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सीबीआइ: इकबाल घटने के साथ खौफ खत्म

स्टालिन के ठिकानों पर सीबीआइ छापे के बाद सरकार जिस तरह फंदे में फंसी, उससे लगता है कि उसके अमोघ अस्त्र की धार कुंद हो गई है

अपडेटेड 9 अप्रैल , 2013

अति हर चीज की बुरी होती है. और आप इस कहावत का अपवाद सिर्फ इसलिए नहीं हो सकते, क्योंकि आप देश की शीर्ष जांच एजेंसी हैं. 21 मार्च को सीबीआइ के अफसर 20 करोड़ रु. की विदेशी कारें खरीदने के मामले में जब द्रविड़ मुनेत्र कडगम (डीएमके) के अध्यक्ष एम. करुणानिधि के बेटे एम.के. स्टालिन के घर छापा मारने पहुंचे, तो उन्हें यही उम्मीद रही होगी कि दिल्ली में उनके सियासी आका उनकी पीठ थपथपाएंगे. लेकिन हुआ उलटा. डीएमके के केंद्र से समर्थन वापस लेने के दो दिन बाद पड़े इन छापों के बाद गृह मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक पूरे मामले पर शर्मसार नजर आए. मनमोहन सिंह ने कहा, ''हम सब असंतुष्ट हैं. यह सरकार का काम नहीं है.” नतीजतन सीबीआइ को छापे तुरंत रोकने पड़े.

लेकिन ऐसा हुआ क्यों? क्योंकि यह कोई पहला मौका नहीं था, जब सीबीआइ का छापा राजनैतिक लिहाज से संवेदनशील समय पर पड़ा हो. पहले के ज्यादातर मामलों में सत्तारूढ़ पार्टी निस्पृह भाव से यही कहती नजर आई कि कानून अपना काम कर रहा है और सीबीआइ एक स्वतंत्र जांच एजेंसी है. ऐसे में किसी को उसके कर्मों का फल भुगतना पड़ रहा है, तो भला उसके लिए सरकार क्या कर सकती है. लेकिन यहां तो सरकार में नंबर दो की हैसियत रखने वाले वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने हथियार डालने के अंदाज में कहा, ''मैं सीबीआइ की कार्रवाई को पूरी तरह खारिज करता हूं. इसका गलत मतलब निकलना तय है.” ऐसे में पहला सवाल तो यह उठता है कि क्या दांव उलटा पड़ते देख सरकार ने हाथ खड़े कर दिए? उससे भी बड़ा और गहरा सवाल यह है कि कहीं सीबीआइ रूपी हथियार की धार कुंद तो नहीं हो गई? नेताओं पर सीबीआइ की हाल की कार्रवाइयों और उनके सियासी नतीजों पर नजर डालें तो दूसरा अंदेशा कहीं ज्यादा सटीक साबित होता नजर आता है.

अभी बहुत दिन नहीं हुए जब आम धारणा थी कि कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव, बीएसपी सुप्रीमो मायावती, डीएमके नेता एम. करुणानिधि, राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू प्रसाद, कांग्रेस से बगावत कर आंध्र प्रदेश में अपनी पार्टी वाइएसआर कांग्रेस बनाने वाले जगनमोहन रेड्डी और इंडियन नेशनल लोकदल के नेता ओम प्रकाश चौटाला के परिवारों की कमजोर नस दबा रखी है. जब सियासी समीकरण कांग्रेस के खिलाफ होते हैं, वह सीबीआइ की चाबी भरती है और ये सारे नेता खास किस्म का दबाव महसूस करने लगते हैं.

अभी कोई एक साल पहले की ही बात है जब मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री थीं. तब बीएसपी के एक सांसद ने इस संवाददाता से अनौपचारिक बातचीत में कहा था, ''बहनजी को सबसे ज्यादा नाराजगी तब होती है, जब आप संसद में भ्रष्टाचार और सीबीआइ जांच जैसे सवाल उठाते हैं.” उनका इशारा साफ था कि बीएसपी की मुखिया खुद भी सीबीआइ जांच के दायरे में हैं, ऐसे में वे नहीं चाहतीं कि उनकी पार्टी का कोई नुमाइंदा फटे में टांग अड़ाए.

हालांकि इस साल 9 जनवरी के इंडिया टुडे के अंक में प्रकाशित इंटरव्यू में मायावती ने कहा, ''कांग्रेस ही क्यों, बीजेपी भी सीबीआइ का दुरुपयोग करती है. यही दोनों पार्टियां केंद्र की सत्ता में रही हैं.” चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं मायावती ने कहा, ''सीबीआइ के जरिए हमें डराने की कोशिश की गर्ई, लेकिन हम डरे नहीं.” मायावती का डर खत्म होने का एक कारण तो यही है कि उन्हें ताज कॉरिडोर घोटाले में अदालत की ओर से तकरीबन क्लीन चिट मिल चुकी है. अब उनके ऊपर नए सिरे से दायर की गई पुनर्विचार याचिका का ही खतरा बचा है. बीएसपी के रंग-ढंग बताते हैं कि सीबीआइ का चाबुक उसके हाथी पर अंकुश लगाने में कामयाब नहीं हो रहा है.

कुछ ऐसा ही हाल सपा का भी है. मुलायम सिंह यादव को बखूबी पता है कि उनके समर्थन वापस लेते ही सरकार का बोरिया-बिस्तर बंध जाएगा. वे लगातार ऐसे बयान दे रहे हैं, जो कांग्रेस के लिए कोई सुखद संदेश लेकर नहीं आ रहे. खासकर केंद्रीय इस्पात मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा पर जिस तरह वे संसद में गरजे, उससे कांग्रेस को सांप सूंघ गया. हालात यहां तक पहुंचे कि केंद्रीय संसदीय कार्यमंत्री कमलनाथ ने तो अपने सहयोगी मंत्री का बयान खारिज किया ही, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को खुद संसद में मुलायम सिंह की कुर्सी तक चलकर जाना पड़ा, ताकि दो पुराने समाजवादियों के अहम का टकराव मनमोहन सिंह के सिंहासन को न हिला दे.

