शिवाजी के वंशजों को चाहिए अपनी जाति के लिए शिक्षा और रोजगार में आरक्षण. यह मांग राज्य में राजनैतिक समीकरण को बदल सकती है.
अभी पिछले 4 अप्रैल को छत्रपति शिवाजी की तेरहवीं पीढ़ी के वंशज संभाजी राजे ने भायखला से दक्षिणी मुंबई के आजाद मैदान तक पांच किमी की पदयात्रा की और वहां एक लाख लोगों को संबोधित करते हुए मराठों के लिए शिक्षा और रोजगार में आरक्षण की मांग कर डाली. राज्य में राजनैतिक समीकरण को बदलने की क्षमता रखने वाले अहम मसले पर मुंबई में यह पहली बड़ी रैली थी. रैली के अंत में मराठा जाति और राज्य में मौजूद उसके संगठनों के नेता के रूप में संभाजी का औपचारिक 'अभिषेक' किया गया.
राजनैतिक रूप से खासे ताकतवर और राज्य की 11.2 करोड़ आबादी में 40 फीसदी हिस्सेदारी का दावा करने वाले मराठों के लिए आरक्षण जज्बाती मसला है. भारत में जाति आधारित आरक्षण सबसे पहले शुरू करने का श्रेय इसी राजवंश के शाहूजी महाराज को है. कोल्हापुर के शाही खानदान के 42 वर्षीय वंशज संभाजी चाहते हैं कि सरकार मराठों को अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) में शामिल करे. मराठों को अब तक ऊंची जाति का क्षत्रिय माना जाता रहा है. राजे मानते हैं कि इस कदम से मराठों की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचेगी, लेकिन उनका दावा है कि इससे लाखों मराठों को फायदा होगा, जो अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा नहीं दिला पाते और सरकारी नौकरियां जिन्हें नहीं मिल पाती हैं.
कोल्हापुर स्थित 200 एकड़ में फैले 125 बरस पुराने अपने महल के आलीशान अतिथि गृह में सफेद सोफे पर बैठे राजे कहते हैं, ‘मैं हिंसक रास्ता अपनाने की बजाए दबाव बनाने में यकीन रखता हूं.’ खुद को आम आदमी जैसा दिखाने के लिए उन्होंने हलके नीले रंग का कुर्ता और सफेद पाजामा पहना हुआ है. तीन महीने पहले उनका वजन पूरे 89 किलो था, जिसे बड़ी मेहनत से उन्होंने 13 किलो कम किया है ताकि आगे आने वाली सियासी जंग के लिए वे खुद को तैयार रख सकें.
मराठों का दावा है कि महाराष्ट्र की 11.2 करोड़ की आबादी में वे 40 फीसदी हैं. राज्य के कुल 350 विधायकों (विधानसभा और विधानपरिषद) में से 200 मराठा हैं.
कह सकते हैं कि उनका एजेंडा बहुत महीन किस्म का है-वे राजनैतिक आरक्षण के पक्ष में नहीं हैं क्योंकि विधानसभा में तो पहले से ही मराठा प्रतिनिधित्व पर्याप्त है. विधानसभा और विधान परिषद के कुल 350 विधायकों में से 200 मराठा हैं. वे आर्थिक आधार पर भी आरक्षण के खिलाफ हैं क्योंकि इसे कोर्ट में चुनौती मिल सकती है. इंडिया टुडे से वे कहते हैं, ‘मैं मराठों को ओबीसी श्रेणी में शामिल किए जाने की मांग कर रहा हूं. हमें अपनी पिछली चमकदार विरासत की खुशफहमी और एक श्रेष्ठ जाति से आने के दंभ से मुक्त होकर अपने बीच के गरीबों के फायदे पर सोचना होगा.’
संभाजी राजे की समावेशी राजनीति ब्राह्मणों के खिलाफ नफरत की पारंपरिक मराठी राजनीति को भी बदल सकती है. ब्राह्मण राज्य में एक और प्रभुत्वशाली जाति है, जो कुल आबादी का 3.5 फीसदी है. मराठा सेवा संघ और संभाजी ब्रिगेड जैसे समूह ब्राह्मणों की संस्थाओं पर लगातार हमले करते आए हैं. उनका आरोप रहा है कि ब्राह्मण ‘‘लोगों का दिमाग भ्रष्ट करते हैं.’ यह भी कि इस संदर्भ में ब्राह्मण हर बार शिवाजी के गुरु के रूप में दो ऐतिहासिक ब्राह्मण व्यक्तित्वों को पेश करते हैं-समर्थ रामदास स्वामी और दादोजी कोंडदेव. राजे नफरत की राजनीति के सख्त खिलाफ हैं, ‘मेरे पूर्वज छत्रपति शाहू महाराज ने पुणे में ब्राह्मणों की संस्था डेक्कन एजुकेशन सोसायटी को सबसे ज्यादा दान दिया था. मुझसे तो लोगों को उनसे भी ज्यादा उम्मीदें हैं. मैं दूसरी जातियों और धर्मों की आलोचना में यकीन नहीं रखता हूं.’
