के दशक में हुए लड़ाकू विमानों के अनुबंध के सामने एक छोटे से बदलाव की तीली साबित हुआ. भारतीय वायु सेना को 140 लड़ाकू विमानों की जरूरत थी जो 'दूर तक मार कर सकें’ और तेज गति से कम ऊंचाइयों पर भी उड़ते हुए दुश्मन के ठिकानों को उड़़ा सकें, यह सौदा पश्चिम के हथियार निर्माताओं को रोमांचित कर रहा था. एक अनुमान के अनुसार यह अनुबंध 1,600 करोड़ रु. का था (1975 में भारत का रक्षा बजट 2,157 करोड़ रु. था) और शीत युद्ध की चिनगारी से यह सौदा और अधिक गर्मा रहा था.
केबल के अनुसार इंदिरा गांधी ''सौदे की बातचीत में वायु सेना अधिकारियों को शामिल किए बगैर खुद ही सर्वेसर्वा बनी हुई थीं.” स्वीडिश राजनयिक कहते हैं, ''उन्होंने जगुआर का जोरदार विरोध किया था क्योंकि अंग्रेजों के प्रति उनके मन में पूर्वाग्रह था. उनके हस्तक्षेप से फ्रांस में बने मिराज एफ-1 और स्वीडिश कंपनी साब स्कैनिया के बनाए 'विजन’ की किस्मत अपने आप चमक उठी. विजन तटस्थ था लेकिन महंगा था. यह अमेरिका के टेक्निकल सहयोग से तैयार किया गया था. तीसरे देश को बेचने के लिए अमेरिकी सहमति जरूरी थी और उतना ही अहम था शीर्ष राजनैतिक संपर्क.
1975 के एक केबल में कहा गया है, ''स्वीडन ने साफ कर दिया है कि वे लड़ाकू विमानों की खरीद में परिवार के अंतिम फैसले की अहमियत समझते हैं. हमारे सहयोगी राजीव गांधी के मुंह के सामने उनकी जमकर तारीफ करते हैं और उनकी तकनीकी जानकारी को उम्दा बताते हैं. लेकिन सच कहें तो लड़ाकू विमानों के बारे में एक ट्रांसपोर्ट पायलट के मूल्यांकन पर भरोसा नहीं किया जा सकता. लेकिन हम ऐसे ट्रांसपोर्ट पायलट की बात कर रहे हैं जिसके पास एक अलग ही और शायद सबसे मुफीद योग्यता है.”
कांग्रेस ने इन खुलासों का पुरजोर खंडन किया है. कांग्रेस महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने कहा कि केबल सबूतों पर आधारित नहीं थे और उन्होंने विकिलीक्स के संस्थापक जूलियन असांजे पर 'झूठ और झूठी बातें फैलाने’ का आरोप लगाया. वे कहते हैं, ''केबल में लिखा है कि दी गई सूचना की पुष्टि या खंडन के लिए कोई अतिरिक्त जानकारी मौजूद नहीं है. लिहाजा कहानी बेबुनियाद है.” स्वीडन की हथियार फर्म साब के प्रवक्ता ने किसी भी टिप्पणी से इनकार किया है. ''हम किसी तीसरे या इस मामले में चौथे या पांचवे सूत्रों पर भी भरोसा नहीं करते.”
कांग्रेस नेता अंबिका सोनी ने यह कहते हुए टिप्पणी से इनकार कर दिया कि कांग्रेस पार्टी पहले ही बयान दे चुकी है. हालांकि, वे भी केबल की विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा करती हैं जो, उनके मुताबिक ''40 साल बाद किसी के जीवन पर कोई असर नहीं डाल सकता.” संजय गांधी के करीबी पूर्व कांग्रेसी नेता अकबर अहमद 'डंपी’ ने विकिलीक्स को 'हास्यास्पद’ ठहराया है. उन्होंने कहा, ''यह बात गले से नहीं उतरती कि इंदिरा गांधी पाकिस्तान के साथ परमाणु प्रौद्योगिकी को साझ करना चाहती थीं.”
भारतीय वायु सेना ने 1978 में ब्रिटिश एयरोस्पेस के जगुआर के साथ अनुबंध किया था. अमेरिका ने विजन को भारत को बेचने से जुड़े सौदे को मंजूर करने से इनकार कर दिया था. जगुआर ने फ्रांस में बने मिराज को पछाड़ दिया और उस सौदे पर 1977 में सत्ता में आई मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली जनता पार्टी की सरकार ने हस्ताक्षर किए. लेकिन जगुआर पर भी विवादों की परछाइयां मंडराती रहीं. मेनका गांधी संपादित सूर्या मैग्जीन के नवंबर अंक में आरोप लगाया गया कि तत्कालीन रक्षा मंत्री जगजीवन राम के बेटे सुरेश कुमार ने इस सौदे में रिश्वत ली है. जगजीवन राम ने संसद में इस आरोप से इनकार किया था.
एक दशक बाद, एक और स्वीडिश कंपनी बोफोर्स एबी का साया राजीव गांधी के जीवन में तूफान लेकर आया और 1989 में उन्हें सत्ता से दूर होना पड़ा. 1970 के दशक में भारतीय वायु सेना का वह अनुबंध एक डरावना खेल रच रहा था. विजन के बाद आने वाली कंपनी ग्रिपेन का भारतीय वायु सेना को 126 लड़ाकू विमान देने के 82,000 करोड़ रु. का अनुबंध पाने के लिए डेसाल्ड के राफेल, रूस के मिग, अमेरिका के एफ-16 और एफ-18 और यूरोफाइटर के साथ कड़ा मुकाबला चल रहा था. भारतीय वायु सेना के राफेल को अंतिम रूप से चुनने के एक साल पहले अक्तूबर, 2010 में साब के एक प्रतिनिधि ने दौरे पर आए अंतरराष्ट्रीय पत्रकारों के समूह को जानकारी दी थी कि 126 भारतीय लड़ाकू जेट का अनुबंध 'राजनीतिक दौर’ में प्रवेश कर चुका है. साब प्रतिनिधि ने उदासीन भाव से कहा ''राजनैतिक दौर में विमान की उड़ान की गति, उसकी कलाबाजी तकनीक या कॉकपिट की गुणवत्ता कोई मायने नहीं रखती.” ऐसा लगता है कि 1970 के दशक के मुकाबले आज भी बहुत कुछ नहीं बदला है.