मुलायम सिंह के इन तेवरों को देखकर एक बारगी यही लगता है कि जैसे उनकी नजर में सीबीआइ का वजूद ही नहीं बचा है. जबकि वे, उनके पुत्र और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव सहित उनके परिवार के ज्यादातर सदस्यों पर सीबीआइ का शिकंजा कसा है. 2005 में उत्तर प्रदेश के एक कांग्रेस कार्यकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट में पीआइएल डालकर सपा प्रमुख और उनके परिवार द्वारा कथित तौर पर हासिल की गई दौलत की जांच की मांग की थी. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 1 मार्च, 2007 को सीबीआइ जांच के निर्देश दिए थे. उसके बाद से ही परिवार पर सीबीआइ की तलवार लटक रही है. लेकिन जिस तरह उत्तर प्रदेश की जनता ने 2012 में सपा को लखनऊ की गद्दी थमा दी और फिर दिल्ली की सरकार को भी समाजवादी बैसाखी की जरूरत पड़ी है, ऐसे में नेताजी सीबीआइ जांच को कांग्रेस की बंदर घुड़की से ज्यादा कुछ नहीं समझ् रहे हैं.

यही हाल लालू प्रसाद यादव का है. लालू को 1996 के चारा घोटाले के सिलसिले में 1997 में गिरफ्तार किया गया. उन पर पशु चारे के हिस्से में से 900 करोड़ रु. गबन करने का आरोप है. पिछले साल मार्च में सीबीआइ ने लालू और 32 दूसरे लोगों पर आरोप तय कर दिए हैं. लेकिन सबको याद है कि घोटाले में फंसने के बाद लालू केंद्र सरकार में शान से रेल मंत्री रहे. वे भले ही कांग्रेस से दोस्ती की रणनीति पर चल रहे हों, लेकिन इसकी वजह सीबीआइ का डर तो कम से कम नजर नहीं आता.

जिस डीएमके के युवराज स्टालिन के ठिकानों पर छापे को लेकर सीबीआइ के दांत खट्टे हुए, उस पार्टी के पास भी खोने को कुछ नहीं बचा है. 2जी घोटाले में करुणानिधि की बेटी कनिमोलि लंबे समय तक जेल में रहीं. पार्टी के कोटे से संचार मंत्री रहे ए. राजा का भी यही हश्र हुआ. करुणानिधि परिवार के दो सदस्य दयानिधि मारन और कलानिधि मारन भी 2जी घोटाले में सीबीआइ जांच के दायरे में हैं. अब करुणानिधि के लाडले  स्टालिन का नंबर आया है. इस पर स्टालिन ने कहा, ''यह राजनैतिक बदले की कार्रवाई है. हम इससे अदालत में निपटेंगे.” वैसे उनकी प्रतिद्वंद्वी और राज्य की मुख्यमंत्री जयललिता खुद भी सीबीआइ के चक्कर में जेल जा चुकी हैं.

जेल से छूट चुके लोगों को छोड़ भी दें तो, जो लोग अभी जेल में हैं, वे भी सीबीआइ की हैसियत समझ रहे हैं. आंध्र प्रदेश के कद्दावर नेता और पूर्व मुख्यमंत्री दिवंगत वाइ.एस. राजशेखर रेड्डी के पुत्र जगनमोहन रेड्डी ऐसे नेताओं में शामिल हैं. यह संयोग ही है कि अपने पिता के समय में ही बड़े बिजनेस टाइकून बन चुके जगनमोहन पर सीबीआइ का चाबुक तब चला जब वे कांग्रेस के बागी हो गए. लंबे समय से जेल में बंद होने के बावजूद राज्य में उनकी सियासी ताकत बढ़ती जा रही है. पुलिस हिरासत में करबद्ध विनम्र नौजवान की मुद्रा वाली उनकी तस्वीरें राज्य में उनकी लोकप्रियता को बढ़ा रही हैं. आंध्र में अब तक हुए लोकसभा और विधानसभा उपचुनावों में जगनमोहन की पार्टी को जबरदस्त कामयाबी मिली है. मजे की बात तो यह है कि उनकी पार्टी भी यूपीए को समर्थन दे रही है.

अगर दक्षिण का यह हाल है तो उत्तर में हरियाणा में भी सीबीआइ का ऐसा ही असर है. यहां टीचर भर्ती घोटाले में ओम प्रकाश चौटाला और उनके पुत्र अजय चौटाला को जेल हो चुकी है. यह सजा भी सीबीआइ अदालत ने सुनाई है. अब उनके छोटे बेटे अभय चौटाला पूरे राज्य में घूम-घूमकर इसे राजनैतिक बदले की कार्रवार्ई बता रहे हैं. हरियाणा में लोकसभा चुनाव के साथ ही 2014 में विधानसभा चुनाव होने हैं और कहीं चौटाला परिवार को थोड़ी भी सहानुभूति मिल गई, तो सत्ताधारी कांग्रेस के लिए सीबीआइ दुधारी तलवार साबित हो सकती है. सियासत का नफा-नुकसान अपनी जगह है, लेकिन 50 साल पुरानी एजेंसी का इकबाल जिस तरह घट रहा है, वह उसके लिए चिंता की बात है.

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