लोकसभा चुनाव से पहले अपना जनाधार बढ़ाने को बेताब आरजेडी प्रमुख बिठाने लगे गोटियां.
यह आरजेडी के शीर्ष नेताओं की बैठक थी. चर्चा चुनावी रणनीति पर चल रही थी कि तभी दो राज्यसभा सांसदों राम कृपाल यादव और प्रेमचंद गुप्ता के बीच गठबंधन के मुद्दे पर बहस होने लगी. प्रेमचंद गुप्ता चाहते थे कि लालू यादव इस बार राम विलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) के साथ निरर्थक गठजोड़ से छुटकारा पा लें. लेकिन राम कृपाल का कहना था कि एलजेपी से एक प्रतिशत वोट का भी फायदा होता हो तो इस गठजोड़ को बनाए रखा जाए.
लालू प्रसाद यादव को भी यह बात जंच गई क्योंकि वे आम चुनाव से पहले अपने जनाधार को बढ़ाने के लिए बेताब हैं. 2009 में लालू ने जो तब यूपीए-1 में रेल मंत्री थे, कांग्रेस की कीमत पर एलजेपी प्रमुख के साथ गठजोड़ किया था और इसकी भारी कीमत चुकाई. इस बार उन्होंने तय कर लिया है कि वे जमीनी हकीकत के आधार पर ही सीटों का बंटवारा करेंगे, न कि पुरानी धारणाओं के आधार पर. हफ्ते भर बाद लालू ने पासवान के एक करीबी से कहा, 'अपने नेता को कहो कि वे दौरा करते समय संभावित उम्मीदवारों को माला न पहनाएं. मतदाता भ्रमित होता है. 'लालू पूरी कोशिश कर रहे हैं कि कांग्रेस के साथ चुनाव से पहले गठबंधन हो जाए. आरजेडी के एक सांसद ने कहा, 'लालू नवंबर, 2012 से कम-से-कम तीन बार राहुल गांधी से मिल चुके हैं.'
कांग्रेस ने 2009 का लोकसभा चुनाव अकेले लड़ा था जबकि लालू और पासवान दोनों ही यूपीए-1 में मंत्री थे और कांग्रेस को बिहार की 40 लोकसभा सीटों में सिर्फ तीन सीटें ही दे रहे थे. कांग्रेस अकेले लड़ी और 10.26 प्रतिशत वोट हासिल किए. इस वजह से आरजेडी-एलजेपी गठबंधन को कई सीटों पर मुंह की खानी पड़ी. एनडीए विरोधी वोटों के बंट जाने से लालू की झेली में सिर्फ 4 सीटें आईं जबकि 2004 में उसके पास 24 सांसद (बिहार में 22 और झरखंड में 2) थे. एलजेपी को एक भी सीट नहीं मिली. दूसरी ओर, एनडीए को 32 सीटें मिलीं और कांग्रेस को दो. आरजेडी प्रमुख अब लोकसभा चुनाव से साल भर पहले ही अपनी गलतियां सुधारने में लग गए हैं. जनसभाओं में बढ़ती भीड़ ने उनके हौसले बढ़ा दिए हैं, लेकिन वे बखूबी जानते हैं कि अभी उन्हें बहुत मेहनत करनी होगी. 2010 के विधानसभा चुनाव में आरजेडी का सफाया होने के बाद से बिहार में चार उप-चुनाव हो चुके हैं. सत्ताधारी गठबंधन ने चारों ही सीटें जीत लीं, लेकिन आरजेडी या लालू समर्थित उम्मीदवारों ने सभी सीटों पर अपने वोट बढ़ाए हैं. लालू के लिए अच्छी खबर यह है कि 14 प्रतिशत से ज्यादा आबादी वाली यादव जाति पर अब भी उनकी पकड़ बनी हुई है.
वैसे उनके लिए चिंता की भी वजहें हैं. जेडीयू के नेतृत्व वाले एनडीए और उनकी पार्टी के बीच वोटों की संख्या का अंतर भी बढ़ गया है. लालू का वोट आधार नीतीश कुमार की जनाधार वाली ईबीसी (अति पिछड़ी जातियां), महादलित, अगड़ी जातियों और पसमांदा मुस्लिमों के गठजोड़ के आगे कमजोर हो गया है. नीतीश अपने गठबंधन की ओर से बड़ी संख्या में यादव और मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देकर लालू के जनाधार में सेंध लगाने में सफल रहे हैं. आज जेडीयू के पास आरजेडी के मुकाबले ज्यादा संख्या में यादव और मुस्लिम विधायक हैं.
2009 के आम चुनाव और 2010 के बिहार विधानसभा चुनावे के नतीजों से तीन बातें साफ हैं: लालू का अपराजेय समझे जाने वाला मुस्लिम-यादव (माई) जनाधार धराशायी हो चुका है. नीतीश को अति पिछड़ी जातियों और महादलितों का खासा समर्थन मिलता है. अगड़ी जातियों का एक वर्ग और कुछ जगहों पर मुसलमान कांग्रेस के समर्थक हो गए हैं. लालू के लिए संकट की बात यह है कि नीतीश के खिलाफ सत्ता-विरोधी भावनाओं के बावजूद बिहार की राजनीति में सामाजिक समीकरणों में बदलाव नहीं आया है.
बिहार के राजनैतिक परिदृश्य पर गहराई से नजर डालने पर पता चलता है कि लोग लालू की जनसभाओं में इसलिए नहीं जुटने लगे हैं कि उनकी लोकप्रियता बढ़ गई है. वे इसलिए जुट रहे हैं कि नीतीश सरकार की कई नीतियों से लोग नाराज हैं. लेकिन क्या यह नाराजगी लालू के लिए वोटों में तब्दील होगी, यह बड़ा सवाल है.
पिछले साल अप्रैल में जब सोनिया गांधी नई दिल्ली में लालू के तुगलक मार्ग स्थित निवास पर उनकी बेटी की शादी के रिसेप्शन में पहुंची थीं, तो लालू ने हंसकर उनसे कहा कि उनकी बेटी भी कांग्रेस परिवार में जा रही है. उनका इशारा था कि उनकी बेटी की शादी हरियाणा युवा कांग्रेस के अध्यक्ष चिरंजीव राव से हो रही है जो हरियाणा के मंत्री अजय सिंह यादव के बेटे हैं. सोनिया इस पर मुस्करा उठी थीं और उन्होंने कहा था कि कांग्रेस भी लालू को पसंद करती है. अब लोकसभा चुनाव से साल भर पहले लालू को पूरी उम्मीद है कि सोनिया अपनी कही हुई बात को हकीकत में तब्दील करेंगी.