राजे सबसे पहले सुर्खियों में उस वक्त आए थे, जब उन्होंने छह साल पहले मराठों की ऐतिहासिक राजधानी रायगढ़ के किले में शिवाजी की 150 किलो की एक प्रतिमा पहुंचाई थी. जब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने इस प्रतिमा को वहां लगाए जाने से मना किया, तो राजे ने फिर इसके लिए राज्य सरकार को राजी कर लिया. उन्होंने दलील दी कि यही वह जगह थी, जहां शिवाजी अपना दरबार लगाया करते थे. राजे तभी से लगातार राज्य का दौरा कर रहे हैं और मांग उठा रहे हैं कि शिवाजी के पांच दूसरे किलों को दुरुस्त किया जाए. वे साफ कहते हैं, ‘मैं राजनीति में नहीं रहना चाहता. लेकिन किलों की मरम्मत में मेरा मन लगता है.’
विदर्भ, मराठवाड़ा और उत्तरी महाराष्ट्र के दौरे के बाद उन्हें लगा कि मराठों के आरक्षण की आवाज उन्हें उठानी चाहिए. वे कहते हैं, ‘विदर्भ में खुदकुशी करने वाले ज्यादातर किसान गरीब मराठा थे. मराठवाड़ा और उत्तरी महाराष्ट्र में करीब-करीब एक जैसी स्थितियां हैं. इसमें कोई शक नहीं कि विधानसभा में मराठों का अच्छा प्रतिनिधित्व है लेकिन इस वजह से उनकी आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति में धेले भर का भी सुधार नहीं हुआ है.’
वैसे उनके इस कदम को लेकर ओबीसी नेताओं में अंदेशा है. महाराष्ट्र ओबीसी संघटना के उपाध्यक्ष श्रवण देवरे का मानना है कि ओबीसी श्रेणी में मराठों को शामिल किया गया तो ओबीसी आरक्षण का हिस्सा बंट जाएगा. देवरे के शब्दों में, ‘बॉम्बे हाइकोर्ट ने अपने चार फैसलों में साफ तौर पर कहा है कि मराठों को ओबीसी में शामिल नहीं किया जा सकता.’
जाति आधारित आरक्षण के लिए सुप्रीम कोर्ट की ओर से तय की गई 50 फीसदी की सीमा के मुकाबले महाराष्ट्र में पहले से ही यह आंकड़ा 52 फीसदी पर है. राजे के समर्थकों का मानना है कि राज्य को यह सीमा और बढ़ाने की इजाजत मिल जाएगी, जैसा कि आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में हुआ है. इन दो राज्यों में आरक्षण की सीमा क्रमश: 75 और 61 फीसदी है. हालांकि इन्हें लेकर मुकदमेबाजी भी है.
राज्य सरकार ने उद्योग मंत्री नारायण राणे की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई है, जो मराठों को आरक्षण के मुद्दे पर चर्चा कर रही है. कमेटी अगर कोई ‘उपयुक्त’ फैसला नहीं कर पाती है, तो कांग्रेस और एनसीपी के पारंपरिक वोटबैंक में सेंधमारी का खतरा पैदा हो सकता है.
मराठा आरक्षण रैली में 4 अप्रैल को आजाद मैदान में मौजूद गुस्साए लोगों ने राजे की ओर से मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण के पास जाकर मांगों का ज्ञापन देने की पहल को खारिज कर दिया. उनका मानना था कि एक छत्रपति (राजा) के कभी किसी सरकार के पास जाकर किसी भी तरह की गुजारिश रखने की कोई मिसाल नहीं मिलती.
राजे कहते हैं, ‘लोग चाहते थे कि मुख्यमंत्री खुद वहां आएं और मेरी बात सुनें कि मैं क्या कहना चाहता हूं. मुख्यमंत्री के वहां न आने की स्थिति में विधानसभा तक पदयात्रा करने की वहां लोगों की तैयारी थी. मैंने इस तरह की किसी योजना को मंजूरी नहीं दी. आखिरकार, लोकतंत्र के कायदे-कानूनों का सम्मान होना चाहिए.’

